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1977 जैसे नतीजे के लिए मौजूदा विपक्ष क्या करे?

अब जबकि अगले लोकसभा चुनाव की घोषणा को पचास दिन भी नहीं रह गए हैं, देश के सियासी मिजाज को लेकर अटकलों का दौर जारी है। बावजूद इसके कि प्रधानमंत्री मोदी अपने अगले तीसरे कार्यकाल को महज औपचारिकता बताकर अपनी नई सरकार के सौ दिन के एजेंडे पर काम कर रहे हैं, विपक्ष की संभावनाओं को लेकर विश्लेषण और आकलन जारी है। इस क्रम में ‘सत्य हिन्दी’ में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग का ताजा लेख, "हालात आपातकाल के हैं, तो नतीजे भी 1977 जैसे मिलने चाहिए!" से कुछ मौजू सवाल उठते हैं, जिन पर गौर करना दिलचस्प होगा।

श्रवण गर्ग ने अपने लेख का समापन जिस एक पंक्ति से किया है, दरअसल वहां से एक बड़ा सूत्र मिलता है। उन्होंने लिखा है, "जनता की उम्मीदें इस समय यही हैं कि परिस्थितयां अगर 1975 के आपातकाल के तरह की हैं, तो नतीजे भी 1977 जैसे प्राप्त होने चाहिए!" इस पर वाकई गौर करने की जरूरत है। जाहिर है, इसके लिए पांच दशक (करीब 49 वर्ष) पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत है।

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इंदिरा गांधी ने समय से पहले कराए गए 1971 के चुनाव में लोकसभा की 521 सीटों पर हुए चुनाव में कांग्रेस ने बम्पर 352 सीटें हासिल की थीं। "गरीबी हटाओ" के नारे पर लड़े गए इस चुनाव में इंदिरा के सामने विपक्ष लगभग ध्वस्त हो गया था। इस जीत के कुछ महीने बाद ही "बांग्ला मुक्ति संघर्ष" और बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही इंदिरा गांधी लोकप्रियता के शिखर पर थीं। लेकिन अगले कुछ वर्षों में ही उनकी लोकप्रियता अर्श से फ़र्श पर आ गई। 12 जून, 1975 को आए इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले ने विपक्ष को नई ताकत दे दी, जिसमें 1971 में इंदिरा गांधी के निर्वाचन को सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग जैसे आरोप के आधार पर निरस्त कर दिया गया था। यह बेहद कमजोर तर्कों के आधार पर आया फैसला था। इसने इंदिरा गांधी के लिए बड़ी चुनौती पेश कर दी। 24 जून, 1975 को सर्वोच्च अदालत ने इंदिरा को राहत भी दे दी। इसी दौरान विपक्ष ने 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी के नेतृत्व में एक बड़ी रैली का आयोजन किया। इस रैली और उसके बाद के घटनाक्रम पर अनगिनत शब्द लिखे जा चुके हैं।

निस्संदेह सर्वोच्च अदालत से मिली राहत के बावजूद जेपी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन ने इंदिरा की मुश्किलें बढ़ा दी थीं। 25 जून की रैली में जेपी ने पुलिस और सेना तक का आह्वान कर इंदिरा को खुली चुनौती दे दी थी! इस रैली के कुछ घंटे के भीतर ही इंदिरा ने देश में आंतरिक आपातकाल लगाने का फैसला कर लिया, जिसने देश की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया। आपातकाल के लागू होते ही खासतौर से उत्तर भारत में बड़े पैमाने पर विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। जेपी सहित विपक्ष के सारे बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया था। ये गिरफ्तारियां आम तौर पर मेंटनेंस ऑफ़ इंटरनल सिक्योरिटी ऐक्ट (मीसा) के तहत की गई थीं। प्रेस पर भी शिकंजा कसा गया था। बची-खुची कसर 1976 की जनसंख्या नीति की आड़ में संजय गांधी के आह्वान पर हुई जबरिया नसबंदी ने पूरी कर दी।

और ऐसे माहौल में अचानक इंदिरा ने 18 मार्च, 1977 को सालभर से टल रहे लोकसभा का चुनाव कराने का ऐलान कर सबको हैरत में डाल दिया था। वास्तव में तब विपक्ष चुनाव के लिए तैयार ही नहीं था। उस समय जेपी और चरण सिंह सहित अनेक नेता जेल से बाहर आ चुके थे, लेकिन तब भी बहुत से नेता देश की विभिन्न जेलों में बंद थे। हालांकि जेपी ने जेल से रिहाई के बाद विपक्षी दलों के नेताओं के साथ कई बैठकें कीं और 25 मई, 1976 को एक नई पार्टी के गठन का एलान किया। हालांकि इसमें आरएसएस को लेकर एतराज था। 
चरण सिंह और तब जेल में बंद मधु लिमये जैसे नेता आरएसएस से संबद्धता के कारण भारतीय जनसंघ को उसमें शामिल करने के पक्ष में नहीं थे।

उन राजनीतिक पंडितों को जो विपक्ष के बिखरे होने की बात करते हैं, यह जानना ज़रूरी है कि 1977 के चुनाव के एलान के समय जनता पार्टी पूरी तरह से आकार नहीं ले सकी थी। भारतीय लोकदल, संगठन कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ जनता पार्टी के प्रमुख घटक थे।  इन सब पार्टियों के चुनाव चिह्न अलग-अलग थे। लेकिन जनता पार्टी के सारे उम्मीदवारों ने भारतीय लोकदल के उम्मीदवार के रूप में "हलधर किसान" चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा। उत्तर भारत में यह चुनाव वास्तव में जनता पार्टी का न होकर जनता का चुनाव हो गया था। इसीलिए 1977 के नतीजों को "जनता लहर" कहा गया।  जनता पार्टी को 295 सीटें मिली थीं, जिनमें से अधिकांश सीटें उत्तर भारत की थीं। कांग्रेस को 154 सीटें मिलीं, जिनमें से अधिकांश सीटें दक्षिण भारत की थीं। आज विपक्ष में रहते कांग्रेस को सर्वाधिक उम्मीद भी दक्षिण से ही है! इस पर अलग से बात हो सकती है।

अब आज की बात। यह जान लीजिए कि कांग्रेस के खिलाफ़ आज भी आपातकाल को हथियार बनाने वाली भाजपा सरकार औपचारिक रूप से आपातकाल (अनुच्छेद 352) नहीं लगाएगी। उसके पास बहुसंख्यक हिंदुत्व का मुद्दा है, जिसे वह लगातार भुना रही है।  विगत कुछ वर्षों में नागरिक आंदोलनों के खिलाफ सरकारी एजेंसियों ने जिस तरह की कार्रवाइयां की हैं, उसने कई मौकों पर आपातकाल की याद दिलाई है। दिल्ली की ओर आ रहे किसानों को रोकने के लिए जिस तरह से सड़कों पर लोहे की कील और सीमेंट के बैरिकैड लगाए गए, यह इसका ताजा उदाहरण है। विपक्ष शासित राज्यों और विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियों की कार्रवाइयां सवालों के घेरे में हैं। केंद्र और गैर भाजपा शासित राज्यों के बीच टकराव बढ़ा है, जिसमें राज्यपाल कई मौकों पर राजनीतिक फैसले लेने से गुरेज नहीं करते।  

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सरकार के प्रबंधकों को मीडिया को साधने के लिए अतिरिक्त मेहनत नहीं करनी पड़ रही है, उसका बड़ा हिस्सा पहले ही मोदी सरकार की तीसरी पारी को लेकर आश्वस्त है। दूसरी ओर विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ़ अब तक "आपातकाल जैसे हालात"  को लेकर कोई एक केंद्रीय आख्यान प्रस्तुत नहीं कर सका है। उसकी बहुत-सी ऊर्जा आपसी तालमेल को सुधारने में खर्च हो रही है।
2024 में 1977 जैसे नतीजे आएंगे या नहीं, यह अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन विपक्ष को 1977 से कुछ सीख मिल सकती है।

यहां मैं बिना मांगे पांच सुझाव दे रहा हूं। 

पहला यह कि, इंडिया गठबंधन के घटक दलों को जनता पार्टी की तरह एकजुटता से चुनाव लड़ना होगा। जनता पार्टी के सभी उम्मीदवारों ने लोकदल के चुनाव चिह्न "हलधर किसान" पर चुनाव लड़ा था। अभी इंडिया गठबंधन का पूरा स्वरूप ही नहीं बन पाया है। एक चुनाव चिह्न से लड़ना मुश्किल होगा, क्योंकि घटक दल विलय कर कोई नया दल नहीं बना रहे हैं। यह भी संभव नहीं है कि कोई भी दल अपनी पहचान खोकर चुनाव लड़ना चाहे। फिर भी, जिन राज्यों में जो घटक दल मजबूत हैं, क्या उसके चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा जा सकता है? शायद नहीं, इसलिए इंडिया गठबंधन को हर राज्य की परिस्थिति के अनुसार अलग रणनीति बनाने की ज़रूरत है।

जिन राज्यों में जो घटक मजबूत या बड़ा दल है उसे चुनावी रणनीति की कमान सौंपनी चाहिए। मसलन, 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सपा यह भूमिका निभा सकती है। इसी तरह 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में एक अलग रणनीति हो सकती है। यहां विभाजन के बाद शरद पवार की एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना को नए चुनाव चिह्न मिले हैं, क्या वे इस चुनाव में कांग्रेस के पंजा छाप पर चुनाव लड़ सकते हैं? यह फैसला थोड़ा अव्यवहारिक है, पर साहसिक हो सकता है। 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी से तालमेल नहीं हुआ है, लेकिन इसमें देर नहीं करनी चाहिए और ममता को केंद्रीय भूमिका दी जानी चाहिए। 39 सीटों वाले तमिलनाडु में अड़चन नहीं है। वहां द्रमुक और कांग्रेस के बीच तालमेल है। 20 सीटों वाला केरल इन सबसे अलग है, लेकिन यदि प्रधानमंत्री मोदी वहां दस सीटें जीतने का लक्ष्य रख रहे हैं, तो वाम दलों और कांग्रेस दोनों को थोड़ी उदारता बरतनी होगी।

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दूसरा, 1977 में विपक्षी दलों को इंदिरा के खिलाफ जनता के बीच कोई आख्यान बनाना नहीं पड़ा। आपातकाल और उससे भी अधिक नसबंदी की ज्यादतियों के कारण उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ भारी नाराजगी थी। इसके विकल्प के रूप में विपक्ष को बिना देर किए हुए अपना साझा एजेंडा, यह साझा घोषणा पत्र के रूप में हो सकता है, जारी करना चाहिए।

तीसरा, इंडिया गठबंधन के नेताओं को मीडिया की बयानबाजी से बचना चाहिए और तुरंत अपना एक मीडिया पैनल बनाना चाहिए। यह  गठबंधन के प्रवक्ताओं के एक पैनल के रूप में हो सकता है, जिसे अधिकृत बयान जारी करने की जिम्मेदारी दी जाए।

चौथा, इंडिया गठबंधन के नेताओं की देश भर में साझा सभाएं तुरंत आयोजित करनी चाहिए। चुनावी लोकतंत्र में जनता से सीधे संवाद का कोई विकल्प नहीं है।

और अंत में, पांचवाँ यह कि इंडिया गठबंधन के घटक दलों को अपनी आंतरिक व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए, ताकि चुनाव में भितरघात से बचा जाए। हाल के राज्यसभा चुनाव में हिमाचल और उत्तर प्रदेश में भितरघात नहीं बल्कि खुला घात हुआ है। आप चुनावी मैदान में अपने मज़बूत प्रतिद्वंद्वी पर दोष मढ़कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। और फिर यहां तो चौबीस घंटे चुनावी मशीनरी की तरह काम करने वाली भाजपा से मुकाबला है।

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सुदीप ठाकुर
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