राहुल गाँधी को लेकर आजकल कुछ लोग नाराज़ है। ये वो लोग है जो मोदी और आरएसएस को देश के लिए एक बडा ख़तरा मानते हैं। इन लोगों को लगता है कि राहुल गांधी भी हिंदुत्व के रास्ते पर चल रहे हैं, वे जिस तरह से मंदिर-मंदिर टहल रहे हैं, जनेऊधारी होने की बात कर रहे हैं, अपना गोत्र बता कर खुद को ब्राह्मण साबित करने में लगे हैं और मध्य प्रदेश, राजस्थान के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के घोषणापत्र में हिन्दूवादी मुद्दों को तरजीह दे रहे है वह ‘नरम हिंदूवाद’ है यानी सॉफ़्ट हिंदुत्व’ है। सत्यहिंदी.कॉम के संस्थापक क़मर वहीद नक़वी तो इतने गरम हो गए कि उन्होंने यह भी कह दिया कि राहुल आरएसएस के अजेंडे को फ़ॉलो कर रहे हैं। नक़वी साहब देश के अत्यंत सम्मानित संपादकों में से हैं। उनका लिखना मायने रखता है। 

उन्हीं की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रफ़ेसर और प्रमुख चिंतक अपूर्वानंद लिखते है कि कांग्रेस का क़दम मूर्खतापूर्ण है। बहुत दुखी हो कर अपूर्वानंद दवायरहिंदी.कॉम में लिखते है, ‘नेहरू काफ़ी पीछे छूट गए मालूम पड़ते हैं। यह सरकार और पार्टी तो उन्हें राष्ट्र की सामूहिक स्मृति से तो निकाल ही देना चाहती है। लेकिन क्या कांग्रेस भी उनकी नहीं सुनेगी?’ सुहास पलसीकर इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि राहुल, हो सकता है, एक नई कांग्रेस को जन्म दे रहे हों लेकिन कहीं ऐसा न हो कि यह विचलन कांग्रेस नामक विचार को ही पूरी तरह से ख़त्म कर दे और सही मायनों मे भारत कांग्रेसमुक्त  हो जाए। पलसीकर राजनीति शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं। 

लेफ़्ट-लिबरल में खलबली

इसमें दो राय नहीं कि राहुल के नरम हिंदूवाद से लेफ़्ट-लिबरल विचारकों और पत्रकारों में काफी खलबली है। ये वे लोग हैं जो नेहरू को अपना आदर्श मानते हैं और उनके सेक्युलरिज़म को देश के लिए एक अत्यंत ज़रूरी चीज़। इनको लगता है कि सेक्युलरिज़म की शास्त्रीय परिभाषा सही है जो मानती है कि धर्म को राजनीति में नहीं दखल देना चाहिये। द प्रिंट के संपादक और दिग्गज पत्रकार शेखर गुप्ता लिखते हैं कि लेफ़्ट-लिबरल राहुल के क़दम से सकते में हैं और इसे कांग्रेस नामक विचार के साथ विश्वासघात मानते हैं। वे आगे लिखते हैं, ‘ये लोग यह मानते है कि भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को पूरी तरह से विदाई दी जा रही है।’ ऐसे में सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी कोई इतनी बडी ग़लती कर रहे हैं कि कांग्रेस ही देश से ख़त्म हो जाएगी या फिर इस देश में अब कभी सेक्युलरिज़म की चर्चा नहीं होगी या सेक्युलरिज़म के रास्ते पर कोई पार्टी राजनीति नहीं करेगी?