क्या देश में सेक्युलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता ने दम तोड़ दिया है? एक वह दौर था जब देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन कार्यक्रम में जाने पर ऐतराज जताया था। उनका तर्क था कि भारत एक सेक्युलर मुल्क है और यहां के मुखिया को किसी धार्मिक कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की नहीं सुनी थी। वह कार्यक्रम में गए और एक बहस छिड़ी कि धर्म क्या किसी का निजी मामला है और क्या सरकार को धर्म के मामलों में दखल देना चाहिए।

दिल्ली के नगर निगम चुनाव आने वाले हैं। यही वजह है कि केजरीवाल अपनी धार्मिक पहचान को प्रकट कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि वह बीजेपी से बड़े रामभक्त और राष्ट्रवादी हैं। यही कारण है कि उनकी सरकार सीनियर सिटिजंस को मुफ्त में अयोध्या की तीर्थ यात्रा कराने की योजना बना रही है और इसका उनके धर्म या हिंदूपने से कोई ताल्लुक नहीं है।
लेकिन तब से अब तक दुनिया बहुत बदल चुकी है। धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा के कोई मायने नहीं रह गये हैं। राजनीति के साथ धर्म की मिलावट न्यू नॉर्मल बन चुका है। इसके लिए किसी एक राजनीतिक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। हर पार्टी का दामन दाग़दार है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।