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क्या इंसेफ़ेलाइटिस से मौतें आपराधिक लापरवाही नहीं है?

इंसान हो या सरकार, एक बार ग़लती करने पर इसे उसकी भूल मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है और उसे माफ़ भी कर दिया जाता है। लेकिन अगर वही ग़लती बार-बार दोहराई जाए तो उसे इंसान या सरकार की मूल प्रवृत्ति मानने में कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिए। सरकार विशेष की बात न करते हुए यह कहा जा सकता है कि यूपी-बिहार में जापानी इंसेफ़ेलाइटिस (चमकी बुखार) तथा एक्यूट इंसेफ़ेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस ) से बच्चों की सालोंसाल होती चली आ रही मौत कोई क़ुदरती क़हर नहीं बल्कि आपराधिक सरकारी लापरवाही की प्रवृत्ति का नतीजा है। इन दिनों बिहार का मुज़फ़्फ़रपुर मासूम बच्चों की मौत का मरकज़ बना हुआ है, और इन मौतों की दिन-ब-दिन बढ़ती संख्या अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बन रही हैं। अगर कोसी नदी को बिहार का शोक कहा जाता है तो आज जापानी इंसेफ़ेलाइटिस को बिहार का अभिशाप कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं! सैकड़ों बच्चों की मौत कोई त्रासदी नहीं, बल्कि नरसंहार है।

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जापानी इंसेफ़ेलाइटिस एक जानी-पहचानी बीमारी है। वर्ष 2017 के अगस्त माह में पूर्वी यूपी के गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इसी बीमारी से पीड़ित 325 बच्चे जब ऑक्सीजन के सिलेंडर की कमी से मरे तो पूरे देश में हंगामा मच गया था। तब गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर पी.के. सिंह ने स्वीकार किया था- ‘अब तक 1317 बच्चों की मौत हुई है। ...इनमें से अधिकतर नवजात बच्चे थे।’ उन दिनों विपक्षी नेताओं के अस्पताल दौरों से कुपित होकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था- ‘गोरखपुर को पिकनिक स्पॉट न बनाएँ।’ लेकिन स्वास्थ्य महकमे की कुंभकर्णी नींद के चलते इस साल बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में बच्चों की मौत का आँकड़ा सौ के पार चला गया है।

सौ से ज़्यादा मौतों के बाद अब जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन, स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे, बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डेय और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज का मुआयना करने की इनायत फ़रमायी, तो इसे कौन से पर्यटन का नाम दिया जाए?

हालाँकि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने एईएस और जापानी इंसेफ़ेलाइटिस से निबटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ़ के साथ मिलकर कुछ उपाय किए थे और एक्शन प्लान 2018 लॉन्च किया था। इसी का नतीजा था कि बीआरडी में 2017 में हुई 557 मौतों के मुक़ाबले 2018 में 187 मौतें दर्ज की गईं। इस महामारी से प्रभावित उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों में कुल मामले घटकर 2,043 रह गए थे। देखा जाए तो नीतीश कुमार सरकार ने भी जापानी इंसेफ़ेलाइटिस और एईएस के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र 2015 में मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) की शुरुआत की थी। लेकिन इस साल के हालात देखकर यह साफ़ हो गया कि राज्य में ईसओपी का पालन ही नहीं किया गया। इसके उलट पॉलिसी रिसर्च स्टडीज की साइट बताती है कि 2017-18 में बिहार सरकार का स्वास्थ्य बजट मात्र 7002 करोड़ का था, जो 2016-17 की तुलना में 1000 करोड़ घटा दिया गया था। ऐसे में पहले से जर्जर सरकारी अस्पतालों का स्वास्थ्य ख़ाक सुधरना था!

टीकाकरण क्यों नहीं हुआ?

पहले बिहार के लोग इंसेफ़ेलाइटिस से अपने बच्चों की जान बचाने के लिए भाग कर गोरखपुर मेडिकल कॉलेज पहुँचते थे, लेकिन इस बार ख़ुद बिहार के श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज में ही मौतों से हाहाकार मचा हुआ है। इसके बावजूद मीडिया सत्ताधारियों (बीजेपी+जेडीयू) और विपक्ष (कांग्रेस+आरजेडी) से इतना भी नहीं पूछ पा रहा है कि बिहार में पिछड़ों और महादलितों की बस्तियों में टीकाकरण और कुपोषण दूर करने के कार्यक्रमों का क्या हुआ? बीते पाँच साल से स्वच्छता अभियान का ढोल बजाने के बाद सूबे की बस्तियाँ इतनी गंदी क्यों हैं? अस्पतालों में दशकों से चली आ रही दवाओं और डॉक्टरों की कमी को अब तक पूरा क्यों नहीं किया गया? 

महज सरकारी स्वास्थ्य बीमा की आयुष्मान भारत योजना को सारे मर्जों की दवा बताने वाले अब किस बिल में घुस गए हैं? नींद से जाग कर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, मुख्यमंत्री वगैरह- बिहार में डॉक्टर, दवाइयाँ, बेड, नर्सें और अस्पताल की संख्या बढ़ाने की बड़ी-बड़ी घोषणाएँ अब जाकर क्यों कर रहे हैं?

पिछले कई वर्षों से एक रुटीन जैसा बन गया है कि यूपी-बिहार में जब तक बच्चों की मौतों की संख्या चालीस-पचास के पार न हो जाए, तब तक इन्हें ख़बर बनने लायक भी नहीं समझा जाता! सरकारी आँकड़ों पर भरोसा करें तो जनवरी 2005 से दिसंबर 2016 तक इस बीमारी से पूर्वी उत्तर प्रदेश में 7586 बच्चों की मौत हुई थी, वहीं ग़ैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 35 वर्षों (सन्‌ 1978 से 2013 तक) के वक्फे में 50 हज़ार से ज़्यादा लोग असमय जापानी इंसेफ़ेलाइटिस का शिकार हो गए! बिहार में चमकी बुखार के नाम से कुख्यात इस बीमारी के चलते 2014 में 355, 2015 में 225, 2016 में 102, 2017 में 54, 2018 में 33 और 2019 में अब तक 200 से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है। लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन का बयान है कि इस बीमारी पर रिसर्च के लिए एक साल का समय और चाहिए!

यूपी-बिहार में समस्या क्या?

ऐसा भी नहीं है कि भारत में इस क़िस्म का मस्तिष्क ज्वर पहली बार यूपी-बिहार में ही दर्ज किया गया हो। दरअसल, पहला मामला तमिलनाडु में सन्‌ 1955 के दौरान सामने आया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो 1978 के साल में हंगामा तब बरपा जब इस ज्वर ने 528 मरीजों को निगल लिया। आज भी इसके कुछ मरीज पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, असम, मेघालय, मणिपुर, त्रिपुरा, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में निकल आते हैं। लेकिन बदकिस्मती देखिए कि आंध्र और तमिलनाडु में जापानी मस्तिष्क ज्वर का आज नाम भी नहीं सुनाई देता जबकि यूपी-बिहार में इसका तांडव बदस्तूर जारी है। यह स्थिति बच्चों को मौत के मुँह में समाते देखने को मजबूर माँ-बाप की लाचारी, इलाक़े की घनघोर उपेक्षा और सरकारी तंत्र के क्रूर रवैए का भ्रष्टाचारी आख्यान भी प्रस्तुत करती है।

विचार से ख़ास
हमारे संविधान के मुताबिक़ स्वास्थ्य और पोषण की पहली ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। लेकिन हमारे देश में इलाज का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र के हाथों कर दिया गया है। हेल्थ सेक्टर में सरकार का नियंत्रण अब 20 प्रतिशत से भी कम बचा है और सरकार अपने कुल बजट का मात्र 1. 5 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर ख़र्च करती है। यही वजह है कि मूलभूत स्वास्थ्य ढाँचा और सेवाएँ प्रदान करने के मामले में यूपी-बिहार समेत पूर्व, उत्तर-पूर्व, उत्तर और मध्य भारत के अधिकतर सरकारी अस्पताल चिक्कड़ी-चीं बोल चुके हैं। भयावह आँकड़ा है कि भारत में प्रति मिनट 5 साल से कम उम्र के 2 बच्चे मर जाते हैं! दूषित खान-पान और आए दिन होने वाली दुर्घटनाओं को भी इन मौतों का ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। लेकिन जो मौतें शोध, डॉक्टरों, दवाइयों, जीवनरक्षक उपकरणों की कमी तथा बरसों से जानी-पहचानी जापानी इंसेफ़ेलाइटिस जैसी बीमारियों की वजह से होती हैं, उनकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? 

पूर्व तैयारियाँ क्यों नहीं? 

सर्वविदित तथ्य है कि मौत पर किसी का वश भी नहीं चलता! लेकिन क्या हम इतने हृदयहीन, लोभी-लालची और मजबूर समाज हो गए हैं कि उचित और सामयिक इलाज के अभाव में अपनी ही नज़रों के सामने अपने ही बच्चों को मौत के मुँह में समा जाने देते हैं! बरसों से चिह्नित जो बीमारियाँ बच्चों की ज़िंदगी छीनती आ रही हैं, उनकी रोकथाम के नाम पर बनी सारी योजनाएँ कागजों पर सिमटकर क्यों रह जाती हैं? सवाल यह भी है कि जब ख़ास इलाक़ों में हर साल इंसेफ़ेलाइटिस फैलने के मौसम-चक्र और प्राथमिक वजहों की जानकारी दशकों से उपलब्ध है, तो इसकी रोकथाम के लिए पूर्व तैयारियाँ क्यों नहीं की जातीं?

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विजयशंकर चतुर्वेदी
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