लव जिहाद के नाम पर लाए गए धर्मांतरण विरोधी क़ानून का असली मक़सद क्या है? लव जिहाद क्या है? वस्तुतः लव जिहाद मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रोपेगेट किया गया फिकरा है। प्रेम का ढोंग करके हिंदू लड़की को मुसलमान बनाना लव जिहाद है। प्रचारित किया जा रहा है कि 'शिकारी' मुसलमान लड़के भोली-भाली हिन्दू लड़कियों को अपने जाल में फँसाकर शादी करने के लिए जबरन उनका धर्म परिवर्तन कराते हैं। तुलसीदास के शब्दों में 'जिमि स्वतंत्र होई बिगरही नारी'! तुलसी बाबा के अनुयाइयों को ऐसा यक़ीन भी है। इसलिए हिन्दू लड़कियों को आज़ाद नहीं छोड़ना चाहिए।
मनुस्मृति के विधान के आधार पर स्त्रियों को पिता, भाई, पति या पुत्र की छत्रछाया में ही जीवन-यापन करना चाहिए! पुरुष आख़िर स्त्री के भले के लिए ही तो ऐसा करता है! बहरहाल, हिन्दुत्ववादी इस प्रोपेगेंडा के मार्फत स्त्री को दहलीज के भीतर धकेलने की कोशिश तो कर ही रहे हैं लेकिन 'सरकारी' हिन्दुत्व लव जिहाद की आड़ में और भी बहुत कुछ करना चाहता है।
उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 को नवंबर के आख़िरी सप्ताह में राज्यपाल ने मंजूरी दे दी है। लेकिन धर्मांतरण विरोधी इस क़ानून में लव जिहाद शब्द का प्रयोग भी नहीं हुआ है। इस क़ानून में व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों तरह के धर्मांतरण को रोकने का प्रावधान किया गया है। वास्तव में, अगर हिंदू लड़कियों के धर्मांतरण और उनके जीवन के लिए यह सरकार इतनी फिक्रमंद है तो सामूहिक धर्मांतरण रोकने के लिए क़ानून में प्रावधान क्यों किया गया है? कहीं लव जिहाद के नाम पर असली निशाना सामूहिक धर्मांतरण रोकना तो नहीं है?
संघ-बीजेपी और यूपी की योगी सरकार की मंशा को अगर सही मान लिया जाए और मुसलमानों से कथित हिंदुओं की रक्षा की बात को स्वीकार भी कर लिया जाए तो पूछा जाना चाहिए है कि सामूहिक धर्मांतरण कौन कर रहा है।
आख़िर, हिन्दुत्ववादी सरकार को किसके धर्मांतरण का डर सता रहा है? यह भी पूछा जाना चाहिए कि कितने हिंदुओं ने सामूहिक रूप से इसलाम स्वीकार किया है? क्या इसके आँकड़े यूपी सरकार के पास हैं?
एक बात ज़रूर है कि पिछले एक दशक में देश के अलग-अलग हिस्सों से सामूहिक धर्मांतरण के कई मामले सामने आए हैं। लव जिहाद के नाम पर नहीं बल्कि सत्ता संरक्षित हिन्दुत्ववादी तत्वों द्वारा प्रताड़ित दलितों के धर्मांतरण की घटनाएँ सामने आई हैं। कुछ समय पहले ही हाथरस में वाल्मीकि समाज की लड़की के बलात्कार और हत्या के विरोध में गाज़ियाबाद के वाल्मीकि समाज के कुछ लोगों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया है। गुजरात, महाराष्ट्र आदि कई राज्यों में दलितों द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकारने की घटनाएँ पहले भी देखी गई हैं। कुछ स्थानों पर दलितों ने इसलाम धर्म को भी अपनाया है। अक्सर दबंगों द्वारा सताए जाने पर दलित दुखी होकर हिंदू धर्म छोड़ने की बात कहते हैं।
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वोटबैंक की रणनीति
दरअसल, यूपी सरकार द्वारा लाया गया धर्मांतरण विरोधी क़ानून, दलितों को दलित बनाए रखने की साज़िश है। हालाँकि अध्यादेश में नाबालिग और दलित लड़कियों और महिलाओं के धर्मांतरण कराने की सज़ा सामान्य वर्ग के व्यक्ति के धर्मांतरण से दो गुनी यानी अधिकतम दस साल की जेल और पच्चीस हज़ार आर्थिक दंड लगाने का प्रावधान किया गया है। आख़िर ऐसा क्यों किया गया? इसके मार्फत योगी सरकार दलितों के बीच एक संदेश भेजना चाहती है कि बीजेपी सरकार उनके लिए ज़्यादा फ़िक्रमंद है और दलित लड़कियों को मुसलमानों से ख़तरा है। एक स्तर पर यह दलितों को हिन्दू और अपना वोटबैंक बनाए रखने की रणनीति है। पिछले कुछ समय से दलित और मुसलिम एकजुटता भी दिखाई दे रही है। यह क़ानून दलितों और मुसलमानों के बीच एकजुटता को ख़त्म करने और सांप्रदायिकता की खाई को चौड़ा करने का षडयंत्र है।
वास्तव में, दलितों को असली ख़तरा बढ़ते हिंदुत्व से है। बाबा साहब आंबेडकर ने 1946 में दलितों को हिंदू महासभा और आरएसएस से सतर्क रहने की हिदायत दी थी। हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था में पिसते शूद्रों-अछूतों के यातना भरे अतीत को बाबा साहब बखूबी जानते थे।
उन्होंने ख़ुद भी ब्राह्मणवाद की अन्याय और ऊँच-नीच की व्यवस्था को भोगा था। इसीलिए उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दौर में दलितों को बौद्ध धर्म अपनाने का विकल्प दिया। 14 अक्टूबर 1956 को धम्मदीक्षा के समय तीन लाख अस्सी हज़ार दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया था। डॉ. आंबेडकर के निर्वाण (6 दिसंबर, 1956) के समय भी एक लाख बीस हज़ार दलितों ने हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया था।
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आंबेडकर बौद्ध क्यों बन गए?
ग़ौरतलब है कि हिन्दू धर्म छोड़ने और बौद्ध धर्म अपनाने का बाबा साहब का फ़ैसला अचानक नहीं था। 1935 में हिंदू धर्म छोड़ने का संकल्प करने से पहले डॉक्टर आंबेडकर ने क़रीब दो दशक तक हिंदू धर्म में सुधार के लिए ढेरों प्रयत्न किए। 20 मार्च 1927 में महाड़ सत्याग्रह करके उन्होंने अछूतों को सार्वजनिक तालाब से पानी लेने के लिए संघर्ष किया। 25 दिसंबर 1927 को उन्होंने असमानता और अन्याय की पोथी मनुस्मृति को जलाया। 2 मार्च 1930 को नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए आंदोलन किया। 1935 तक वह मंदिर प्रवेश के आंदोलन करते रहे। लेकिन ब्राह्मणों और ऊँची जाति के हिन्दुओं की सोच में कोई अंतर नहीं आया। इसलिए उन्होंने पाया कि हिंदू धर्म छोड़े बिना असमानता और अन्याय की चक्की में पिसने वाले दलितों के जीवन में उजाला लाना संभव नहीं है।
28 अप्रैल 1942 को 'दि बाम्बे सेंटिनल' में भाषण देते हुए बाबा साहब ने कहा,
‘लंबे समय तक मैं यही मानता रहा कि हम हिंदू समाज को उसकी विकृतियों से मुक्त करा सकते हैं और डिप्रेस्ड क्लासेज को बराबरी की शर्तों पर उसमें समाहित कर सकते हैं। महाड़ चवदार तालाब सत्याग्रह और नासिक मंदिर प्रवेश सत्याग्रह, ये दोनों आंदोलन इसी उद्देश्य से प्रेरित थे। इसी को मद्देनज़र रखते हुए हमने मनुस्मृति दहन किया और सामूहिक जनेऊधारण अनुष्ठानों का आयोजन किया था। खैर, अनुभव की बदौलत अब मेरे पास कहीं बेहतर समझ है। आज मुझे इस बात का मुकम्मल तौर पर यक़ीन हो चुका है कि हिंदुओं के बीच रहते हुए डिप्रेस्ड क्लासेज को बराबरी का दर्जा मिल ही नहीं सकता क्योंकि हिंदू धर्म खड़ा ही असमानता की बुनियाद पर है। अब हमें हिंदू समाज का हिस्सा बने रहने की कोई चाह नहीं है।’
अब आज के हालातों पर ग़ौर कीजिए। जिन राज्यों में संघ-बीजेपी की सत्ता स्थापित हुई, वहाँ कभी गाय के नाम पर, कभी मूँछ रखने के कारण, कभी घोड़े पर सवारी करने पर दलितों के साथ सामूहिक रूप से मारपीट की गई। उन्हें पेशाब तक पिलाई गई। उनकी बहन-बेटियों को अपमानित किया गया। इस तरह की हज़ारों घटनाएँ पिछले दो दशकों में दर्ज हुई हैं। गुजरात के ऊना में मरी गाय की खाल निकालने पर दलितों को बांधकर बड़ी बेरहमी से पीटा गया। इसके बाद वहाँ दलितों ने आंदोलन किया। उस आंदोलन का बहुचर्चित नारा था- 'गाय की पूँछ तुम रखो, हमें हमारा अधिकार चाहिए'। इसके बाद गुजरात में कुछ दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया।
गणतंत्र बनने के बाद, धीरे ही सही लेकिन देश में न्याय के साथ सामाजिक परिवर्तन का दौर चला। दलितों में स्वाभिमान और चेतना जागृत हुई। उनका सशक्तिकरण हुआ।
दूसरी तरफ़ अगड़ी जाति से निकलने वाली पढ़ी-लिखी नौजवान पीढ़ी ने दलितों के शोषण और अन्याय के इतिहास को जाना-समझा। अस्पृश्यता और मैला उठाने जैसी घृणित प्रथा को यह नई पीढ़ी अन्यायपरक मानती है और इससे मुक्ति की बात भी करती है। लेकिन दो दशकों की कट्टर हिन्दुत्ववादी राजनीति द्वारा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बाधित करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। हिंदुत्ववादी संगठनों, सवर्ण गुटों और आईटी सेल की मेहरबानी से पौराणिक आख्यानों को सत्य बताने और उसमें अभिव्यक्त अन्याय-अत्याचार को उचित ठहराने की कोशिश की जा रही है।
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अतीत का गौरवबोध और वर्चस्व भावना पैदा करके सवर्ण नौजवानों को आक्रामक बनाकर बीजेपी अपना आधार पुख्ता बनाए रखना चाहती है। इसके लिए आईटी सेल किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार दिखती है। कोरोना संकट में 'सोशल डिस्टेंसिंग' की ज़रूरत के मार्फत छुआछूत की प्रथा को जस्टिफाई करने की कोशिश की गई। यह भी प्रचारित किया गया कि अगर दलितों को आरक्षण दिया जाएगा तो हम भी उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करेंगे। दलितों के प्रति नफ़रत और हिकारत से भरे ऐसे सैकड़ों मैसेज व्हाट्सएप पर प्रोफेसर जैसे उच्च शिक्षित लोगों द्वारा भेजते हुए देखे गए।
अभी कुछ दिन पहले ही 'कौन बनेगा करोड़पति' के एंकर अमिताभ बच्चन और निर्माता के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र के बीजेपी विधायक अभिमन्यु पवार द्वारा इसलिए एफ़आईआर दर्ज कराई गई क्योंकि कार्यक्रम में बाबा साहब द्वारा मनुस्मृति के दहन के संबंध में सवाल पूछा गया था।
आज जिस प्रकार हिंदू धर्म के अतीत की व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने की कोशिश हो रही है, उसके प्रतिरोध में बाबा साहब का रास्ता अपनाने की ज़रूरत अब दलित ही नहीं बल्कि चेतना संपन्न पिछड़ी जाति के लोग भी महसूस कर रहे हैं। पिछड़ी जाति में भी बाबा साहब आंबेडकर और बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षण बढ़ा है। यूपी सरकार और अन्य बीजेपी शासित राज्यों में धर्मांतरण संबंधी क़ानून, ख़ासकर दलितों के धर्मांतरण को रोकने के लिए लाया गया है। हालाँकि इस क़ानून के शिकार मुसलिम नौजवान और हिंदू लड़कियाँ भी होंगी। लेकिन इसका मुख्य लक्ष्य दलितों को दलित बनाए रखना है।
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