हिंदी के सुपरिचित लेखक राजकिशोर ने एक बार लिखा था- "मुसलिम पक्ष अगर राम जन्म भूमि हिंदुओं को सौंप दे तो यह एक बेहतर निर्णय होगा। 1990 के बाद से राम जन्मभूमि का सवाल हिंदू मानस के भीतर एक तरह के हठ की तरह बैठ चुका है और उसका निकलना बहुत कठिन है। अगर मुसलिम समाज उस ज़मीन पर अपना दावा छोड़ देता है, तो इससे समाज में दीर्घकालिक शांति आ सकती है।"
मैं उन लोगों में था, जो राजकिशोर के विचार का समर्थन करते थे। मुझे लगता था कि इतनी जिद क्यों? समाज को और देश को बहुत आगे बढ़ना है। झगड़ा खत्म हो तो आदमी रोजगार और इलाज जैसे मुद्दों पर बात करे।
राजकिशोर अब इस दुनिया में नहीं हैं। अगर होते तो मैं पूछता कि अब उनकी राय क्या है, क्योंकि मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी है।
मामला मुँह में खून लगने जैसा हो चुका है। 1989 से लेकर 1992 तक की लगभग फोटोग्राफिक मेमोरी मेरे जेहन में है। जब आडवाणी ने रथ यात्रा निकाली थी और देशभर में हज़ारों लोग मारे गये थे। लेकिन समाज तब भी उतना ज़हरीला नहीं था, जितना आज है।
अयोध्या मामले में एक तरह का नॉवेल्टी फैक्टर था। रामलला के कैद होने की कहानी हिंदू समाज नहीं बल्कि बीजेपी के स्थानीय स्तर के नेताओं ने भी पहली बार सुनी थी। जोश हिलोरे मार रहा था और अयोध्या की तुलना मक्का से की जा रही थी। बहुत सारे तर्क जनता को जायज लग रहे थे।
सबसे बड़ा तर्क यह था कि बाबरी मस्जिद सिर्फ एक ढांचा है।
काशी की स्थिति अयोध्या से एकदम अलग है। वहाँ एक मस्जिद है जो सदियों से इबादतगाह है और उसके ठीक बगल में मंदिर है, जो हिंदू आस्था का केंद्र है।
मैं वहाँ जब भी गया हूँ, विश्वनाथ जी को पंडे पुजारियों ने वहीं दिखाया है, जहाँ पर वो हैं। हिंदू आस्था वहीं है, मस्जिद के पिछले हिस्से का वो टूटा हिस्सा नहीं, जहाँ फव्वारे में शिवलिंग मिलने का दावा किया जा रहा है।
लोक श्रुतियों में मंदिर के तोड़े जाने की कहानियां ज़रूर हैं। ज्ञानवापी मस्जिद पर खड़े होकर चारों तरफ देखने पर यह महसूस करना कठिन नहीं है कि वहाँ कभी कोई मंदिर रहा होगा। लेकिन प्राचीन भारत में वो कौन सा हिस्सा होगा, जहाँ हिंदू मंदिर या कोई दूसरे प्रतीक ना रहे होंगे?
भारत के चप्पे-चप्पे पर हिंदू धार्मिक प्रतीक चिन्हों का मिलना उतना ही स्वभाविक है, जितना शहरों में आदिम संस्कृति और जन-जातीय चिन्हों का मिलना। जितने भी शहर और कस्बे बनाये गये हैं वो किसी ना किसी को उजाड़ कर बनाये गये हैं। क्या सारे मामलों में ‘ऐतिहासिक भूलों का सुधार’ संभव है।
क्या ‘ऐतिहासिक भूलों’ के सुधार की माँग उन लोगों से करना तर्कसंगत, न्यायसंगत और नैतिक है, जो इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। हिंदू समाज जिस रास्ते पर चल पड़ा है, उसमें किसी तार्किकता और नैतिकता की जगह नहीं बची है। मैं जिस समाज का हिस्सा रहा हूँ, उसका इतना डरावना रूप मैं अपने जीवन में देखूंगा यह बात मेरे लिए अकल्पनीय थी।
![Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/app/uploads/10-12-21/61b2d4f6723d1.jpg)
सोशल मीडिया पर जो शोर दिखाई दे रहा है, उसमें अपेक्षाकृत शांत दिखने वाले बहुत से लोग अत्यंत हिंसक नज़र आ रहे हैं और परपीड़न के अनूठे आनंद में डूबे हैं। बहुत से स्वयंभू गाँधीवादी और सर्वोदयी तक भी इसी भीड़ में नज़र आ रहे हैं।
मान लीजिये मस्जिद के अंदर भी धार्मिक प्रतीक चिन्ह ढूंढ लिये जाते हैं और अयोध्या जैसा कोई डिजाइन अपनाते हुए वह जगह भी खाली करवा ली जाती है तो क्या होगा? हिंदू समाज मौजूदा मंदिर वाले विश्वनाथ जी को छोड़कर मस्जिद वाले विश्वनाथ जी को पूजना शुरू कर देगा?
व्यावहारिक तौर पर हिंदू समाज को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि ज्ञानवापी मस्जिद के पिछले हिस्से और पूरी मस्जिद के अंदर क्या है। काशी के सौंदर्यीकरण के नाम पर ना जाने कितने पुराने मंदिर तोड़ दिये गये और शिवलिंग कूड़े के ढेर में नज़र आये। हिंदू आस्था आहत नहीं हुई।
दरअसल हिंदू आस्था का केंद्र अब बदल चुका है और उसके केंद्र में सिर्फ मुसलमानों के प्रति नफरत है। दुनिया का प्राचीनतम धर्म अपने जन्म स्थल पर अपने आपको इस तरह पुनर्परिभाषित करने की जिद पर अड़ा है, जिसके केंद्र में सिर्फ नफरत हो, उसकी अपनी बुनियादी अच्छाइयां नहीं। यह धर्म के भविष्य के लिए अच्छा नहीं है और इस आधार पर मैं यह मानने को तैयार हूँ कि हिंदू धर्म सचमुच खतरे में है।
ज्ञानवापी मस्जिद के भीतर पिछले कुछ समय में जो कुछ हुआ, उसे लेकर हिंदू समाज का एक बड़ा हिस्सा आहलादित है। मन में इस बात का संतोष है कि लाइन में लगवा दिया, तलाशी ले ली। अब जामा मस्जिद से लेकर कुतुब मीनार तक यही होगा।
परपीड़न का मास हिस्टीरिया बन जाना पूरी मानव जाति के लिए घातक है क्योंकि विश्व आबादी में एक बड़ी तादाद हिदुओं की है।
आरएसएस राजनीतिक मेधा संपन्न लेकिन नैतिकता शून्य संगठन है। जिसकी भारत में रहने वाले सभी लोगों की सुख-शांति के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। एक प्रक्रिया के तहत हिंदू समाज आज इतना नफरती बनाया जा चुका है, असर अपने समाज और परिवार पर दिखने लगा है, मुसलमानों पर होना तो एक अलग बात है।
![Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/app/uploads/03-04-21/6067ed001f333.jpg)
मान लीजिये "ऐतिहासिक भूलों को सुधारने" की माँग पर दलित भी अड़ जायें तो क्या होगा? केरल में ब्रेस्ट टैक्स की कहानी गजनवी के भारत पर हमले के मुकाबले काफी नई है और हाल-हाल तक चलती रही है। अगर वहाँ तक दलित समाज जिद पकड़ ले कि इस कुव्यवस्था का बदला लिया जाएगा तो आरएसएस की क्या प्रतिक्रिया होगी?
पूछना बेकार है क्योंकि आरएसएस के काम करने के पीछे कोई तर्क पद्धित नहीं बल्कि संख्या बल काम करता है।
![Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi Gyanvapi Mosque Controversy and Hindu society - Satya Hindi](https://satya-hindi.sgp1.cdn.digitaloceanspaces.com/app/uploads/24-06-21/60d40c0ff36c4.jpg)
स्थायी ध्रुवीकरण के लिए बीजेपी-आरएसएस ने हिंदुओं के भीतर इतनी कुंठा भर दी है कि वे एक पराजित समूह की तरह व्यवहार करने लगे हैं। ये प्रवृतियां हिंदू समाज को कहां ले जाएंगी, धर्मगुरूओं की ओर से इस बात पर कोई चिंता नहीं दिखाई देती।
बीजेपी-आरएसएस के पास वो ताकत है कि अगर वो चाहें तो साल के 365 दिन धार्मिक ध्रुवीकरण के मुद्दों को जिंदा रख सकते हैं। इसका समाज और देश को कितना लाभ हो रहा है, यह सोचने की बात है। जिन चीज़ों को हिंदुओं की जीत बताई है, वो असल में नैतिक रूप से उनकी हार है।
मेरा हमेशा से मानना था कि मोदी सरकार नैतिक साहस दिखाये और ये कहे कि हमारे हिंदू वोटर अयोध्या में मंदिर चाहते हैं और हम संसद में विधेयक लाकर मंदिर बनायें। लेकिन जज साहब ने फैसला सुनाया और बिना किसी शर्म-हया के बीजेपी की तरफ से राज्यसभा के मेंबर बन गये। यह मामला कुछ ऐसा ही था, जैसे 1949 में गर्भगृह में मूर्तियां रखवाने वाले फैजाबाद के डीएम जनसंघ के सांसद बने थे।
सत्य और नैतिकता हिंदू दर्शन के दो बड़े तत्व रहे हैं। क्या आरएसएस की हिंदू आइडियोलॉजी में इन दोनों बातों की कोई जगह है? दुनिया अब भारत को स्वामी विवेकानंद नहीं बल्कि नरसिंहानंद के देश के रूप में देख रही है। एक हिंदू होने के नाते मेरे लिए यह एक बेहद दुखद स्थिति है।
अपनी राय बतायें