राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को महान समन्वयवादी संगठन बताने वाले बौद्धिक हैरान होंगे कि नागपुर से दिल्ली तक और दिल्ली से लखनऊ तक क्या घमासान मचा हुआ है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि जिस राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वे विचार और नेतृत्व के अंतर्विरोध को संभालने वाला एक परिपक्व संगठन बता रहे थे उसके भीतर यह हो क्या रहा है। अब यह दावा कमजोर पड़ रहा है कि संघ ऐसा संगठन है जो मंडल की राजनीति को भी अपने भीतर समाहित कर सकता है और मंदिर की राजनीति तो उसकी अपनी है ही। वह डॉ. आंबेडकर को भी संभाल सकता है, डॉ. लोहिया को भी और हेडगेवार और सावरकर को भी। वह क्षेत्रीय राजनीति को भी संभाल सकता है और राष्ट्रीयता की राजनीति पर तो उसका एकाधिकार ही है। वह संविधान की शपथ भी ले लेगा और मनुस्मृति को भी विश्वविद्यालय में पढ़ाने का प्रस्ताव रखवाएगा। वह जातियों की सोशल इंजीनियरिंग भी करेगा और यह भी दावा करता रहेगा कि भारत में जातियों की संरचना अंग्रेजों ने की है। वरना इस देश में जातिगत भेदभाव था ही नहीं। वह कम्युनिस्टों, ईसाइयों और मुसलमानों को तीन आंतरिक शत्रु भी बताएगा और फिर सभी के भीतर प्रेम और सद्भाव विकसित करने की योजना भी प्रस्तुत करेगा।