दुनिया के लोकतांत्रिक मुल्कों का ध्यान इस समय भारत की कथित आर्थिक तरक़्क़ी पर नहीं बल्कि इस बात पर है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मई 2014 में सत्ता में आने के बाद पहली बार इतने निर्णायक तरीक़े से राजनीतिक चुनौती मिल रही है और सत्तारूढ़ दल में 2024 के परिणामों को लेकर एक तरह की बेचैनी है।
‘भारत जोड़ो यात्रा’ क्या नई यात्रा को जन्म देगी?
- विश्लेषण
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- श्रवण गर्ग
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- 24 Sep, 2022


श्रवण गर्ग
पिछले एक दशक के दौरान योजनाबद्ध तरीक़े से इतना कुछ बदल कर नागरिकों के जीवन में स्थापित कर दिया गया है कि इस एक यात्रा से ज़्यादा बदलने वाला नहीं है। यात्रा और उसकी उपलब्धियों को विफल करने और नकारने के लिए तमाम तरह की ताक़तें जुट गईं हैं, संगठित हो गईं हैं।
बाहरी दुनिया देखना चाह रही है कि प्रधानमंत्री सामने खड़ी चुनौती से कैसे निपटते हैं, उनका अगला कदम क्या हो सकता है ? और यह भी कि उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदम कितने राजनीतिक और लोकतांत्रिक होंगे ? इंदिरा गांधी के जमाने के ‘आपातकालीन’ उपाय तो आज़ादी के ‘अमृतकाल’ में नहीं दोहराए जाएँगे ? देश की जनता अपने प्रधानमंत्री से राष्ट्र के नाम अचानक से दिए जाने वाले संदेशों के ज़रिए ही ज़्यादा परिचित है।
वे तमाम लोग जो इस समय सत्ता के शीर्ष पर हैं, इस हक़ीक़त को महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि पिछले आठ-साढ़े आठ सालों के दौरान एक-एक करके काफ़ी लोगों को नाराज़ कर दिया गया है। नाराज़ लोगों की बढ़ती हुई भीड़ में सिर्फ़ एनडीए के घटक, विपक्षी पार्टियाँ और ‘गांधी परिवार’ के सदस्य ही नहीं हैं बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा के कई नेता और कार्यकर्ता भी शामिल हैं जिन्हें उनके वर्षों के संघर्ष के पुरस्कार स्वरूप हाशियों पर पटक दिया गया है।
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