भूपेश बघेल
कांग्रेस - पाटन
जीत
अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आया है, वह तो सबको समझ में आ गया है कि विवादित ज़मीन हिंदू पक्ष को दे दी जाए। लेकिन कोर्ट ने ऐसा निर्णय क्यों दिया, किस आधार पर दिया, इसको लेकर अधिकतर लोगों के दिमाग़ में तसवीर साफ़ नहीं है। जो इस निर्णय से ख़ुश हैं, वे समझते हैं कि कोर्ट ने यह फ़ैसला इसलिए दिया कि मसजिद जहाँ बनाई गई है, वहाँ पहले एक मंदिर था और पीड़ित (हिंदू) पक्ष के साथ न्याय करने के लिए कोर्ट ने मंदिर वाली जगह हिंदुओं को दे दी। एक लाइन में कहें तो कोर्ट को इस बात के सबूत मिले कि मसजिद बनने से पहले वह जगह हिंदुओं की ही थी, इसीलिए वह जगह उसके असली मालिक यानी हिंदुओं को दे दी।
दूसरी तरफ़ जो इस निर्णय से नाख़ुश हैं, वे कह रहे हैं कि हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मसजिद वाली जगह पर पहले मंदिर था लेकिन उसने यह भी तो कहा है कि मसजिद बनाने के लिए मंदिर को तोड़ा गया, इसका कोई सबूत नहीं है। साथ ही साथ कोर्ट ने यह भी कहा है कि मसजिद वाली जगह पर पहले मंदिर था, इस आधार पर हिंदू पक्ष का उसपर कोई क़ानूनी अधिकार नहीं बनता।
तो जब कोर्ट मानता है कि इसका कोई सबूत नहीं है कि मंदिर तोड़कर मसजिद बनी, और वह यह भी मानता है कि यदि उस ज़मीन पर पहले से कोई (टूटा-फूटा) मंदिर था तो भी उस आधार पर हिंदुओं का उसपर कोई क़ानूनी अधिकार नहीं बनता, तो फिर किस आधार पर उसने ज़मीन हिंदू पक्ष को दे दी?
इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट के एक हज़ार से भी ज़्यादा पेज वाले आदेश में है जिसको पढ़ने की ज़हमत बहुत कम लोगों ने उठाई है। आदेश पढ़ने पर पता चलता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला वास्तव में मुसलिम पक्ष की एक दलील के आधार पर ही आया है। यानी मुसलिम पक्ष ने विवादित ज़मीन पर क़ब्ज़े के लिए जो तर्क दिया, उसी तर्क के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू पक्ष को यह ज़मीन दे दी। पढ़ने में अजीब लगता है लेकिन यही सच है। आइए, देखते हैं, वह क्या दलील थी जो मुसलिम पक्ष ने विवादित ज़मीन पर अपना दावा करते हुए दी थी।
1961 में मुसलिम पक्ष यानी सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड ने मुक़दमा नंबर 4 में अपना पक्ष रखते हुए यह कहा था-
‘प्रतिवादियों का आरोप है कि आज से 433 साल पहले शहंशाह बाबर ने जिस जगह पर यह मसजिद बनाई थी, उस ज़मीन पर पहले से एक मंदिर था। हम इस आरोप को नहीं मानते लेकिन यदि (तर्क के लिए) मान भी लिया जाए कि ऐसा ही था तो भी मसजिद के निर्माण काल से लेकर (मूर्तियाँ रखकर) उसे नापाक किए जाने तक मसजिद पर मुसलमानों का लंबा, लगातार और एकपक्षीय क़ब्ज़ा था। इस प्रतिकूल क़ब्ज़े के आधार पर इस संपत्ति पर उनका मालिकाना हक़ बनता है।’
आगे बढ़ने से पहले इस प्रतिकूल क़ब्ज़े का मतलब समझ लिया जाए। प्रतिकूल क़ब्ज़े का अर्थ यह है कि किसी ज़मीन पर पहले चाहे किसी का भी स्वामित्व रहा है लेकिन यदि उस जगह पर कोई और पक्ष ‘लंबे समय’ से रह रहा है और उसने ताक़त के बल पर वह ज़मीन नहीं हथियाई हो या उसे रहने से रोका नहीं जा रहा हो तो उस ज़मीन पर उसका मालिकाना हक़ मान बन जाता है।
अब प्रश्न यह कि लंबे समय का अर्थ कितना लंबा है? पहले का पता नहीं लेकिन आज के क़ानून में निजी संपत्ति के लिए यह अवधि 12 साल और सरकारी संपत्ति के लिए 30 साल है।
फिर से आते हैं मुक़दमे पर। मुसलिम पक्ष का कहना था कि 1528 में यह मसजिद बनी और 1949 में उसमें मूर्तियाँ रखी गईं - यानी मुसलमानों का इस ज़मीन पर 421 साल लंबा, लगातार और एकपक्षीय क़ब्ज़ा रहा है। वाक़ई चार सदियों तक फैला यह बहुत लंबा समय था और इस आधार पर उसे ज़मीन पर क़ब्ज़ा मिल सकता था क्योंकि क़ानून में इसका प्रावधान है।
लेकिन इस दलील में दो पेच थे। पहला, प्रतिकूल क़ब्ज़े के क़ानूनी प्रावधान का लाभ लेने के लिए यह साबित करना होगा कि 1. यह क़ब्ज़ा जबरन नहीं किया गया था, 2. इसका कभी कोई विरोध नहीं हुआ था और 3. यह क़ब्ज़ा पूरा था - यानी कोई और आकर उस ज़मीन पर कभी भी नहीं रहा था।
दूसरा पेच यह कि यह दलील देकर मुसलिम पक्ष ने अनजाने में मान लिया था कि क़ब्ज़ा और क़ब्ज़े की अवधि स्वामित्व साबित करने का क़ानूनी आधार हो सकते हैं।
पहले बिंदु पर तो मुसलिम पक्ष बेहतर स्थिति में था क्योंकि हिंदू पक्ष के तमाम दावों के बावजूद कोर्ट की नज़र में यह सिद्ध नहीं हो पाया कि मंदिर को गिराकर मसजिद बनाई गई थी। लेकिन दूसरे और तीसरे बिंदु पर वह कमज़ोर रहा।
विवादित ज़मीन को लेकर समय-समय पर विरोध होता रहा है, दंगे हुए, तोड़फोड़ हुई। यानी यह क़ब्ज़ा ‘निर्विरोध और शांतिपूर्ण’ नहीं था।
तीसरा बिंदु भी वैध नहीं है क्योंकि हिंदू मसजिद परिसर के बाहरी अहाते (जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई वग़ैरह थे) में लगातार क़ाबिज़ रहे और कोर्ट के अनुसार मसजिद के मुख्य भवन के भीतर भी उनका आना-जाना रहा। यानी मसजिद पर मुसलिम पक्ष का ‘एकपक्षीय’ क़ब्ज़ा भी नहीं था।
एक लाइन में कहें तो मुसलिम पक्ष विवादित ज़मीन पर शांतिपूर्ण और अविवादित क़ब्ज़े की शर्तें पूरी नहीं कर पाया इसलिए प्रतिकूल क़ब्ज़े की दलील का लाभ उसे नहीं मिल सका।
लेकिन क्या इस आधार पर हिंदू पक्ष को ज़मीन दी जा सकती है? अगर उस ज़मीन पर मुसलिम पक्ष का लंबा, लगातार और एकपक्षीय क़ब्ज़ा नहीं था तो हिंदू पक्ष का भी लंबा, लगातार और एकपक्षीय क़ब्ज़ा नहीं था। यदि इस आधार पर मुसलमानों को ज़मीन का स्वामित्व नहीं दिया जा सकता तो उसी आधार पर हिंदुओं को भी ज़मीन पर स्वामित्व नहीं दिया जा सकता। लेकिन कोर्ट ने दिया। आख़िर किस आधार पर?
कोर्ट ने यह फ़ैसला दिया क़ब्ज़े और उसके दायरे के आधार पर। उसी आधार पर जिसकी बुनियाद पर मुसलिम पक्ष ने 1961 में इसका स्वामित्व माँगा था और जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। कोर्ट ने कहा, हाँ यह सही है कि विवादित संपत्ति पर किसी भी एक पक्ष का नहीं, बल्कि दोनों का क़ब्ज़ा था लेकिन हम इलाहाबाद हाई कोर्ट की तरह दोनों को सह-स्वामी नहीं घोषित करना चाहते क्योंकि उससे विवाद का हल नहीं होगा और शांति क़ायम नहीं होगी। इसलिए हम फ़ैसला इस आधार पर करते हैं कि मसजिद बनने (चाहे वह जब भी बनी हो) से लेकर 23 दिसंबर 1949 तक की अवधि में वहाँ किस पक्ष का ‘ज़्यादा क़ब्ज़ा’ रहा।
कोर्ट ने कहा, ‘हमारे पास सबूत हैं कि मसजिद परिसर के बाहरी अहाते पर (जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई और भंडारा थे) 1856-57 के बाद से हिंदू पक्ष का एकपक्षीय क़ब्ज़ा रहा। जहाँ तक परिसर के भीतरी अहाते और गुंबद के नीचे वाले हिस्सों का मामला है तो वहाँ हिंदू और मुसलमान दोनों जाते रहे लेकिन 1857 से पहले मुसलमान वहाँ नमाज़ पढ़ते थे, इसके प्रमाण नहीं है। यानी ‘संभावनाओं के तराज़ू' पर तौलें तो विवादित परिसर में हिंदुओं का नियंत्रण मुसलमानों से 'ज़्यादा समय और बड़े दायरे' तक रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। इसलिए यह ज़मीन हिंदुओं को दी जाती है।’
इस फ़ैसले को समझने के लिए आप फ़ुटबॉल या क्रिकेट के एक ऐसे मुक़ाबले की कल्पना करें जिसमें दोनों पक्षों ने बराबर गोल किए हों या समान विकेट खोकर बराबर रन बनाए हों लेकिन रेफ़री या अंपायर को किसी एक को विजयी घोषित करना हो।
फ़ुटबॉल का मामला पहले लेते हैं। रेफ़री ने कहा कि दोनों पक्षों ने बराबर गोल किए हैं लेकिन 90 मिनट के मैच में जिस टीम के खिलाड़ियों के पास ज़्यादा समय तक बॉल रहा है, वही विजेता है। यानी यदि पहली टीम के पास 46 मिनट तक गेंद रही और दूसरी टीम के पास 44 मिनट तक तो जीत पहली टीम की हुई। इसी तरह से क्रिकेट मैच में अंपायर ने कहा कि दोनों टीमों ने बराबर रन बनाए हैं और विकेट भी बराबर गिरे हैं लेकिन जिस टीम ने ज़्यादा छक्के लगाए हैं, वही विजेता है।
सुप्रीम कोर्ट के पास भी ऐसा ही मामला था जिसमें उसे दोनों में से एक पक्ष को विजयी घोषित करना था। मेरे जैसे कई लोग इस फ़ैसले से ख़ुश नहीं होने के बावजूद कोर्ट की मजबूरी समझ सकते हैं। लेकिन हमें केवल दो मुद्दों पर आपत्ति है।
कोर्ट ने किस आधार पर कहा कि 1857 से पहले मसजिद के मुख्य भवन में नमाज़ नहीं पढ़ी जाती थी लेकिन पूजा की जाती थी? यदि नमाज़ नहीं पढ़े जाने का सबूत नहीं है तो पूजा किए जाने के भी सबूत नहीं है (सबूतों के बारे में हम अगली कड़ी में बात करेंगे)।
कोर्ट ने यह फ़ैसला देते समय 1855, 1934, 1949 और 1992 में हिंदू पक्ष के लोगों द्वारा क़ानून अपने हाथों में लेने की कार्रवाई के लिए हिंदू पक्ष के पॉइंट क्यों नहीं काटे? यदि ऊपर दिए गए फ़ुटबॉल और क्रिकेट के उदाहरणों से ही कहें तो रेफ़री ने विजेता घोषित टीम द्वारा किए गए गंभीर फ़ाउलों को नज़रअंदाज़ क्यों किया और विपक्षी टीम को वाजिब पेनल्टी कॉर्नर क्यों नहीं दिए? अंपायर ने मैच के महत्वपूर्ण दौर में विपक्षी टीम के मुख्य खिलाड़ी को धक्का देकर रिटायर्ड हर्ट करने की कार्रवाई के लिए विजेता टीम के रन क्यों नहीं काटे?
अगली कड़ी में हम उन सबूतों के बारे में बात करेंगे जिसके आधार पर कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि विवादित परिसर पर हिंदुओं का मुसलमानों के मुक़ाबले में ज़्यादा क़ब्ज़ा रहा।
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