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सुप्रीम कोर्ट: कॉलीजियम की कार्यशैली से न्यायपालिका में बेचैनी

मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश वीके ताहिलरमानी के तबादले को लेकर उठे विवाद और शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश जे. चेलामेश्वर के बाद न्यायाधीश मदन बी. लोकुर के बयान से अब ऐसा लगने लगा है कि उच्चतम न्यायालय की कॉलीजियम में सबकुछ ठीक नहीं है। ये दोनों न्यायाधीश अपने कार्यकाल के दौरान कॉलीजियम के सदस्य रह चुके हैं। कॉलीजियम की कार्यशैली को लेकर उठ रही आवाज़ों को देखते हुए ज़रूरी है कि इसमें उचित सुधार किए जाएँ, लेकिन यह काम कोई बाहरी व्यक्ति या संस्था नहीं कर सकती है।
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उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के तबादले और उच्चतम न्यायालय में उनकी पदोन्नति के लिये कॉलीजियम की कार्यशैली पर अब न्यायपालिका के अंदर से ही असंतोष की आवाज़ें उठने लगी हैं। न्यायमूर्ति अक़ील कुरैशी को पदोन्नति देकर मप्र उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बनाने की कॉलीजियम की सिफ़ारिश अभी भी केन्द्र के ही पास है।

न्यायपालिका में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब उच्च न्यायालय के कई न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए कनिष्ठ न्यायाधीशों को प्रमुखता दी गयी। इस तरह के अंसतोष को ख़त्म करने के लिये तत्काल उचित क़दम उठाने की आवश्यकता है।

देर से आना तबादले का आधार?

न्यायमूर्ति ताहिलरमानी के तबादले के बारे में अपुष्ट ख़बरों के अनुसार वह अक्सर देर से आती थीं और अपना काम ख़त्म करके जल्दी ही चली जातीं थीं। अगर इस अपुष्ट ख़बर को सही मान लिया जाये तो भी यह तबादले का आधार नहीं हो सकता क्योंकि उच्चतम न्यायालय में तो न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा अक्सर ही विलंब से आती थीं और उनकी पीठ की अध्यक्षता करने वाले न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू अपने चैंबर में उनके आने का इंतजार करते रहते थे।

कॉलीजियम की कार्यशैली में पारदर्शिता के अभाव के आरोपों को देखते हुए अब ऐसा लगता है कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के लिये न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले की सिफ़ारिश करने वाली मौजूदा व्यवस्था पर नये सिरे से विचार की आवश्यकता है।

शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीशों की टिप्पणियों से ऐसा लगता है कि कॉलीजियम की कार्यशैली में कहीं न कहीं निरंकुशता अपनी जगह बना रही है और शायद न्यायाधीशों की नियुक्तियों की वर्तमान व्यवस्था उन पुरानी परंपराओं का अनुसरण करने लगी है जिसमें कार्यपालिका का दख़ल होता था।

कॉलीजियम व्यवस्था के दौरान न्यायाधीशों की नियुक्ति में कथित भाई-भतीजावाद के बोलबाले और पारदर्शिता की कमी को लेकर उच्चतम न्यायालय के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू ने कई बार सवाल उठाये थे। इस तरह के आरोपों की पुष्टि इससे भी होती है कि एक प्रधान न्यायाधीश ने तो सेवानिवृत्त होने से पहले अपनी सगी बहन को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर दिया था।

प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले कॉलीजियम की कार्यशैली में अगर अभी भी बदलाव नहीं आया तो वह दिन दूर नहीं जब कार्यपालिका एक बार फिर न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में अपना दख़ल बढ़ा सकती है।
ऐसी नौबत आने से पहले ही बेहतर होगा कि मद्रास उच्च न्यायालय या इलाहाबाद उच्च न्यायालय जैसे किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादला सिक्किम, मेघालय या फिर मणिपुर उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर करने की सिफ़ारिश करते समय कॉलीजियम को ऐसा करने के कारणों को सार्वजनिक करने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए ताकि उस पर मनमाने तरीक़े से काम करने के आरोप नहीं लगें।

न्यायाधीशों के चयन और नियुक्तियों के मामले में पारदर्शिता के अभाव और भाई-भतीजावाद के आरोपों को ध्यान में रखते हुए संसद ने 25 साल से भी अधिक पुरानी व्यवस्था में बदलाव के लिये 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून बनाया था।

न्यायमूर्ति जगदीश सिंह खेहड़ जो बाद में प्रधान न्यायाधीश बने, की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अक्तूबर, 2015 में बहुमत के फ़ैसले से इसे निरस्त कर दिया था, परंतु बहुमत के निर्णय से असहमति व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर ने इस क़ानून को सही ठहराते हुए कॉलीजियम को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था।

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने तो कॉलीजियम व्यवस्था की कार्यशैली पर भी सवाल उठाये थे और इसकी बैठक और नामों के चयन की प्रक्रिया पर बाद में भी असहमति जाहिर की थी। न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने कॉलीजियम की बैठक में हिस्सा लेने के बजाय तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर को एक लंबा-चौड़ा पत्र लिखकर न्यायाधीशों के चयन की समूची प्रक्रिया में शामिल इस समिति की निष्पक्षता पर सवाल उठाये थे।

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के आरोप बहुत ही गंभीर थे क्योंकि यह प्रक्रिया तो न्यायाधीशों के चयन और उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया के मसले पर 1999 में राष्ट्रपति को दी गयी शीर्ष अदालत की राय के विपरीत लगती है।

कॉलीजियम व्यवस्था लागू होने से पहले उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्तियों का काम कार्यपालिका ही करती थी। लेकिन एसपी गुप्ता बनाम भारत सरकार प्रकरण में न्यायालय के 1982 निर्णय से स्थिति कुछ बदली और फिर अक्तूबर 1993 में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत सरकार प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का काम कार्यपालिका से अपने हाथ में ले लिया था।

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न्यायालय के इस निर्णय से स्थिति एकदम बदल गयी थी जिसे लेकर विवाद और असमंजस की स्थिति पैदा हुई। अतः इन फ़ैसलों से उत्पन्न स्थिति के मद्देनजर सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के जरिये सारे मामले पर 23 जुलाई, 1998 को उच्चतम न्यायालय से राय मांगी। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 28 अक्तूबर, 1998 को अपनी राय में कार्यपालिका को एकदम किनारे लगा दिया।

न्यायमूर्ति एसपी भरूचा, जो बाद में प्रधान न्यायाधीश भी बने, की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने इन सवालों पर राष्ट्रपति को अपनी विस्तृत राय दी और साथ ही इस काम के लिये नौ बिन्दु प्रतिपादित किये। यहाँ सबसे दिलचस्प बात यह है कि संविधान पीठ ने स्पष्ट किया था कि संविधान के अनुच्छेद 217:1ः के तहत प्रधान न्यायाधीश से परामर्श का तात्पर्य प्रधान न्यायाधीश की न्यायाधीशों के साथ परामर्श से बनी राय से है। न्यायालय ने कहा था कि प्रधान न्यायाधीश की अपनी अकेले की राय इस अनुच्छेद के तहत परामर्श का रूप नहीं लेती है।

  • न्यायाधीशों के स्थानांतरण के मामले की सिर्फ़ उसी स्थिति में न्यायिक समीक्षा हो सकती है कि प्रधान न्यायाधीश ने उच्चतम न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श के बग़ैर ही ऐसी सिफ़ारिश की हो या फिर संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय प्राप्त नहीं की गयी हो।
  • प्रधान न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का तबादले की सिफारिश शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करके ही करनी चाहिए। 
  • जहाँ तक उच्च न्यायालय में न्यायाधीश की नियुक्ति का सवाल है तो प्रधान न्यायाधीश को शीर्ष अदालत के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करके ही सिफ़ारिश करनी चाहिए। 
  • नियुक्ति के लिये किसी सिफ़ारिश पर अमल नहीं करने की स्थिति में भारत सरकार द्वारा भेजी गयी सामग्री और सूचना पर प्रधान न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों से परामर्श के बग़ैर अकेले ही कार्रवाई नहीं करेंगे।
  • प्रत्येक वरिष्ठ न्यायाधीश से परामर्श नहीं करने के सबंध में इसके कारण का जिक्र करना जरूरी नहीं है लेकिन सिफ़ारिश करने की सकारात्मक वजहों का उल्लेख करना ज़रूरी है।
  • जिन न्यायाधीशों से परामर्श किया गया उनकी राय लिखित में होनी चाहिए और उसे प्रधान न्यायाधीश को अपनी राय के साथ सरकार के पास भेजना चाहिए।
न्यायालय ने यह भी कहा था कि प्रधान न्यायाधीश के लिये सरकार के पास सिफ़ारिश करते समय इन मानदंडों और परामर्श की प्रक्रिया के लिये इनका पालन करना अनिवार्य है। सबसे अंत में संविधान पीठ ने कहा था कि इन मानदंडों और परामर्श की प्रक्रिया के अनिवार्य बिन्दुओं के पालन बग़ैर ही प्रधान न्यायाधीश द्वारा की गयी सिफ़ारिशें मानने के लिये सरकार बाध्य नहीं है।
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इतनी विस्तृत व्यवस्था के बावजूद न्यायमूर्ति चेलामेश्वर का यह आरोप गंभीर सवाल पैदा करता है कि दो व्यक्ति नामों का फ़ैसला करते हैं और फिर बैठक में समिति के अन्य सदस्यों से ही हाँ या नहीं में राय मांगी जाती है। उनका तो यहाँ तक कहना है कि इस मामले में ऐसा करने की वजह और इस संबध में दी गयी राय भी दर्ज नहीं की जाती है।

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि क्या कॉलीजियम की कार्यशैली आज भी इसी तरह की है या कॉलीजियम के प्रस्ताव न्यायालय की वेबसाइट पर डालने के अलावा इसमें कोई अन्य बदलाव भी आया है।

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के आरोप के परिप्रेक्ष्य में सवाल यह भी उठता है कि क्या 1998 में राष्ट्रपति को दी गयी सलाह पर न्यायाधीशों की समिति अक्षरशः पालन नहीं करती और यदि ऐसा है तो फिर इसकी वजह क्या है। यह भी सवाल उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि नौ सदस्यीय संविधान पीठ की राय में दी गयी सलाह का पालन नहीं होने के कारण न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव हो गया और यहाँ भी भाई-भतीजावाद का बोलबाला होने लगा।

उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायमूर्ति ताहिलरमानी के तबादले को लेकर उठे विवाद को शांत करने के लिये कॉलीजियम इसके कारणों का सार्वजनिक करेगी और न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाने के लिये उचित कदम उठायेगी।

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अनूप भटनागर
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