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प्रतीकात्मक तस्वीर।

29 माओवादियों की मौत के लिए ज़िम्मेदार कौन- राज्य या खुद माओवादी?

माओवादियों ने आरोप लगाया है कि भारतीय सुरक्षा बल के जवानों ने उनके 17 लोगों को पकड़कर मार डाला। ये उन 29 माओवादी लड़ाकों में शामिल हैं जिनके बारे में भारतीय सुरक्षा बल का दावा है कि वे सब उनसे मुठभेड़ में मारे गए हैं। यह हमला 16 अप्रैल को कांकेर इलाक़े में हुआ। अगर माओवादी कह रहे हैं कि उनमें से 17 मुठभेड़ में नहीं बल्कि ज़ख़्मी हालत में मार डाले गए जब वे लड़ने की स्थिति में नहीं थे तो भी वे यह तो स्वीकार कर ही रहे हैं कि यह मुठभेड़ हुई थी। उधर भारतीय सुरक्षा बल का कहना है कि माओवादी झूठ बोल रहे हैं। 29 के 29 माओवादी मुठभेड़ में ही मारे गए हैं। माओवादी अब लोगों की सहानुभूति लेने के लिए यह झूठ गढ़ रहे हैं।

सच क्या है, जानना असंभव नहीं तो लगभग असंभव तो है ही। माओवादियों के ख़िलाफ़ यह कामयाब हमला छत्तीसगढ़ के कांकेर इलाक़े में हुआ। आस पास के गाँवों में रहनेवाले मुँह खोलने को तैयार नहीं हैं। सुरक्षा बल की बात पर यक़ीन करना अगर भोलापन है तो उतनी ही मूर्खता है माओवादियों के बयान को सच मान लेना।

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जो हो, यह तो सच है कि दोनों के बीच मुठभेड़ हुई और इस बार सिर्फ़ माओवादी मारे गए। यह उनके लिए बहुत बड़ी हार है क्योंकि इलाक़ा उनका कहा जाता है। फिर भी उन्हें भनक भी न लगी और उनकी टुकड़ी पर इतना बड़ा हमला हो गया, यही अपने आप में उनकी बहुत बड़ी पराजय है।

29 लोगों का मारा जाना दुखद है, वे माओवादी ही क्यों न हों। उनमें से 2 को छोड़ सभी छत्तीसगढ़ के आदिवासी थे। 15 औरतें थीं। यह इसलिए और भी दुखद है कि ये मौतें नितांत अनावश्यक हैं। या निरुद्देश्य हैं। इतने लोगों के जीवन को इस प्रकार व्यर्थ कर देना आपराधिक है। 

लेकिन जीत हो या हार, एक तरह से माओवादियों के लिए यह भी उपयोगी ही है क्योंकि इससे उनका यह दावा बना रहता है कि वे भारतीय राज्य से युद्ध कर रहे हैं। भारतीय राज्य को ध्वस्त करने के उद्देश्य से यह युद्ध लड़ा जा रहा है। यह अलग बात है इससे हर प्रकार के हथियारों और मारक क्षमता से संपन्न भारतीय राज्य से युद्ध का दावा हास्यास्पद और दयनीय है। लेकिन बरसों से वे अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इस भ्रम में रखे हुए हैं कि यह बराबरी की जंग है।
माओवादी इस पराजय को क्षणिक बतलाएँगे। अपने समर्थकों को विश्वास दिलाएँगे कि वे इसका बदला ज़रूर लेंगे। क़तई मुमकिन है कि वे भी किसी औचक हमले में फिर कुछ पुलिसवालों को या भारतीय सैन्य बल के लोगों की हत्या कर दें। इससे अभी जो हताशा उनके भीतर आ गई होगी उसकी जगह उनमें इस युद्ध को जारी रखने का उत्साह आ जाएगा।

किसी मोबाइल टावर या राजकीय इमारत को उड़ाकर भी वे इस भ्रम को बनाए रख सकते हैं। यह सब कुछ युद्ध का हिस्सा है। लेकिन उन्हें भी मालूम है कि यह युद्ध अंतहीन है और इसमें धीरे धीरे उनकी पराजय निश्चित है। वे अपने मुक्त क्षेत्र का दायरा बढ़ाना चाहते हैं जहाँ उनका राज्य हो। लेकिन वह इलाक़ा लगातार सिकुड़ता जा रहा है। लगातार हमलों में माओवादी लड़ाकों के मारे जाने से उनकी ताक़त घट रही है। सिर्फ़ इसी साल 100 से ज़्यादा माओवादी मारे गए हैं। नई भर्ती कम से कम होती जा रही है और उनका रास्ता आदिवासियों के लिए भी उतना आकर्षक नहीं रह गया है। ऐसा क्यों है कि इन हथियारबंद दस्तों में मात्र आदिवासी ही हैं?  

माओवादी अपने मुक्त क्षेत्रों में भारतीय राज्य के मुक़ाबले किसी भी तरह बेहतर नहीं हैं। जैसे भारतीय राज्य के रक्षक साधारण आदिवासियों को प्रताड़ित करते हैं, वैसे ही माओवादी भी। उनके लिए भी आदिवासी या अन्य लोग प्रजा ही हैं। हम ऐसे मामलों को जानते हैं जिनमें उन्होंने हुक्मउदूली के लिए सामान्य लोगों की हत्या कर दी है या उन्हें दूसरे प्रकार के दंड दिए हैं। माओवादी इस मामले में और भी बुरे हैं कि वे मानवाधिकार के सिद्धांत को औपचारिक तौर पर भी नहीं मानते। हम भारतीय राज्य पर मानवाधिकार के उल्लंघन का आरोप लगा सकते हैं लेकिन माओवादियों पर नहीं क्योंकि वे इसे मानते ही नहीं। जब पूरा इतिहास ही वर्ग संघर्ष का है तो शत्रु वर्ग से जुड़े किसी का कोई मानवाधिकार हो ही कैसे सकता है?

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माओवादी अपने लिए मानवाधिकार की माँग करते हैं। मानवाधिकार संगठन और कार्यकर्ता ठीक ही उनके मानवाधिकार की हिफ़ाज़त की बात करते हैं। लेकिन क्या माओवादियों से भी मानवाधिकार के आदर की अपेक्षा की जा सकती है? क्या माओवादियों के लिए मानव के जीवन की कोई क़ीमत है?

माओवादी मुक्त क्षेत्र में न्याय देने का तरीक़ा भी सामंती है। इल्ज़ाम लगानेवाला और सजा देनेवाला एक ही है। जो कठघरे में है उसे अपनी वकालत का कोई अधिकार नहीं। सजा कौन सी और कितनी हो, यह भी माओवादी अदालत में बैठे दादा की मर्ज़ी है।

सैद्धांतिक बहस और आगे जा सकती है। आख़िर उस आदमी के नाम पर मुक्ति का संघर्ष कैसे चलाया जा सकता है जो चीन में लाखों लोगों की हत्या और दमन के लिए ज़िम्मेवार रहा है? लेकिन अब माओवादियों के बीच सैद्धांतिक बहस करनेवाले भी नहीं रह गए हैं। व्यावहारिक तौर पर भी माओवादी रास्ता कारगर नहीं है। कोई 60 साल के इतिहास में सिवाय अपने लोगों के खोने के माओवादियों का और क्या हासिल रहा है? उनके इलाक़े भी सिकुड़ते चले गए हैं और भारतीय राज्य उन्हें हर तरफ़ से दबाने में और घेरने में सफल रहा है।

यह भी पूछा जा सकता है कि क्या माओवादी क्रांति की ज़रूरत सिर्फ़ आदिवासी क्षेत्रों को है? या आदिवासी इलाक़े सिर्फ़ उनके छिपने की जगह हैं और आदिवासी भी हथियारों की तरह ही उपयोगी हैं? यह बात बार बार कही गई है कि क्यों माओवादी नेतृत्व में आदिवासी नहीं के बराबर हैं। 

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जीने के पूँजीवादी रास्ते का विकल्प सिर्फ़ आदिवासियों को नहीं, हर किसी को चाहिए। उसी तरह राज्य और समाज के संगठन और संचालन के लिए सच्चे जनतांत्रिक रास्ते की तलाश सबको है, सिर्फ़ आदिवासियों को नहीं। माओवादियों के पास इसके लिए क्या कार्यक्रम है? क्या माओवादी रास्ता जनतांत्रिक है? 

माओवादियों के पास कोई बड़ा संगठन नहीं है। वे दूसरे दलों की तरह खुले ढंग से काम नहीं करते। उनकी गोपनीयता ही उन्हें संदिग्ध बना देती है। उनके फ़ैसले जिस जनता के नाम पर जिसके हित के नाम पर किए जाते हैं, उस जनता को उनसे कोई सवाल करने का कोई अधिकार नहीं।

कम्युनिस्ट आंदोलन में सशस्त्र क्रांति का प्रलोभन पुराना है। लेकिन एक एक करके तक़रीबन सारे कम्युनिस्ट दलों ने यह रास्ता छोड़ दिया है। मात्र माओवादी बचे रह गए हैं जो इस रास्ते पर अपना ख़ात्मा करने की तरफ़ बढ़ रहे हैं।

16 अप्रैल को 29 माओवादियों की मौत या हत्या एक मौक़ा है कि ये सवाल फिर से उठाए जाएँ। इस तरह ही ग़ैरज़रूरी मौत जारी नहीं रहनी चाहिए। इसकी ज़िम्मेदारी जितनी राज्य की है उतनी ही माओवादियों की भी। 

क्या माओवादी यह आत्मसमीक्षा करेंगे या इस खोज में लग जाएँगे कि गाँववालों में किसने मुखबिरी की और फिर वे उनकी हत्या करेंगे? इस तरह क्या व्यर्थ बलिदान का यह सिलसिला जारी रहेगा?

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अपूर्वानंद
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