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नसीरुद्दीन शाह की सलाह में दिमाग़ी आलस है

नसीरुद्दीन शाह के संक्षिप्त वक्तव्य में भारतीय इस्लाम, मध्यकालीन बर्बरता, धार्मिक सुधार, आदि को लेकर जो नसीहत दी गई है, वह एक साथ कई बातों को कह देने की जल्दबाज़ी का नतीजा है और सुचिंतित नहीं है। वह इस्लाम और मुसलमानों को लेकर समाज में व्याप्त पूर्वग्रह को और गाढ़ा ही करती है।
अपूर्वानंद

नसीरुद्दीन शाह के कुछ सेकेंड के एक बयान पर हजारों शब्द और कई घंटे सर्फ़ किए जा चुके हैं। इससे उनके सामाजिक महत्त्व का पता चलता है। नसीर साहब जैसे लोगों की बात को समाज सुनने लगे तो उसका भला ही होगा। दुर्भाग्य कि आज के भारत का समाज ऐसा नहीं रह गया है। हम किसी को तभी सुनते हैं जब वह हमारे आग्रह, पूर्वग्रह को पुष्ट कर रहा हो। इसलिए नहीं कि उसका जीवन सोचने के काम में गया है, इसलिए उसे सुनना ज़रूरी है, भले ही उससे हमें तकलीफ हो, भले ही वह हमारी पसंद के ख़िलाफ़ हो। कितना ही बड़ा बौद्धिक क्यों न हो, अगर वह हमारे आग्रह से अलग कुछ कहता है तो हम अपने आग्रह पर सोचने के बजाए उसपर टूट पड़ते हैं। नसीर साहब भी इसके शिकार हुए हैं और हो रहे हैं। अभी कुछ वक़्त पहले उन्होंने भारत में मुसलमानों की असुरक्षा को लेकर अपनी चिंता और तकलीफ जाहिर की थी तब उनपर चौतरफ़ा हमला हुआ था। सिनेमा जगत् से भी बहुत कम आवाज़ें उनके समर्थन में खड़ी हुई थीं। राजनेताओं और उद्योग जगत् के लोगों ने यह ज़रूरी भी नहीं समझा कि नसीर साहब के ख़िलाफ़ जो घृणा अभियान चलाया जा रहा है, उसकी वे आलोचना करें। उन्हें इसका सामना करने के लिए अकेला छोड़ दिया गया।

वक़्त-बेवक़्त से ख़ास

उस वक़्त नसीर साहब पर मुसलमान की तरह बोलने का आरोप लगाया गया, जिसका मतलब भारत में लिया जाता है: संकीर्णतावादी। वह एक भारतीय की तरह बोल रहे हो सकते हैं, या एक इंसान की तरह या एक अभिनेता की तरह, यह किसी ने नहीं सोचा। नसीरुद्दीन शाह के नाम पर ध्यान गया और जैसा रोहित वेमुला ने अफ़सोस जाहिर किया था, उन्हें उनकी सबसे 'आसान' पहचान में शेष कर दिया गया। आसान इसलिए कि नाम सुनते ही बिना कुछ सोचे, दिमाग लगाए आप उस नामवाले की पहचान तय कर डालते हैं। उसकी पूरी ज़िंदगी को खारिज करते हुए जिसमें उसने खुद को गढ़ा है। उन कई पहचानों को नज़रअंदाज करते हुए जो उन्होंने खुद बनाई हैं। या यह भी क्यों कहें? क्या किसी मुसलमान को, भारत में अभी जो मुसलमान विरोधी वातावरण है, उसपर अफ़सोस और नाराज़गी जाहिर करने का अधिकार भी नहीं है? किसी भी मुसलमान के ऐसा करते ही क्यों उसपर हमला शुरू हो जाता है? आमिर खान हों या शाहरुख़ खान हों या सैफ अली खान। आरफ़ा ख़ानम शेरवानी हों या राणा अय्यूब, जिस तरह की गलाज़त और नफ़रत रोज़ाना इन्हें झेलनी पड़ती है, उसके बाद शायद ही कोई सामान्य मनःस्थति में रह पाए। 

हर बार जब कोई मुसलमान भारत में मुसलमानों की असुरक्षा का सवाल उठाए और 'हिंदुत्ववादी' संगठनों की आलोचना करे, उसे सलाह दी जाती है कि वह अपने गिरेबान में झाँककर देखे। मुसलमान औरतों की बदहाली को देखे, अपने समुदाय के पिछड़ेपन को देखे। यह सोचे कि क्यों उसी धर्म के माननेवाले आतंकवादी होते हैं। क्यों उसकी धार्मिक किताब क़ुरआन है और क्यों उसमें कोई तबदीली नहीं की जा सकती? जो मुसलमान इनपर बात करता है, वह उन तमाम लोगों को अच्छा लगता है जो मुसलमानों पर हमले या उनके ख़िलाफ़ नफ़रत के प्रचार को गंभीरता से नहीं लेते।

मुसलमान की ऐसी छवि, जिसमें वह कट्टर और असहिष्णु दिखलाई पड़े, काफी लोकप्रिय है। इसका ख़ूब प्रचार किया जाता है।

ख़ास तरह के मुसलमान मौलानाओं को सार्वजनिक चर्चा में बुलाया जाता है और फिर उनके विचारों का हवाला देकर साबित किया जाता है कि मुसलमान रूढ़िवादी और पिछड़े दिमाग के होते हैं। मानो कि हिंदू पुरोहित या ईसाई या किसी भी धर्म के पुरोहित प्रगतिशील और वैज्ञानिक और आधुनिक हुआ करते हैं! अगर आप क़ुरआन का एक लफ्ज नहीं बदल सकते तो क्या आप गीता का सम्पादन कर सकते हैं?

उसी तरह भारत के मुसलमानों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि भारतीय इस्लाम ख़ास है, उसमें सहिष्णुता है, गीत-संगीत-नृत्य-कला की जगह है। ताजिए हैं, मजार और दरगाहें हैं। यह सब इसलिए है कि इस्लाम को भारत की विविधता और सहिष्णुता का संपर्क मिला है। उसे अपने इस ख़ास रूप को बचाकर रखना चाहिए। उसे भारत के बाहर के इस्लाम से खुद को दूषित नहीं करना चाहिए। कुछ लोग यह बात ईमानदारी से मानते हैं और कुछ जब यह कहते हैं तो उनका बुनियादी इस्लाम-विरोध इस सुंदर आवरण में व्यक्त होता है। समझ यह है कि इस्लाम है तो बुनियादी तौर पर कट्टर, बंद धर्म, असहिष्णु, लेकिन भारत जैसे देश में आकर, हिंदू धर्म की छाया में वह बदल गया है और मानवीय हो गया है। इसे ठीक से नहीं समझा जाता।

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भारतीय इस्लाम कबूल है लेकिन बाहर का इस्लाम? और क्या भारत के बाहर इस्लाम की एक ही क़िस्म है? क्या ईरान का इस्लाम और जावा का इस्लाम एक ही है? क्या मलेशिया और इंडोनेशिया का इस्लाम और पश्चिमी अफ्रीका और बांग्लादेश और पाकिस्तान या अफ़ग़ानिस्तान का इस्लाम एक है? आख़िर ये सारे देश भारत के बाहर ही पड़ते हैं? अगर आज तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में किसी पर हमला कर रहे हैं या किसी को काबू करना चाहते हैं तो वे अफ़ग़ानी मुसलमान ही हैं। जिस गायक को, संगीतज्ञ को या कलाकार या पत्रकार को उन्होंने मार डाला है, वे सब मुसलमान थे। 

ईरान, ईराक, मिस्र में क्या उपन्यास नहीं लिखे जा रहे या फ़िल्में नहीं बन रही हैं? क्या इन क्षेत्रों में काम करनेवाले इस्लाम में यक़ीन नहीं रखते या वे भारतीय क़िस्म के इस्लाम से प्रभावित हैं? हमें इस प्रश्न पर सतही तरीक़े से बात नहीं करनी चाहिए।

दुनिया में इस्लाम के अभ्यास की विविधता का सामान्य परिचय प्यू सेंटर की 2012 की रिपोर्ट से मिल सकता है। यह 39 देशों के 80 भाषाओं में जीनेवाले 38,000 हजार मुसलमानों से आमने सामने बातचीत करके तैयार की गई रिपोर्ट है। इसके मुताबिक़ एक अल्लाह और मोहम्मद को अल्लाह का पैगंबर मानने को अगर छोड़ दें तो इन विभिन्न भाषाभाषी मुसलमान आबादियों में विविध प्रकार के विश्वास और फिरके पाए जाते हैं। क्या अल्लाह को भी एक ही नाम से पुकारा जाता है?

उनकी धर्म की अपनी अलग-अलग व्याख्याएँ भी हैं। ऐसा नहीं कि एक भारतीय इस्लाम है और एक अंतरराष्ट्रीय इस्लाम है। क्यों भारतीय इस्लाम को लेबनान के इस्लाम से दूर रहना चाहिए या उसमें दक्षिण पूर्व एशिया के इस्लाम के प्रति उत्सुकता नहीं होनी चाहिए?

naseeruddin shah advice to indian muslims on taliban controversy  - Satya Hindi

और क्यों सिर्फ मुसलमानों में यह उत्सुकता हो? क्या हिंदुओं और सिखों के लिए इनसे सीखने को कुछ नहीं है? जब हम भारतीय विशिष्टता को सबके ऊपर रखने लगते हैं और भारतीय मुसलमानों को इसे बनाए रखने की सलाह देने लगते हैं तो एक प्रकार का अहंकार ही जाहिर करते हैं। भारतीय भाषा, संस्कृति श्रेष्ठ, भारतीय संगीत श्रेष्ठ, भारतीय नृत्य श्रेष्ठ, भारतीय धर्म, हिंदू सबसे श्रेष्ठ, इसी पंक्ति में आगे कहा जाता है भारतीय इस्लाम श्रेष्ठ। जोर भारतीय पर है। अगर यह विशेषण न जुड़ा हो तो वह इस्लाम अपने आपमें कुछ नहीं रह जाता। 

यह सब कुछ किसी एक टिप्पणी में न तो समझा जा सकता है और न ही इसके सारे पहलू खोले जा सकते हैं। सहानुभूति और उदारता के बिना यह विचार विमर्श नहीं किया जा सकता। नसीर साहब के वक्तव्य पर जो बहस हो रही है, उसमें इन पहलुओं पर ठहर कर विचार करने का धीरज नहीं है।

नसीर साहब के वक्तव्य का संदर्भ अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के काबिज होने के बाद भारत के मुसलमानों के एक तबक़े में उसे लेकर स्वागत और जश्न के इज़हार का था। वे ठीक ही ऐसे लोगों पर ख़फ़ा हैं।

तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद का प्रतिरोध करनेवाली ‘प्रगतिशील’ ताक़त माननेवाले या तो भुलावे में हैं या वे खुद तालिबान की राजनीतिक समझ के कायल हैं। तालिबान एक धुर दक्षिणपंथी, जनतंत्रविरोधी राजनीतिक संगठन है जो मानवाधिकार की अवधारणा को नहीं मानता। वह धर्म के नाम पर इस राजनीति के लिए समर्थन हासिल करने की चतुराई कर रहा है और ऐसा करके वह अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा करना चाहता है। वह हर किसी की जीवन शैली को नियंत्रित करना चाहता है और व्यक्तिगत स्वाधीनता से नफ़रत करता है। उसकी शासन पद्धति में हिंसा और दहशत शामिल है। उसने यह कहा है कि जहाँ कहीं भी हो, मुसलमान का सवाल उसका सवाल है। इस तरह वह राष्ट्र की भी एक संकीर्ण समझ पेश कर रहा है। लेकिन ऐसा करनेवाला वह अकेला संगठन नहीं है। इस्राइल दुनिया भर के यहूदियों का देश बनना चाहता है और आज की भारत की शासक पार्टी भी आख़िरकार भारत को दुनिया भर के हिन्दुओं और हिन्दुओं के समान सिखों का पहला देश बनाना चाहती है। विचारधारा एक है। यह अत्यंत आधुनिक विचारधारा है और इसका मध्यकाल से कोई लेना देना नहीं है। जब तालिबान या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जियानवाद को मध्यकालीन कहकर उससे दूर रहने का मशविरा दिया जाता है तो यह दिमागी आलस का प्रमाण है। यह खालिस आधुनिक राजनीतिक वर्चस्व की परियोजना है और यही यूरोप में हिटलर की शक्ल में पैदा हुई थी।

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नसीरुद्दीन शाह के संक्षिप्त वक्तव्य में भारतीय इस्लाम, मध्यकालीन बर्बरता, धार्मिक सुधार, आदि को लेकर जो नसीहत दी गई है, वह एक साथ कई बातों को कह देने की जल्दबाज़ी का नतीजा है और सुचिंतित नहीं है। वह इस्लाम और मुसलमानों को लेकर समाज में व्याप्त पूर्वग्रह को और गाढ़ा ही करती है।

क्या ऐसा कहना नसीर साहब के साथ ज्यादती है? क्या उनके वक्तव्य की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं? नसीर साहब अभिनेता हैं। लेकिन सामान्य अभिनेता नहीं। मेरे एक मित्र ने ठीक ही कहा था कि नसीर साहब जैसे ही मंच पर आते हैं, मंच उनकी ओर झुक जाता है। इस तरह का अभिनय मात्र कौशल नहीं है। उसके लिए बौद्धिकता का दीर्घ अभ्यास चाहिए। और हम सब मानेंगे कि हर अभिनेता या फ़िल्मकार बौद्धिक नहीं होता। बौद्धिक अभिनेता दर्शक से देखने के लिए भी अभ्यास की माँग करता है। वह भावनाओं को परिभाषित करता है। इसलिए उसकी हर भंगिमा, मंच पर उसका हर क़दम, उसका हस्तसंचालन सोचा समझा, नापा तौला होता है। जैसे एक कवि या कथाकार एक भाव को व्यक्त करने के लिए सटीक शब्द चुनने का श्रम करता है, वैसे ही एक अभिनेता एक संवेदना को, एक भाव को व्यक्त करने के लिए अपनी सारी शारीरिक ऐंद्रिक शक्तियों में एक संयोजन रचता है। वहाँ कोई हड़बड़ी नुक़सान कर सकती है। एक बौद्धिक अभिनेता पुरानी शैलियों को भी तोड़ता है। यही बात विचार के मामले में भी सही है। नसीर साहब से उम्मीद यही थी और इसीलिए उनके वक्तव्य से शिकायत भी है।

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