नेशनल हेराल्ड केस एक बार फिर सुर्खियों में है। प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के खिलाफ चार्जशीट दायर कर दी है। इसे लेकर कांग्रेस सड़कों पर है, और सरकार पर राजनीतिक बदले की कार्रवाई का आरोप लगा रही है। यह सवाल जितना गांधी परिवार का है, उससे कहीं ज़्यादा देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं की साख और सत्ता के चरित्र का है।

नेशनल हेराल्ड की कहानी महज़ एक अख़बार की नहीं, बल्कि उस विचारधारा की भी है जो भारत की आज़ादी की लड़ाई में पत्रकारिता को हथियार बनाकर लड़ी गई थी। नेशनल हेराल्ड जवाहरलाल नेहरू का सपना था। उन्होंने 1937 में एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) की स्थापना की जिसमें पुरुषोत्तम दास टंडन, गोविंद वल्लभ पंत, रफ़ी अहमद किदवई जैसे कई बड़े नेता निदेशक मंडल में रखे गये और पाँच हज़ार स्वतंत्रता सेनानियों को इसका शेयरधारक बनाया गया। लखनऊ को मुख्यालय बनाते हुए 1938 में इस कंपनी ने अंग्रेज़ी में ‘नेशनल हेराल्ड’ का प्रकाशन शुरू किया। हिंदी में नवजीवन और उर्दू में क़ौमी आवाज़ भी निकाला गया। ये अख़बार अंग्रेज़ों के खिलाफ मुखर आवाज बना और कांग्रेस विचारधारा का प्रतिबिंब भी। स्वतंत्रता के बाद भी इसका संचालन इन्हीं मूल्यों पर आधारित रहा, लेकिन व्यावसायिक सफलता इसके हिस्से नहीं आई। पत्रकारों और कर्मचारियों को वेतन देना मुश्किल होने लगा।