पाँच जनवरी को देश में लोकतंत्र की मौत हो गयी। यह दुखद है, लेकिन सच है। हिंसा का जो तांडव देर रात जेएनयू में हुआ, उस पर मेरे पास कहने के लिये इस से ज़्यादा असरदार शब्द नहीं है। जो हुआ, देश ने देखा। लाइव टीवी पर इसकी तसवीरें सब के पास पँहुचीं। सोशल मीडिया पर वाइरल हुईं और हम जैसे नागरिक बेबस बस देखते रहे। ऐसी बेबसी का एहसास शायद ही कभी महसूस किया हो।

यह वही भीड़ है जो जेएनयू के बाहर गेट पर सिविल सोसायटी और मीडिया को धमकाती है और पुलिस की मौजूदगी में कहती है -’देश के ग़द्दारों को, गोली मारों सालों को।’ गोली लोकतंत्र में नहीं मारी जाती है। फ़ायरिंग स्क्वैड तो हिटलर की जर्मनी और स्टालिन के सोवियत संघ में थे।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।