'फागुन के रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की।'
होली विशेष: फागुन के रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की
- विचार
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- 29 Mar, 2025

स्त्रियों की होली इस मामले में विशेष होती है कि आज के दिन न ऊँच-नीच का चलन रहता है न भेद-भाव का बर्ताव। चलन यह भी है कि इस साल में जिन जिन के यहाँ कोई गमी हो जाती है सबसे पहले रंग के छींटे डालने उनके ही घर जाना होता है और उन्हें अपने साथ लेकर चलते हैं और माना जाता है कि आज से इस घर का शोक समय ख़त्म हुआ।
ऊपर लिखी पंक्तियाँ शायर नज़ीम अकबरावादी की हैं। ये पंक्तियाँ बसन्त के मधुमय दिनों में अनायास ही तुम्हारी-हमारी ज़ुबानों पर मचलने लगती हैं। फागुन महीना नशीला होता है, ऐसा माना ही नहीं जाता, महसूस भी किया जाता है। माना तो यह भी जाता है कि ब्रज जैसी फगुनई हवा कहीं नहीं बहती। जमुना जैसी नदी कहाँ मिलेगी? कृष्ण की भूमि प्रीति में रची बसी है, सो बस ब्रजभूमि में मनाई जाने वाली होली भी अपने आप में असीम आनन्ददायिनी होती है। क्या यही बात है कि आस पास के इलाक़ों में फैले राज रजवाड़ों ने भी ब्रज के असर में होली मनाई और शायरों ने फागुन के गीत गाये?
मैत्रेयी पुष्पा जानी-मानी हिंदी लेखिका हैं। उनके 10 उपन्यास और 7 कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'चाक'