उत्तर प्रदेश के आगामी उपचुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। वैसे तो अभी सात राज्यों के तेरह उपचुनावों में से भाजपा महज दो जीत पाई। यह एक तरह से लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगे झटके का जारी रहना ही है और उसका अगला चरण था। लेकिन उत्तरप्रदेश के उपचुनाव राष्ट्रीय राजनीति के मौजूदा मोड़ पर खास अहमियत रखते हैं। दरअसल, यूपी आमतौर पर तो देश का राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य माना ही जाता है, संघ भाजपा के नक्शे में भी पिछले दस साल से उसकी विशेष जगह बनी हुई है। सच्चाई यह है कि पिछले दस साल से मोदी दिल्ली में सत्तारूढ़ हैं तो उसका श्रेय यूपी को जाता है और इस बार अगर वे बहुमत से दूर रह गए तो उसका श्रेय भी यूपी को ही जाता है। बल्कि यह अजीब संयोग है कि पिछली बार से जितनी सीटें उन्हें कम मिलीं, लगभग उतनी ही सीटों से वे बहुमत से चूक गए। इसलिए उत्तरप्रदेश के उपचुनाव बेहद अहम हो गए हैं। इससे निकलने वाले संदेश कई दृष्टियों से बेहद मानीखेज होंगे। वे यह बताएंगे कि यूपी में भाजपा अपनी खोई जमीन पुनः हासिल करने की ओर बढ़ रही है अथवा उसकी ढलान जारी है। हाल ही में हुए अन्य उपचुनाव परिणामों के साथ मिलकर वे यह भी बताएंगे कि भाजपा के सियासी ग्राफ में हो रहा बदलाव कोई राष्ट्रीय परिघटना है या महज कुछ राज्यों का अपवादस्वरूप मामला है। इन नतीजों से यह भी पता लगेगा कि विपक्षी इंडिया गठबंधन लोकसभा चुनाव में यूपी में मिले मोमेंटम को जारी रख पाता है या नहीं। यह भी पता लगेगा कि संविधान रक्षा का लोकसभा का चुनाव जिताऊ मुद्दा अब कितना कारगर है। इन चुनावों के नतीजे योगी आदित्यनाथ की तकदीर का भी फैसला कर सकते हैं, गुटीय लड़ाई में मोदी शाह उन्हें किनारे लगा देंगे या वे और ताकतवर बनकर उभरेंगे और आरएसएस के सहयोग से दिल्ली की सत्ता के चैलेंजर बन जायेंगे। जाहिर है इस पूरे घटनाक्रम का असर आगामी तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों तथा यूपी के अगले विधानसभा चुनाव तक जा सकता है।