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प्रतीकात्मक तसवीर।

यूपी में सर्वे: कोरोना लॉकडाउन के कारण लोगों की आमदनी 5 गुनी कम हो गई

कोरोना लॉकडाउन का असर लोगों पर और उनकी आमदनी पर कैसा हुआ है? यह समझने के लिए हमने जून में उत्तर प्रदेश के ललितपुर, कुशीनगर और लखनऊ ज़िलों के 400 से अधिक लोगों से टेलीफ़ोन पर संपर्क किया। हमारा सैम्पल निश्चित रूप से उत्तर प्रदेश की पूरी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं करता है लेकिन, यह टेलीफ़ोनिक सर्वेक्षण हमें ज़मीनी स्तर की वास्तविकता के बारे में कुछ संकेत देता है।

इस सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि सैम्पल लिए गए घरों की औसत आय कोरोना लॉकडाउन के कारण उनकी लॉकडाउन से पहले की आय के पाँचवें भाग से भी कम हो गई है। सर्वे में भाग लेने वालों में से क़रीब आधे ने बताया कि उनकी आय लॉकडाउन के कारण बिल्कुल ख़त्म हो गयी है। सर्वे में भाग लेने वाले घरों के आधे का अनुमान है कि छह महीनों में उनकी आय लॉकडाउन के पहले की औसत मासिक आय की तुलना में आधी रह गई। आधे से अधिक परिवारों को अभी तक जन-धन खातों में कोई आर्थिक सहायता नहीं मिली है और 40% से अधिक परिवारों को प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना (पीएमजीकेवाई) की घोषणा के 3 महीने बाद भी मुफ्त गैस सिलेंडर नहीं मिला है। वर्तमान समय में आख़िरी उपाय कार्यक्रम के रूप में सार्वभौमिक रोज़गार की आवश्यकता है।

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हमें सर्वे में जवाब देने वाले 409 लोगों के परिवार के सदस्यों सहित कुल 2149 लोगों के बारे में जानकारी मिली है। हमारे सैम्पल में भाग लेने वाले 134 लोग अनपढ़, 123 लोग विभिन्न स्तरों पर स्कूल ड्रॉप-आउट, 91 लोग 10वीं और 12वीं पास और 61 लोक स्नातक थे। 385 लोग हिंदू, 1 जैन परिवार और 23 मुसलिम थे। कुल सैम्पल जनसंख्या में 253 परिवार अनुसूचित जाति (एससी), 7 परिवार अनुसूचित जनजाति (एसटी) , 115 परिवार अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के और 34 परिवार अन्य अनारक्षित जाति पृष्ठभूमि से थे। सर्वे में भाग लेने वाले ये सभी- भूमिहीन खेतिहर मज़दूर, ईंट-मज़दूर, ऑटो-रिक्शा चालक, नाई, बढ़ई, रसोइया, मनरेगा कार्यकर्ता, दिहाड़ी मज़दूर, ड्राइवर, बिजली कर्मचारी, कारखाना कर्मचारी, किसान, मछली-अंडा-मांस-फल विक्रेता, छोटे दुकान मालिक, सरकारी कर्मचारी, घर-चित्रकार, पुजारी, निर्माण श्रमिक, निजी क्षेत्र के कर्मचारी, प्लंबर, राजमिस्त्री, सुरक्षा गार्ड, दर्जी, वेल्डर आदि सहित विभिन्न व्यावसायिक पृष्ठभूमि के थे।

हमारे सैम्पल में परिवारों की प्रति व्यक्ति आय लॉकडाउन से पहले 286 रुपये से लेकर 13350 रुपये तक थी। लॉकडाउन से पहले इन 409 परिवारों की औसत आय 8445 रुपये प्रति माह थी जो लॉकडाउन के बाद अप्रैल, मई और जून के महीनों में लगभग 1641 रुपये पर आ गई है। यानी कोरोना लॉकडाउन की वजह से उनकी लॉकडाउन से पहले की तुलना में अब उनकी आय पाँचवें भाग से भी कम हो गई है। सर्वे में भाग लेने वाले क़रीब आधे लोगों ने (409 में से 197) ने बताया कि लॉकडाउन के कारण उनकी आय पूरी तरह से ख़त्म हो गयी है। छह महीनों में आधे घरों में (409 में से 205) की औसत मासिक आय उनके लॉकडाउन के पहले की औसत मासिक आय का आधा (51%) होना बताया गया है।

उत्तर प्रदेश की हमारी इस रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि लोगों के दिमाग़ में आय की अनिश्चितता और आजीविका को लेकर अतिसंवेदनशीलता बनी हुई है।

हमारे वर्तमान सैम्पल में 96% परिवार 4000 रुपये या उससे कम प्रति व्यक्ति मासिक (लॉकडाउन से पहले) आय वर्ग के थे। अगर हम 409 परिवारों को उनकी लॉकडाउन से पहले की प्रति व्यक्ति मासिक आय के आधार पर लगभग 5 समूहों में विभाजित करते हैं, तो एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य उभरकर सामने आता है। हमने पाँच प्रति व्यक्ति आय के समूहों को प्रति माह 750 रुपये से नीचे, 750 रुपये-1000 रुपये, 1000 रुपये से ऊपर तथा 1700 रुपये से नीचे, 1700 रुपये-2250 रुपये और 2250 रुपये से ऊपर में बाँटा। आय में कमी का असर यह हुआ कि इन सभी परिवारों के ख़र्च में भारी कमी आ गई। सर्वे किए गए लोगों में से भी जो सबसे ज़्यादा ग़रीब थे उनके ख़र्च पर ज़्यादा असर पड़ा।

ग़रीब वर्ग के लोग अमीर वर्ग की तुलना में कम बचत करते हैं और अपनी आय का अधिकांश हिस्सा उपभोग करते हैं। ग़रीब तबक़ा ज़्यादातर उन आवश्यक चीजों पर ख़र्च करता है जिनका उपभोग आय कम होने पर भी कम करना मुश्किल है और उनके पास पहले से बहुत कम बचत है इसलिए कोरोना लॉकडाउन के कारण उनके ऋण में वृद्धि हो गयी है।

बीमारियों के इलाज में दिक्कतें

256 परिवार ऐसे हैं जिनके पास मनरेगा जॉब कार्ड है और 153 परिवार ऐसे हैं जिनके पास नहीं है। सर्वे में भाग लेने वाले 119, जिनके पास जॉब-कार्ड है (जो कि अपेक्षित है कि ग्रामीण क्षेत्रों से हैं), में से लगभग आधे लोगों का मानना है कि शहरी क्षेत्रों में भी मनरेगा कार्यक्रम को बढ़ाया जाना चाहिए। जिन 153 लोगों (ज़्यादातर शहरी क्षेत्रों से हैं) के पास जॉब-कार्ड नहीं हैं उनमें से 101 (दो-तिहाई) की राय है कि आख़िरी उपाय वाले रोज़गार कार्यक्रम को मौजूदा संकट के दौरान जब नौकरी की असुरक्षा बहुत अधिक है, सार्वभौमिक बनाया जाना चाहिए। लगभग 10% जवाब देने वाले अपना वर्तमान पेशा बदलना चाहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि उनके पेशे में कोई भविष्य नहीं है। हमारे सैम्पल में 37 परिवारों को लॉकडाउन के दौरान कोरोना के अलावा कुछ अन्य बीमारियाँ भी थीं और उनमें से 30 परिवारों (81%) को लॉकडाउन के कारण रोगियों के उपचार में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। 

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हमने जानना चाहा कि क्या मार्च में प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना में केंद्र सरकार द्वारा किए गए वादों के मुताबिक़, क्या मुफ्त राशन, मुफ्त गैस सिलेंडर और जन-धन खातों में 500 रुपये प्रतिमाह मिल रहे हैं। जून में किए गए हमारे सर्वेक्षण के समय तक 409 परिवारों में से, 32 परिवारों (8%) को किसी वजह से मुफ्त राशन नहीं मिला। हमारे सैम्पल में केवल 57% परिवारों को मुफ्त गैस सिलेंडर मिला है और केवल 48% परिवारों को ही प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण योजना की घोषणा के 3 महीने बाद जन-धन प्राप्त हुआ है। इसलिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को इस संकट की स्थिति में पहले से घोषित योजनाओं के अधिक कुशल कार्यान्वयन पर अधिक ध्यान देना चाहिए। लगभग सभी लोगों ने वर्तमान संदर्भ में रोज़गार के अधिक अवसर प्रदान करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया है।

सर्वे किए गए 50 लोग प्रवासी थे, जो कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों से वापस आए हैं और 2 लोग लॉकडाउन के कारण सऊदी अरब से वापस आ गए हैं। हमारे सैम्पल में सर्वे किए गए लोगों की मुख्य चिंता बेरोज़गारी और आय की कमी है। वर्तमान समय में बढ़ी हुई मज़दूरी दर के साथ एक सार्वभौमिक रोज़गार गारंटी योजना की आवश्यकता है। उम्मीद है, भारत के लोगों द्वारा लोगों के लिए सबसे बड़े लोकतंत्र में, इस मानवीय संकट के दौरान, सरकार इस पर गंभीरता से विचार करेगी।

  • (सुरजीत दास जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के आर्थिक अध्ययन और नियोजन केंद्र में सहायक प्रोफ़ेसर हैं और मंजूर अली गिरि विकास अध्ययन संस्थान लखनऊ में सहायक प्रोफ़ेसर हैं। अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद पूनम पाल ने किया है जो सीईएसपी-जेएनयू में पीएचडी शोधार्थी हैं।)
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सुरजीत दास / मंजूर अली
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