देश में लॉकडाउन को लगे क़रीब दो महीने हो रहे हैं। इन दो महीनों में क्या कोरोना से लड़ाई में देश जीता या हारा, यह सवाल उठना चाहिये। साथ ही यह भी सवाल पूछा जाना चाहिये कि प्रधानमंत्री ने 21 दिनों में कोरोना को हराने का जो वचन देश को दिया था, उस वचन का क्या हुआ? क्या आज देश 24 मार्च से ज़्यादा सुरक्षित महसूस कर रहा है या फिर संकट बढ़ गया है? और अगर संकट बढ़ा है तो क्यों और कौन इसके लिये ज़िम्मेदार है?

यह मैं मानता हूँ कि लॉकडाउन कोरोना का समाधान नहीं है लेकिन लॉकडाउन लगाकर जो तैयारी इस बीच करनी चाहिये थी वह नहीं की गयी। हम पश्चिम के देशों से तुलना नहीं कर रहे हैं, पर भारत जैसे 135 करोड़ के देश में डेढ़ महीने से अधिक का वक़्त लग जाए प्रतिदिन एक लाख टेस्ट करने में तो आप समझ सकते हैं कि देश किस ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने 25 मार्च को अपने चुनाव क्षेत्र बनारस के लोगों से बातचीत करते हुए कहा था, ‘18 दिनों में महाभारत जीता गया था। कोरोना को जीतने के लिये वो देश से 21 दिन माँग रहे हैं।’ यानी मोदी को यह भरोसा था कि कोरोना का संकट कोई भयानक संकट नहीं है और वह 21 दिन में इस संकट पर क़ाबू पा लेंगे। उनका अंदाज़ सुभाष चंद्र बोस वाला था - ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’। तुम मुझे 21 दिन दो मैं तुम्हे कोरोना मुक्त भारत दूँगा। मोदी की वक्तृत्वकला की मुरीद पूरी दुनिया है। यह वह वक़्त था जब देश उनसे उम्मीद कर रहा था कि वह महामानव की अपनी छवि के अनुरूप देश को कोरोना के संकट से उबार देंगे। उनके भक्त शायद पूरी तरह से आश्वस्त थे कि मोदी के रहते कोरोना देश का बाल भी बाँका नहीं कर सकता। पर दो महीने बाद आज स्थिति वह नहीं है, भक्तों की बॉडी लैंग्वेज ढीली पड़ गयी है, बड़ी-बड़ी डींगें मारने वाले रक्षात्मक मुद्रा में हैं।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।