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दलितों-पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के लिए क्या है नई शिक्षा नीति में?

कोई भी पॉलिसी लम्बे समय तक रास्ता दिखाने के लिए बनाई जाती है। हमें यह मान लेना चाहिए कि अगर आज कोई पॉलिसी आई है तो वह कल ही नहीं लागू हो जाएगी। इसलिए नई शिक्षा नीति पर इतना उत्साह दिखाने का कोई बड़ा औचित्य नहीं दिखाई देता। 

नई शिक्षा नीति पर सरकार को बहुत सराहा जा रहा है। परन्तु यह रिपोर्ट सामाजिक न्याय पर एक गहरी चोट है। 477 पेज की अँग्रेज़ी की ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार एससी-एसटी, ओबीसी को 66 लाइनों में निपटा दिया गया है, पेज 148-150 तक।
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अगर पेज 150-151 पर अल्पसंख्यकों पर 70 लाइनों को और जोड़ दिया जाये तो एक मोटे अनुमान के अनुसार 100 करोड़ की जनता के लिए केवल 136 लाइनों में शिक्षा की व्यवस्था कर दी गयी है।

क्या है दलितों-पिछड़ों के लिए?

यह तो रही ड्राफ्ट की बात, नीति का फ़ाइनल स्वरूप दलितों और पिछड़ों के लिए क्या लाया है, इसकी भी पड़ताल की जाये।
नई शिक्षा नीति के अंतिम रूप में जो सबसे भयावह तथ्य देखने में आया है वह है 14वें अध्याय में। 'उच्चतर शिक्षा में समता और समावेश' में अनुसूचित जाति-जनजाति, ओबीसी और अल्पसंख्यक जैसी अस्मिताओं को हटा दिया गया है। ये सब अस्मिताएँ प्राइमरी और सेकेंडरी शिक्षा वाले अध्याय में रखी गयी हैं। नई शिक्षा नीति की ड्राफ्ट रिपोर्ट में भी ये सब अस्मिताएँ थीं। ऐसा क्या हुआ कि इन संवैधानिक समूहों की अस्मिताओं को ख़त्म करके उनकी जगह 'सामाजिक-आर्थिक वंचित' अस्मिता का प्रयोग किया जा रहा है?

संविधान की भावना के विरुद्ध?

भला संविधान में परिभाषित समूहों को सरकार अपने नीतिगत दस्तावेज़ से कैसे हटा सकती है? आख़िर जब सामाजिक न्याय के तहत अधिकारों को और विशिष्ट अधिकारों- जैसे आरक्षण को इन समूहों को दिया जाना होगा तो आप यह अधिकार कैसे सुनिश्चित करेंगे? यह दस्तावेज़ कहीं संविधान की भावना के विरुद्ध तो नहीं जा रहा है? 

अब प्रश्न उठता है कि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों को एक साथ रखने का क्या औचित्य है? यह सर्व विदित है कि तीनों की सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक वंचना का आधार अलग-अलग है। ऐसी अवस्था में आप उनकी वंचनाओं को चिन्हित कर दूर कैसे करेंगे, यह भी दस्तावेज़ से स्पष्ट नहीं है।

पिछड़ेपन की वजह?

एक अन्य हास्यास्पद तथ्य नई शिक्षा नीति के अंतिम रूप में दस्तावेज़ में है इसकी पड़ताल कि सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित बच्चे शिक्षा से वंचित क्यों रह जाते हैं। शिक्षा नीति एक बार भी खुले रूप में इन समाजों के प्रति जातीय भेद-भाव को इसका कारण नहीं बताती है। उसके लिए उच्च वर्णों में व्याप्त वैमनस्य को भी शैक्षणिक वंचना का कारण नहीं मानती।
उच्च शिक्षा में वंचना के कारणों को चिन्हित करते हुए नई शिक्षा नीति कहती है कि उच्च शिक्षा से वे इसलिए बाहर हो जाते हैं क्योंकि-उनके पास अवसरों की जानकारी नहीं होती, शिक्षा ग्रहण करते समय उनको आर्थिक हानि होती है, आर्थिक बाधाएँ, भौगोलिक बाधाएँ, भाषाई अवरोध, जटिल प्रवेश प्रकियाएँ, रोज़गार के अवसरों की कमी, उपयुक्त सहायता तंत्र की कमी।
दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की शैक्षणिक वंचना के कुछ विशिष्ट कारण होते हैं। अब आप ही फ़ैसला कीजिए कि नीति के अंतिम रूप में यह विशिष्ट कारण चिन्हित होने चाहिए या नहीं।

अपनी विरासत?

ड्राफ्ट रिपोर्ट में एक अन्य तथ्य जिस पर प्रकाश डालना आवश्यक है, वह है 'अपनी विरासत से प्रेरणा लेना।' रिपोर्ट में  (पृष्ठ 25-26) पर लिखा है कि हमें अपनी विरासत से सीख लेनी होगी। इस विरासत में केवल विवेकानंद, चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, भाष्कराचार्य, चाणक्य, पतंजलि, पाणिनी आदि के नाम के उदाहरण दिए गये हैं।
बाद में बिना किसी श्रोत, बिना किसी सन्दर्भ और बिना किसी मंतव्य के, ड्राफ्ट रिपोर्ट में अमेरिका में चीन के राजदूत को उद्धृ्त किया गया है। इस राजदूत ने कहा कि, 'भारत ने सरहदों के पार एक सैनिक भेजे बग़ैर ही चीन पर जीत हासिल की और चीन पर 20 शताब्दियों तक सांस्कृतिक रूप से वर्चस्व बनाए रखा।’ 
नई शिक्षा नीति के अंतिम रूप में उपरोक्त के साथ साथ गार्गी, मैत्रेयी, नागार्जुन, तिरुवल्लुवर, गौतम, पिंग्ला, शंकरदेव के  नाम भी जोड़ दिए हैं।
इस सन्दर्भ में सामाजिक संरचना में सबसे निचले क्रम में जिनको जगह दी गयी है वे पूछ रहे हैं कि क्या बुद्ध, चार्वाक, आजीवक, रैदास, कबीर और दादू आदि भारत की विरासत का हिस्सा नहीं हैं?
बुद्ध के साथ-साथ उन्होंने दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए शिक्षा का मार्ग दिखाया। जातिवाद, पाखंड, खंडित-अस्मिता पर गर्व करना, श्रम पर गौरव, समतामूलक समाज की अवधारणा आदि सिखायी। आधुनिक काल में फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार, बाबासाहेब आंबेडकर आदि ने दलितों, पिछड़ों, आदि को शिक्षा का महत्व ही नहीं बताया, बल्कि समाज के वंचित तबके के लिए स्कूल खोले, छात्रवृत्तियाँ दीं। सावित्री बाई फुले को आप कैसे भूल सकते हैं? वह वंचित तबके की पहली महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने अस्पृश्य महिलाओं को शिक्षा दी और उनके उत्थान के मार्ग को बताया।
अब आप ही फ़ैसला कीजिए कि क्या एक समावेशी शिक्षा नीति के लिए उपरोक्त विभूतियों के नामों का ज़िक्र इस रिपोर्ट में नहीं होना चाहिए? क्या हमारी सरकारें और शिक्षाविद इन विभूतियों से कुछ भी नहीं सीख सकते?

वोकेशनल एजुकेशन

नयी शिक्षा नीति के ड्राफ्ट दस्तावेज़, अध्याय -20, पेज 357-72 तथा नयी शिक्षा नीति के अंतिम रूप में अध्याय (पृष्ठ 43-44) व्यावसायिक शिक्षा (वोकेशनल एजुकेशन) पर है। इसमें लक्ष्य निर्धारित किया गया है कि स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी 2025 तक अपने सभी विद्यार्थियों में से 50% विद्यार्थियों तक व्यावसायिक शिक्षा की पहुँच बनाएँगी। आगे यह भी कहा गया है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) तक 5% से कम भारतीय कामगार जो कि 19-24 वर्ष की आयु में आते हैं, उनको औपचारिक शिक्षा मिल पाती थी। अब आप ही फ़ैसला कीजिए कि क्या यह लक्ष्य व्यावहारिक है?
भारतीय शिक्षा व्यवस्था जो 72 वर्षों में 5% से भी कम विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा दे पाई है, वह 2025 अर्थात अगले 5 वर्षों में 50% विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा कैसे उपलब्ध करा पाएगी? क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? यह दिवास्वप्न है, कभी न पूरा होने वाला लक्ष्य।

व्यावसायिक शिक्षा

व्यावसायिक शिक्षा से ही जुड़ा एक दार्शनिक प्रश्न है। वह है, जिस समाज में हाथ के काम को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं दी गयी, और हमेशा हेय दृष्टि से देखा गया है, उस समाज में व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए लोगों को कैसे प्रेरित किया जाएगा? यह यक्ष प्रश्न है। क्या उच्च वर्ण के समाज के अभिभावक अपने बच्चों को प्राचीन काल से चले आ रहे जाति से जुड़े व्यवसायों को स्कूल, कॉलेज, और यूनिवर्सिटी में चयन करने की इजाज़त देंगे?
सरकार, सरकारी और प्राइवेट स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी को जाति से जुड़े व्यवसायों को भी पाठ्यकर्म में शामिल करने का कड़ा क़ानून बनाएगी? 
कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा कि समाज की जाति-आधारित व्यवसायिक व्यवस्था आधुनिक भारत के स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पुन: स्थापित हो जाएगी?
आप स्कूली बच्चों को और कॉलेज के नौजवानों को लोहे से, लकड़ी से, मिट्टी से, कपड़े से, चमड़े आदि-आदि से जुड़े व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण कर रहे बच्चों को जातिसूचक शब्दों का प्रयोग कर उनका उपहास करने से कैसे रोक पाएंगे? अगर ऐसा होता है तो आने वाले समय में पूरी शिक्षा व्यवस्था में बड़ी असहज स्थिति का निर्माण हो जाएगा।  

शिक्षा पर खर्च

शिक्षा नीति की एक और बात जो कोरी कल्पना लगती है, वह है सरकार द्वारा शिक्षा पर जल्द से जल्द जीडीपी का  6 प्रतिशत खर्च करने का लक्ष्य। आज़ादी के 72 वर्षों में अब तक हम 4.4 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च कर पाए हैं, वर्तमान में हमारी अर्थव्यवस्था की हालत वैसे ही ख़स्ता है तो हम निकट भविष्य में 6 प्रतिशत तक कैसे पहुँच पाएँगे?
कुल मिला कर वंचितों के लिए कुछ भी नया नहीं है। हाँ अगर कोई नया डर है तो वह यह है कि जो कुछ है, वह भी ना खो जाये।
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प्रो. विवेक कुमार
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