कोरोना ने आम आदमी की ज़िंदगी में और तमाम तब्दीलियों के साथ-साथ जो एक और परिवर्तन किया है वह यह कि मजबूरन ही सही लोगों के प्राकृतिक ग़ुस्से को भी कम कर दिया है। सवाल यह भी है कि घरों में ही बंद लोग किस पर ग़ुस्सा कर सकते हैं और फिर ऐसा करके बाहर जाने की भी कोई गुँज़ाइश अभी नहीं है। पड़ोसियों पर कर नहीं सकते। उनकी तो सूरतें ही पहली बार ठीक से देख पा रहे हैं। जब सरकार काम नहीं आती तब काम वे ही आते हैं। जो लोग अख़बार, दूध आदि पहुँचा रहे हैं उनपर भी ग़ुस्सा करने के ख़तरे ज़ाहिर हैं। एक ही विकल्प बचता है कि सारा ग़ुस्सा सरकार के ख़िलाफ़ निकाल लिया जाए। पर वह भी ऊँची आवाज़ में नहीं कर सकते! सत्तारूढ़ दल के देश में सब मिलाकर कोई बीस करोड़ सदस्य हैं यानी प्रत्येक छठा आदमी। ऐसे में आवाज़ ऊँची करने के कई तरह के ख़तरे हैं।