loader

हिमालय बचाओ नहीं तो कुछ नहीं बचेगा ? 

उत्तराखंड समेत समूचे हिमालयी क्षेत्र में बरसात के मौसम में तो बादल फटने, ग्लेशियर टूटने, बाढ़ आने, जमीन दरकने और भूकंप के झटकों की वजह से जान-माल की तबाही होती ही रहती है। ऐसी आपदाओं का कहर कभी उत्तराखंड, तो कभी कश्मीर, कभी हिमाचल प्रदेश तो कभी पूर्वोत्तर के राज्य अक्सर झेलते रहते हैं। लेकिन इस बार उत्तराखंड को सर्दी के मौसम में आपदा से रूबरू होना पड़ रहा है। बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब और अंतरराष्ट्रीय स्कीइंग स्थल औली जैसे प्रसिद्ध स्थानों का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले जोशीमठ में हाहाकार मचा हुआ है। आदि शंकराचार्य की तपोभूमि के रूप में जाना जाने वाला जोशीमठ तेजी से दरक रहा है। वहां सैकड़ों मकानों, सड़कों तथा खेतों बड़ी-बड़ी दरारें आ रही हैं, जिससे वहां रहने वाले लोगों का विस्थापन शुरू हो गया है। पिछले साल भी फरवरी यानी सर्दी के मौसम में उत्तराखंड में नंदादेवी ग्लेशियर टूटने से उत्तराखंड में  कुदरत का कहर बरपा था, जिससे चमोली जिले में भीषण तबाही मची थी और बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ था। आश्चर्यजनक रूप से सर्दी के मौसम में घट रही यह घटनाएं एक नए बड़े खतरे की ओर इशारा करती है। कहने को तो यह खतरा प्राकृतिक है और इसे जलवायु चक्र में हो रहे परिवर्तन से भी जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन असल में यह मनुष्य की खुदगर्जी और विनाशकारी विकास की भूख से उपजा संकट है। 
ताजा ख़बरें
पिछली बार जब केदारनाथ और कश्मीर में भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के आधार पर चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेड़छाड़ या उनका दोहन नहीं रोका गया तो नतीजे और व्यापक तथा भयावह होंगे। कुछ साल पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुड़े वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाड़ों और नदियों से छेड़छाड़ का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है। पिछले दो साल के दौरान दिल्ली सहित देश के कई इलाकों में आए भूकंप के झटके आ भी चुके हैं। 
तो इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। दुनिया के जलवायु चक्र में तेजी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज्यादा संवेदनशील है कि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है, जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी खतरा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है। 
हिमालय पर्वतमाला को भले ही दुनिया में सबसे नई पर्वतमाला माना जाता हो, लेकिन तथ्य यह भी है कि इसी हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोअनजोदड़ो की सभ्यता तक का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साईबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के बाशिंदों की रक्षा की और इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फूलने में भी भरपूर मदद की।
इसी इलाके से जैन धर्म-दर्शन के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी और यहीं करुणा पर आधारित बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने अफगानिस्तान के बामियान से लेकर कंपूचिया तक तथा नीचे की ओर श्रीलंका तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेटा। इसी नगाधिराज हिमालय से निकली जीवनदायिनी नदियों के किनारे बैठकर तुलसी ने रामचरित जैसे महाकाव्य की रचना और कबीर ने लोक से जुड़े ज्ञान और दर्शन की गंगा बहाई। यहीं से नानक, रैदास आदि तमाम मनीषियों, भक्त कवियों और सूफी संतों ने समूची मानवता को उदात्त जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित किया। इसी हिमालय की छांव में बिहार के चंपारण और उत्तराखंड के कौसानी से महात्मा गांधी ने समूचे विश्व को शांति, अहिंसा और भाईचारे की भावना पर आधारित जीवन दर्शन और विकास की नई सर्वसमावेशी अवधारणा से रूबरू कराया। विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की छांह तले यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। पिछले एक दशकके दौरान केदारनाथ और कश्मीर की बाढ़ तथा नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप जैसी भीषण त्रासदियों और उसके बाद से लेकर अब तक जारी तमाम छोटी-बड़ी त्रासदियों की प्रकृति भले ही अलग-अलग किस्म की रही हों लेकिन ये सभी एक तरह से हिमालय के क्षेत्र में हुई हैं और इनका एक ही संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। 
भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है। इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले 70-75 सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे हमें कभी भीषण गरमी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम झेलना पड़ता है और कभी बादल फट पड़ते है तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है पहाड़ धंसने लगते हैं। समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को इसी रूप में देखा जा सकता है। हजारों-हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर गई तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्रासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हकीकत यह है कि यह मानव निर्मित आपदाएं ही थी जिसे विकास और आधुनिकता के नाम पर न्यौता जा रहा था और अभी भी यह सिलसिला जारी है।
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए। जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की जरुरत है। हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है, जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है। हिमालय एशिया का वाटर टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है। लिहाजा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है।
पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है। लेकिन इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य, सबकी़ दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं। ये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय बाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक कारोबारी गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं।

पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है। पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। कुछ अध्ययनों से यह भी जाहिर हो चुका है कि संचार सुविधाओं के लिए लगे टावरों से निकलने वाली तरंगों की वजह से बादलों का संतुलन बिगड़ता है और वे अचानक फट कर संकट पैदा कर देते हैं।
पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजनाशुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरुरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आमतौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इन सबके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं, लेकिन सिर्फ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ  छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता। राजनीतिक नेतृत्व और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) का चाल-चलन भी उनसे यह उम्मीद करने की इजाजत नहीं देता कि वे हिमालय की हिफाजत के लिए कोई ईमानदार पहल करेंगे। पिछले तीन दशक में रियो से शुरू होकर पेरिस तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुईं, जिनमें दक्षिण एशिया की सरकारों के नुमाइंदों ने भी शिरकत की। साल 2011 में डरबन जलवायु सम्मेलन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहरी चिंताएं उभर कर सामने आई थीं, लेकिन उस सम्मेलन में भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा जा सका। 
विचार से और खबरें

दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना पचास के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'हिमालय बचाओ' का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आंदोलन' शुरू किया था। हालांकि संदर्भ और परिपेक्ष्य काफी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार-सूत्र तो मिल ही सकते हैं।

सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें