राजनीति में कब हवा बदल जाए, कब क़िस्मत पलट जाए, पता नहीं चलता। शायद इसीलिए कहा गया है कि राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। इस वक़्त भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ़ लगातार ऊपर की तरफ़ ही चल रहा है। लेकिन दूसरी तरफ़ उनकी सरकार के लिए एक के बाद एक चुनौतियाँ खड़ी होती जा रही हैं।

सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने का विरोध करनेवाले सिर्फ़ राजनीतिक दल नहीं हैं। अभी तो सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं इन कंपनियों के कर्मचारी जिनमें सरकार ने अपनी सारी या कुछ हिस्सेदारी बेचने का फ़ैसला किया है। लेकिन आगे चलकर ट्रेड यूनियन और विपक्षी दल भी इसे जनता के बीच ले जाएँगे। क्या यह प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के लिए एक और बड़ी चुनौती नहीं होगी?
चुनावी चंदे के बॉन्ड और पाँच सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने के एलान के बाद जिस अंदाज़ में सवाल उठ रहे हैं उससे यह शंका होना स्वाभाविक ही है कि इनमें से कोई मामला कहीं इस सरकार के गले की हड्डी न बन जाए। चुनावी बॉन्ड पर तो विपक्ष पहले से ही सवाल उठा रहा था और अब हफिंगटन पोस्ट ने जो ख़बर छापी है उससे यह साफ़ दिखता है कि चुनावी बॉन्ड के मुद्दे पर जो बवंडर उठ रहा है वह सरकार के ख़िलाफ़ तूफ़ान में बदलने की पूरी संभावना रखता है। आरटीआई के ज़रिए जो जानकारी निकली उसमें सवाल सीधे बीजेपी और सरकार के शीर्ष पर बैठे लोगों पर ही उठ रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या विपक्ष इस हाल में है कि वह इस मुद्दे को जनता के बीच पहुँचाकर उसकी नाराज़गी जगा पाएगा?