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प्रतीकात्मक तसवीर।

यदि महंगाई आपके लिए मुद्दा नहीं तो भी इस कृषि संकट से नहीं बचेंगे!

आटे दाल का भाव अगर अब भी आपको परेशान नहीं कर रहा है तब भी समझना ज़रूरी है कि आगे यह ख़तरा और भी बड़ा हो सकता है। भीषण तापमान के कारण जिस समय देश का गेहूं उत्पादन कम हुआ है ठीक उसी समय आई इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट ज़्यादा परेशान करने वाली है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस तरह से ग्लोबल वार्मिंग का सिलसिला आगे बढ़ रहा है, साल 2030 तक भारत में अनाज का उत्पादन काफी तेजी से गिर सकता है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कृषि उत्पादन के गोता लगाने के कारण भारत में 9.06 करोड़ लोग भुखमरी की ओर बढ़ सकते हैं।

फ़िलहाल तो देश के किसानों पर पर्यावरण बदलाव का असर पहली बार बड़े पैमाने पर पड़ा है। मार्च से ही काफी तेज गर्मी शुरू हो जाने के कारण इस बार खेतों में खड़ी गेहूँ की फ़सल के दानों में पूरा निखार नहीं आया। ये दाने अभी अपने आकार तक पहुँचे ही नहीं थे कि तेज गर्मी ने उन्हें सुखा दिया। 

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नतीजा यह हुआ कि बहुत सारी बालियों में दाने सिकुड़ गए। इन छोटे और सिकुड़े दानों के कारण इस बार गेहूं का कुल उत्पादन काफी कम हो गया है। जबकि बुआई के बहुत बाद तक उम्मीद यही थी कि इस बार भी गेहूं का रिकॉर्ड उत्पादन हो सकता है।

नुक़सान कितना हुआ है इसकी कोई प्रमाणिक जानकारी हमारे पास नहीं है। किसी सरकारी सर्वे की बात सामने नहीं आई है और न ही किसी कृषि विश्वविद्यालय या अन्य संस्थान ने इसका आकलन करने की ही कोई कोशिश की है। कुछ वैज्ञानिकों ने यह अनुमान ज़रूर लगाया है कि नुक़सान 18 से 20 फीसदी तक हो सकता है।

लगता है कि सरकार ने इसी अनुमान को सही मान लिया है। शुरू में सरकारी गेहूं खरीद के जो नियम बने थे उसमें छह फीसदी तक सिकुड़े और टूटे दाने खरीदने की बात थी। इसका अर्थ यह था कि जहां फसल में खराबी आई है वहां उपज तो कम हुई ही थी, किसानों के सामने अपनी उपज को सरकारी खरीद केंद्र पर बेचने की गुंजाइश भी कम या ख़त्म हो गई थी। 

अब इस नियम में ढील देकर 18 फीसदी तक सिकुड़े और टूटे दाने खरीदने की अनुमति दे दी गई है। इससे किसानों को राहत मिल सकती है, लेकिन कितनी?

कोई प्रामाणिक आकलन न होने के कारण यह बात अभी पक्के तौर पर नहीं कही जा सकती। बाकी उपज कम होने का जो नुक़सान है वह तो किसानों को होगा ही।

पर्यावरण बदलाव के ख़तरों को लेकर जो तमाम रिपोर्टें सामने आ रही हैं वे बताती हैं कि मामला सिर्फ़ किसी इस साल या उस साल का नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग को लेकर सबसे बड़ा नुक़सान कृषि क्षेत्र को ही होगा। उपज कम हुई तो इसका असर सिर्फ किसान पर ही नहीं पूरे समाज पर और देश की खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। इसलिए बड़ी ज़रूरत यह है कि किसानों और खाद्य सुरक्षा को केंद्र में रखते हुए एक नई पर्यावरण नीति तुरंत बनाई जाए।

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एक ज़रूरत उन योजनाओं को दुरुस्त करने की भी है जो सिर्फ दिखावटी बन कर ही रह गई हैं। कुछ साल पहले एक प्रधानमंत्री किसान बीमा योजना शुरू हुई थी, जिसकी तारीफ में बहुत सारे कसीदे भी काढ़े गए थे। जिस योजना को अभूतपूर्व बताया गया था उसने कहीं पर भी मौसम की मार से त्रस्त किसानों को बड़ी राहत दी हो, ऐसी खबर कभी सुनाई नहीं दी। ज़रूरत ऐसी योजना को यथार्थ की जमीन पर उतारने और उसे पर्यावरण के बदलाव से जोड़ने की है। ताकि विपरीत हालात में भी किसान के लिए कोई तो वास्तविक राहत मौजूद रहे।
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हरजिंदर
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