लॉकडाउन से पहले लोग अपने-अपने कामों में कुछ इस तरह व्यस्त थे मानो ट्रेन गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए अपनी पटरी पर हो। मानव की गतिविधियाँ इतनी तेज़ हो चुकी थीं कि उसके मुनाफ़े में उन गतिविधियों के सापेक्ष ही प्रभाव (relativistic effects) दिखने लगा था। कुछ करने की ज़िद ‘क्यों’ जैसे सवालों को दरकिनार कर चुका था, नए रिश्ते की तलब में पुराने और गहरे रिश्ते कुछ इस तरह छुप गये थे जैसे ठंड के दिनों में कुहासों से अपना घर। मानव की स्वार्थपूर्ण हरकतों से प्रकृति का समस्त जीव सहमा-सहमा सा रहने लगा था। उसे उसके हक़ की ज़मीन, घर खाना, पानी तक नहीं मिलने लगा। विज्ञान की प्रगति से हम अंधे हो चुके थे। ...अन्य जीवों की जीवन शैली में हस्तक्षेप प्रकृति के बर्दाश्त करने की हद को पार कर चुका और इसने हमारे घमंड को बहती धारा से बहिष्कृत कर छोटे से साहिल पर ठहरा दिया और सोचने पर मजबूर किया। जिस कोरोना वायरस का वजूद इतना सूक्ष्म है उसके सामने समस्त मानव जाति घुटने टेक कर जीने की भीख माँग रही है।
क्या इंसान के घमंड को तोड़ने आया है कोरोना?
- पाठकों के विचार
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- 8 May, 2020

जिस कोरोना वायरस का वजूद इतना सूक्ष्म है उसके सामने समस्त मानव जाति घुटने टेक कर जीने की भीख माँग रही है। क्या इंसान के घमंड को तोड़ने आया है कोरोना?