चर्चा हिन्दू और हिन्दुत्व की हो रही है। एक ऐसे पहचान से जोड़ने और जुड़ने की हो रही है जिनसे जुड़े रहकर भी अनुसूचित जाति समुदाय का कभी भला नहीं हुआ। यही हाल आदिवासियों का है। अंग्रेजों ने इन समूहों को वर्ग के रूप में चिन्हित नहीं किया होता तो क्या कभी इस वर्ग से जुड़े लोग इंसान भी समझे जाते? यह चिंता भी है और सवाल भी, उन लोगों से जो आज दावा कर रहे हैं कि 40 हजार साल से हिन्दुओं का डीएनए एक है।
हिन्दू-हिन्दुत्व की बहस में कहां है वंचित तबका?
- विचार
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- 23 Dec, 2021

प्रतीकात्मक तसवीर।
मोहन भागवत जब यह कहते हैं कि देश के हिन्दू-मुसलमान सबका डीएनए एक है तो इसके क्या मायने हैं? क्या इसमें दलित, आदिवासी और मुसलमानों का समावेशी विकास भी शामिल है?
डॉ. भीमराव आंबेडकर का यह स्पष्ट मानना था कि कि बगैर आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र के राजनीतिक लोकतंत्र अधूरा है। यह तभी संभव है जब वंचित तबक़े को विकास के लिए बने सामान्य तरीक़ों का फायदा तो मिले ही, विशेष तौर पर भी वंचित तबक़े को फायदा पहुँचाने के लिए रास्ते निकाले जाएँ। लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता।