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महामारी की आड़ में जनगणना करने से कतरा रही है सरकार

भारत में जनगणना का अभियान हर दस वर्ष में मनाया जाने वाला एक ऐसा राष्ट्रीय उत्सव है, जिसमें देश के हर हिस्से में रहने वाले हर नागरिक की भागीदारी होती है। देश के भविष्य निर्माण में जनगणना के आँकड़ों का बेहद अहम योगदान होता है। इन आँकड़ों के आधार पर ही केंद्र और राज्य सरकारें विकास की योजनाएँ और नीतियाँ बनाती हैं और उन पर अमल करती हैं। इसलिए भारत में हर दस साल पर यानी हर दशक के पहले वर्ष में जनगणना होती रही है, लेकिन 2021 में होने वाली जनगणना का काम कोरोना महामारी के नाम पर अभी तक शुरू नहीं हो सका है।

भारत में जब से जनगणना का सिलसिला शुरू हुआ है तब से अब तक यह पहला मौक़ा है जब निर्धारित समय के बाद भी जनगणना का काम शुरू नहीं हुआ है।

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भारत में पहली जनगणना 1871 में हुई थी। उसके बाद 1941 तक यानी आठ जनगणना ब्रिटिश राज में हुई। देश की आजादी के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा और इस लिहाज से 1951 में हुई जनगणना नौवीं जनगणना थी। लेकिन 1947 में देश का बंटवारा होने और आजादी मिलने के बाद की वह पहली जनगणना थी। इस लिहाज से 9 फरवरी की तारीख काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि 1951 में इसी दिन आजाद भारत की पहली जनगणना के लिए काम शुरू किया गया था। इस जनगणना में देश का विभाजन होने के कारण पिछली जनगणना के मुकाबले बहुत से बदलाव आए। भारत का नक्शा बदलने के साथ ही इस जनगणना में हिंदू-मुसलिम आबादी का अनुपात भी बदल गया।

चूँकि जनगणना का कार्य युद्ध, महामारी, प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक असंतोष जैसी स्थितियों में होता रहा है, इसलिए 2011 तक यह सिलसिला निर्बाध रूप से जारी रहा, लेकिन 2021 में महामारी के नाम पर यह सिलसिला थम गया, जो 2022 शुरू होने के बाद भी थमा हुआ है। हालाँकि, भारत सरकार ने 2021 की जनगणना के लिए 29 मार्च 2019 को अधिसूचना जारी की थी। 

उस अधिसूचना में कहा गया था कि जनगणना का काम दो चरणों में होगा। पहले चरण अप्रैल से सितंबर 2020 तक मकानों की गिनती होनी थी और उसके बाद नौ फरवरी से आबादी की गिनती की जाना थी। लेकिन मार्च 2020 में कोरोना की महामारी शुरू होने और देशव्यापी लॉकडाउन लागू हो जाने के कारण यह शुरू नहीं हो सका।

कोरोना की दूसरी लहर के बाद धीरे-धीरे दूसरी सभी गतिविधियाँ शुरू हो गईं, चुनाव भी होने लगे और बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियाँ और रोड शो भी हुए, कुंभ मेले सहित कई बड़े धार्मिक-राजनीतिक आयोजन भी हुए लेकिन जनगणना का काम शुरू नहीं हो सका।

जनगणना का काम नहीं होने से जाहिर है कि सरकार के पास आबादी और उससे जुड़े अन्य मामलों के वास्तविक आंकड़े नहीं हैं। निश्चित रूप से इसका असर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के अमल पर हो रहा होगा। सरकार को कई नीतियाँ और योजनाएँ आबादी, शहरी और ग्रामीण वर्गीकरण के आधार पर बनानी होती हैं। इसके अलावा आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के आंकड़े भी सरकार के पास होना चाहिए।

पिछले कुछ सालों से जातीय आधार पर जनगणना की मांग भी लगातार हो रही है, जिस पर पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का रवैया भी टालमटोल वाला था और इस सरकार ने तो इस मांग को सिरे से ही खारिज कर दिया है। 

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पिछले साल मार्च में सरकार की ओर से जनगणना के लिए एक वैकल्पिक समय सीमा बताई गई थी, जिसके मुताबिक़ 2021-22 में मकानों की गिनती होनी थी और 2022-23 में लोगों की गिनती, अनुसूचित जाति (एससी)-अनुसूचित जनजाति (एसटी) का डाटा, भाषा, शिक्षा, साक्षरता, आर्थिक गतिविधियों आदि के बारे में जानकारी जुटाने का काम प्रस्तावित था। सरकार ने कहा था कि जनगणना संबंधी अंतरिम आंकड़े 2023-24 में जारी कर दिए जाएंगे। अब साल 2021 ख़त्म हो चुका है और 2022 की शुरुआत हो चुकी है लेकिन जनगणना के प्रारंभिक चरण यानी मकानों की गिनती का काम भी शुरू नहीं हो सका है।

देश को आज़ाद हुए 75 वर्ष पूरे हो चुके हैं। मौजूदा सरकार का दावा है कि कमजोर तबक़ों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने और अन्य लोक कल्याण संबंधी जितने काम पिछले 70 साल में नहीं हुए, उससे ज़्यादा काम उसने महज 6-7 साल में ही कर दिए हैं। 

लेकिन जनगणना शुरू कराने को लेकर उसके टालू रवैये से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह सरकार विकास, सामाजिक न्याय और समाज कल्याण को लेकर कितनी गंभीर है!

वैसे भी जब कोई सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की शुरू की गई योजनाओं के नाम बदलने, उसके द्वारा शुरू की गई विकास परियोजनाओं को अपनी बता कर उनका उद्घाटन करने तथा शहरों, सड़कों, इमारतों और रेलवे स्टेशनों का नाम बदलने को ही विकास समझती हो तो उसके लिए जनगणना के आंकड़े कोई मायने नहीं रखते।

हालाँकि अभी भी केंद्र सरकार यही कह रही है कि वह 2021 की जनगणना कराएगी, लेकिन सूत्रों के हवाले से ख़बर यह भी आ रही है कि सरकार कोरोना वैक्सीनेशन के आँकड़ों से हासिल जनसंख्या के आँकड़े को ही जनगणना का आँकड़ा मान सकती है। अगर सरकार ऐसा करती है तो यह निश्चित ही बहुत अनर्थकारी और देश के लोगों की आंखों में धूल झोंकने वाला काम होगा। क्योंकि वैक्सीनेशन के आँकड़ों से सिर्फ आबादी की संख्या ही पता चलेगी, जबकि विधिवत और पारंपरिक तरीक़े से होने वाली जनगणना से कई तरह के आँकड़े मिलते हैं, जिनके आधार पर ही केंद्र और राज्य सरकारें अपनी नीतियां और जनकल्याणकारी योजनाएं बनाती हैं।

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दरअसल वैक्सीनेशन के आँकड़े किसी भी तरह जनगणना के आँकड़ों का विकल्प नहीं हो सकते। जनगणना के आँकड़ों से देश की जनसंख्या के साथ ही जनसंख्या बढ़ने या घटने की दर, जनसंख्या का घनत्व, धर्म आधारित जनसंख्या और लिंगानुपात संबंधी जानकारी मिलती है। मकानों की संख्या का पता चलता है। इन्हीं आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि कितने लोगों के पास अपना स्वयं का मकान है, कितने लोग किराए के मकान में रहते हैं, कितने लोग कच्चे या पक्के मकानों में रहते हैं और कितने लोग बेघर हैं या झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं।

इसके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति की आबादी के आँकड़े पता चलते हैं। लोगों की सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति के साथ ही देश में साक्षरता के बारे में भी जानकारी मिलती है। 

जनगणना से ही यह भी पता चलता है कि विभिन्न प्रदेशों में मातृभाषा और दो अन्य भाषाओं की स्थिति क्या है। वैक्सीनेशन के आंकड़ों से सिर्फ लोगों की संख्या का ही पता चलेगा। इसलिए वैक्सीनेशन के आंकड़े किसी भी सूरत में जनगणना के आंकड़ों का विकल्प नहीं हो सकते।
सरकार के बाक़ी सारे काम कोरोना महामारी के बीच भी होते रहे हैं। राज्यों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव तथा चुनावी रैलियां भी महामारी के दौरान नहीं रुकी हैं तो फिर जनगणना टालने का क्या मतलब है? जनगणना के काम में तो भीड़ भी नहीं जुटती है। सरकार जिस तरह चुनावी प्रक्रिया में शामिल सरकारी कर्मचारियों को फ्रंटलाइन वर्कर मान कर उन्हें वैक्सीन का प्रीकॉशन डोज लगवा रही है, उसी तरह से जनगणना करने वाले कर्मचारियों को भी प्रीकॉशन डोज लगा कर काम शुरू कराया जा सकता है।
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अनिल जैन
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