पालघर में पिछले दिनों गाँववालों द्वारा दो साधुओं की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई और कुछ लोगों की शिकायत है कि इस घटना की उतनी निंदा क्यों नहीं की जा रही जितनी दादरी (अख़लाक़) या दूसरे मामलों की गई थी। उनकी शिकायत है कि इस मामले को भी उतना क्यों नहीं उछाला जा रहा है जितना उन दूसरे मामलों को उछाला गया था जिनमें मरने वाले मुसलमान थे।
पालघर और दादरी की मॉब लिंचिंग में फ़र्क़ क्या है?
- विचार
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- 23 Apr, 2020

पालघर में साधुओं की हत्या की घटना दादरी में अख़लाक़ को मार डालने की घटना से पूरी तरह अलग है। क्योंकि पालघर की घटना के बाद देश भर में कहीं भी साधुओं या चोरों पर हमले नहीं हुए। लेकिन दादरी जैसी घटनाओं के बाद दो समूहों के बीच नफ़रत और अविश्वास की बीमारी तेज़ी से फैलती है। जब भी कोई मॉब लिंचिंग किसी ख़ास समुदाय, जाति, समूह या धर्म के आधार पर होती है, तो वह मामला अलग हो जाता है।
ये सवाल कौन लोग उठा रहे हैं, इस पर हम नहीं जाएँगे। सही या ग़लत, एक सवाल उठाया गया है और उसका जवाब देना बनता है। पालघर और दादरी के मामले में कुछ समानता है तो कुछ असमानता भी। समानता यह है कि दोनों ही मामलों में स्थानीय लोगों ने भीड़ का क़ानून चलाया। कुछ लोगों को लगा कि ये लोग गुनहगार हैं और उन्हें सज़ा मिलनी चाहिए और उन्होंने वहीं-के-वहीं उन्हें सज़ा दे दी। अभियुक्तों को अपनी सफ़ाई देने का मौक़ा तक नहीं दिया गया।
नीरेंद्र नागर सत्यहिंदी.कॉम के पूर्व संपादक हैं। इससे पहले वे नवभारतटाइम्स.कॉम में संपादक और आज तक टीवी चैनल में सीनियर प्रड्यूसर रह चुके हैं। 35 साल से पत्रकारिता के पेशे से जुड़े नीरेंद्र लेखन को इसका ज़रूरी हिस्सा मानते हैं। वे देश