पिछले कुछ दिनों से जब किसी जानने वाले का फ़ोन आता है तो डर लगने लगता है। न जाने कौन सी मनहूस ख़बर आ जाए। इतना डर, इतना ख़ौफ़ पहले कभी नहीं देखा। हर तरफ़ मायूसी और उदासी। बेबसी और विवशता का आलम यह है कि न किसी से कुछ कहते बनता है और न ही यह यक़ीन होता है कि कुछ कहने से कुछ हो पाएगा।

क्या मार्च 2020 से अब तक अस्पतालों की संख्या बढ़ी, अस्पतालों में कोरोना बेड बढ़े, डॉक्टर-नर्स बढ़े, ऑक्सीजन की सप्लाई बढ़ायी गयी, आईसीयू के इंतज़ाम हुए कि किसी आपात स्थिति से निपटा जाए, वेंटीलेटर ख़रीदे गए, एम्बुलेंस की रफ़्तार बढ़ी, कोरोना की दवाओं की आमद में इज़ाफ़ा हुआ, और वैक्सीन लगाने में तेज़ी दिखायी गयी? इन सबका जवाब एक ही है। नहीं।
ये हालात बने क्यों? पिछले साल जब जनवरी फ़रवरी में कोरोना आया था, तभी से विशेषज्ञ कह रहे थे कि कोरोना की दूसरी लहर आएगी। दूसरी लहर पहले से अधिक ख़तरनाक होगी। दूसरी के बाद तीसरी और चौथी लहर भी आएगी। जब 24 मार्च को रात आठ बजे लॉकडाउन का ऐलान प्रधानमंत्री ने किया था तब भी डर और दहशत का ऐसा ही मंजर था। लोग घरों में दुबके थे। एक पूरी पीढ़ी पहली बार महामारी को देख रही थी। पूरी दुनिया ही इस हादसे से दो-चार हो रही थी। इटली हो या स्पेन या फिर जर्मनी और अमेरिका, हालात हर जगह ख़राब थे। भारत तो एक पिछड़ा हुआ मुल्क था, स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत बहुत ख़राब थी, ऐसे में लॉकडाउन एक मात्र सहारा था।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।