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गाँधी के देश को नफ़रत के प्रायद्वीप में बदल दिया मोदी-राज ने!

हम शांति के लिए सभी धर्मों की प्रतिबद्धता को स्वीकार करते हैं और नस्लवाद और असहिष्णुता के अन्य रूपों समेत आतंकवाद के सभी रूपों की निंदा करते हैं

(10 सितंबर को जारी जी-20 समिट के दिल्ली घोषणापत्र का एक संकल्प)

ये घोषणा उसी ‘जी-20 समिट’ की है जिसे चमकदार बनाने में प्रधानमंत्री मोदी ने ज़मीन-आसमान एक कर दिया था। लेकिन सिर्फ़ ग्यारह दिन बाद, 21 सितंबर को संसद के विशेष सत्र के आख़िरी दिन पार्टी के ही सांसद रमेश विधूड़ी, अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाले बीएसपी सांसद दानिश अली को आतंकवादी समेत कुछ ऐसी गालियाँ देते नज़र आये जिनका ज़िक्र यहाँ नहीं किया जा सकता। धार्मिक पहचान से जुड़े उन शब्दों को संसद के किसी भी सदन में पहली बार बोला गया था। संसद टीवी के सीधे प्रसारण से इस दृश्य को दुनिया भर ने देखा और हैरान रह गयी, ख़ासतौर पर जब उसी फ्रेम में बीजेपी के दो बड़े नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ.हर्षवर्धन और रविशंकर प्रसाद हँसते नज़र आये।

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लेकिन उन लोगों को शायद इस घटना से हैरानी नहीं हुई जो ग्लोब के दूसरे हिस्से में बैठे भारत की घटनाओं पर बारीक़ नज़र रखे हुए हैं। उसी 21 सितंबर को अमेरिका के अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग (USCIRF) के आयुक्तों ने भारत पर एक सुनवाई के दौरान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों के "परिष्कृत, व्यवस्थित उत्पीड़न" को लेकर गहरी चिंता जताई। इस सुनवाई में अल्पसंख्यक मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक डॉ. फर्नांड डी वेरेन्स ने कहा, " शांति सुनिश्चित करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार को स्पष्ट रूप से संकेत देना चाहिए कि भारत की स्थिति चिंताजनक है। भारत एक बड़ी खतरनाक स्थिति की ओर बढ़ रहा है, जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका पर भी असर होगा।" सुनवाई के दौरान यूएससीआईआरएफ आयुक्त डेविड करी ने कहा, “मुझे विश्वास हो गया है कि किसी भी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों का सबसे परिष्कृत, व्यवस्थित उत्पीड़न भारत में किया गया है। और मैं इसे हल्के में रूप में नहीं कह रहा हूँ।”

अगर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवदेक भारत की स्थिति चिंताजनक मान रहे हैं तो फिर समझना मुश्किल नहीं कि जी-20 के नाम पर दिल्ली ही नहीं, सभी प्रदेशों की राजधानियों और बड़े शहरों में हुए जगर-मगर आयोजनों से विश्व जनमत बिल्कुल भी प्रभावित नहीं हुआ है। वह भारत को मानवाधिकार से लेकर अल्पसंख्यकों की सुरक्षा से जुड़ी उन तमाम कसौटियों पर कस रहा है जिनके प्रति प्रतिबद्ध रहने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य रहते हुए भारत ने की है। गाँधी के देश को अल्पसंख्यक समुदाय के लिए ख़तरनाक बताने का कारण खोजना उनके लिए मुश्किल भी नहीं है जब बीजेपी के सांसद, संसद में ही अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति खुली नफ़रत ज़ाहिर कर रहे हों।
रमेश विधूड़ी कोई नये-नवेले नेता नहीं हैं। आरएसएस के छात्रसंगठन एबीवीपी के ज़रिए राजनीति में क़दम रखने वाले विधूड़ी सांसद बनने के पहले तीन बार विधायक रह चुके हैं और लोकसभा में भी वे दूसरी बार पहुँचे हैं। ज़ाहिर है, उनकी भाषा और नफ़रत एक लंबे ‘प्रशिक्षण’ और ‘संस्कार’ को ज़ाहिर करती है। रमेश विधूड़ी के प्रति कार्रवाई की जगह चेतावनी जारी करके लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने भी बता दिया है कि यह उनके लिए कितना ‘गंभीर’ मामला है।

उधर, 21 सितंबर को ही कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने न्यूयार्क में खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारत की भूमिका से जुड़े आरोप को दोहराया। उन्होंने कहा कि इस बाबत भारत को कई हफ्ते पहले जानकारी दी जा चुकी है। भारत ने कनाडा के प्रधानमंत्री के आरोपों का कड़ाई से प्रतिवाद किया है लेकिन यह चिंता की बात होनी चाहिए कि अमेरिका इस मामले में कनाडा के साथ दिख रहा है। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकरा जेक सुलविन ने 21 सितंबर को ही व्हाइट हाउस में आयोजित पत्रकार वार्ता मे कनाडा के आरोप के संदर्भ में कहा कि- "यह हमारे लिए चिंता का विषय है। यह ऐसी बात है जिसे हम गंभीरता से लेते हैं। यह ऐसी चीज है जिस पर किसी भी देश की परवाह किए बिना हम काम करना जारी रखेंगे।"
कहा जा रहा है कि अमेरिका का यह रुख इसलिए भी है कि कनाडा के प्रधानमंत्री के ‘आरोप फाइव आइज़ एलायंस’ से मिली रिपोर्ट पर आधारित हैं। यह अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के ख़ुफ़िया तंत्र का संयुक्त गठबंधन है। यानी इस जाँच में अमेरिकी एजेंसियाँ भी शामिल रही हैं।

इसमें शक़ नहीं कि कनाडा में खुलेआम खालिस्तान समर्थक गतिविधियाँ होती हैं जिसे रोकने की कोई कोशिश कनाडा की सरकार की ओर से नहीं होती। शुरू से ही खालिस्तानी आंदोलन के शिल्पकारों के लिए कनाडा एक सुरक्षित पनाहगार रही है। भारत का इस पर आपत्ति करना स्वाभाविक ही है कि जो लोग भारत की नज़र में आतंकवादी हैं उन्हें कनाडा में अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर खुली छूट है। यह भी सच हो सकता है कि कनाडा में अकेले दम बहुमत न पा सकने वाले जस्टिन ट्रूडो खालिस्तानी तत्वों के समर्थन के लिए यह रुख अख़्तियार कर रहे हों, लेकिन यह पहली बार है कि किसी देश ने भारत सरकार पर हत्या कराने का आरोप लगाया है! देश को इस स्थिति में पहुँचाने के लिए सीधे-सीधे मोदी सरकार की कूटनीतिक विफलता ज़िम्मेदार है।
भारत के बारे में बदली हुई धारणा आने वाले दिनों में तमाम समस्याओं को जन्म देने वाली है। जो भारत महात्मा गाँधी के देश और शांति के मसीहा के रूप में सम्मानित था, उसे अब ‘नफ़रत का प्रायद्वीप’ कहा जा रहा है। इस प्रायद्वीप से महाद्वीपों को नफ़रत निर्यात की जा रही है। मोदी सरकार के आने के बाद दुनिया के तमाम देशों में हिंदू अप्रवासियों के बीच आरएसएस और उससे जुड़े संगठन सक्रिय हैं। वे भारत में अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को 'सेलीब्रेट' करते नज़र आते हैं। पिछले साल अमेरिका के न्यूजर्सी में बुलडोज़र और योगी आदित्यनाथ के पोस्टर के साथ आप्रवासियों के एक समूह ने स्वतंत्रता दिवस परेड निकाली थी। बाद में जब इसका संदर्भ स्पष्ट हुआ तो परेड की इजाज़त देने वाले प्रशासन को सार्वजनिक रूप से खेद जताना पड़ा था।

ऐसी ही घटनाओं की वजह से वैश्विक स्तर पर ‘हिंदूफ़ोबिया’ शब्द चलन में आ गया है। इसका इस्तेमाल आरोपों से बचाव के लिए वैसे ही किया जाता है जैसे ‘इस्लामोफ़ोबिया’ का किया जाता रहा है। लेकिन यह एक शांतिपूर्ण समाज के उग्र तेवर वाली नफ़रती भीड़ में बदलने का स्वाभाविक नतीजा है जिसका संज्ञान पूरी दुनिया ले रही है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि यूएससीआईआरएफ लगातार तीन साल से भारत को सीपीसी (विशेष चिंता वाले देश) के रूप में नामांकित कर रहा है। अमेरिकी सरकार इसे लेकर दबाव में है क्योंकि सीपीसी की सूची मे आते ही भारत के ख़िलाफ़ उसे कई तरह की कार्रवाई करनी पड़ सकती है।

पिछले दिनों अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता आयोग के पूर्व अध्यक्ष नादिन मेन्ज़ा ने कैपिटल हिल में आयोजित एक संसदीय ब्रीफ़िंग को संबोधित करते हुए कहा था कि बाइडन प्रशासन को पीएम मोदी के सामने भारत में जारी अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा, ख़ासतौर पर मणिपुर और हरियाणा के नूह का मामला उठाना चाहिए। “उन्हें स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि यदि यह हिंसा नहीं रुकी तो बाइडन प्रशासन क़ानूनी रूप से भारत को धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के अपराधी के रूप में चिन्हित करने को मजबूर होगा।”

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जी-20 सम्मेलन के महज़ 11 दिनों बाद वैश्विक स्तर पर निशाने पर आये भारत की तमाम आर्थिक संभावनाएँ धूमिल पड़ सकती हैं। ऐसा लगता है कि इस सम्मेलन पर खर्च हुए अरबों रुपये पानी में बह गये। मोदी सरकार का दावा 2028 तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने का है। लेकिन परिदृश्य ऐसा है कि निवेशक मुँह मोड़ रहे हैं। नफ़रत में डूबे प्रायद्वीप को नसीहत मिलती है, निवेश नहीं। क्या ये संयोग है कि चालू वित्त वर्ष की अप्रैल-जून तिमाही में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) 34 फ़ीसदी घटकर महज़ 10.94 डॉलर रह गया जो बीते वित्तवर्ष की इसी तिमाही में 16.56 अरब डॉलर था। नफ़रत की राजनीति के समर्थकों को समझ लेना चाहिए कि ऐसी उड़ान का रुख आकाश नहीं पाताल होता है। 

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क़मर वहीद नक़वी
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