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प्रतीकात्मक और फाइल फोटो

वन अधिकार आज भी है बड़ा चुनावी मुद्दा, भूमि विवादों का भी बड़ा कारण है यह

भारत में वन अधिकार अब भी एक प्रमुख चुनावी मुद्दा है। अंग्रेजी अखबार द हिंदू की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में एक तिहाई भूमि विवाद उन निर्वाचन क्षेत्रों में हैं जहां वन अधिकार प्रमुख चुनावी मुद्दा हैं। इसका मतलब यह है कि अगर इन निर्वाचन क्षेत्रों में वन अधिकार से जुड़े मुद्दों का समाधान कर दिया जाए तो बड़ी संख्या में भूमि विवादों का समाधान हो सकता है। 
द हिंदू की इसको लेकर छपी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में भूमि-संबंधी विवादों के एक व्यापक डेटाबेस, लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच के एक विश्लेषण के अनुसार, लगभग एक तिहाई भूमि-संबंधित संघर्ष उन संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में होते हैं, जहां वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) का कार्यान्वयन एक "महत्वपूर्ण" चुनावी मुद्दा है। 
इस डेटाबेस के मुताबिक 781 विवादों में से, 264 संघर्षों को उन निर्वाचन क्षेत्रों में मैप किया गया था जहां  वन अधिकार अधिनियम एक प्रमुख मुद्दा है। 12 अप्रैल को जारी इस विश्लेषण में पाया गया कि 117 भूमि संघर्ष सीधे वनवासी समुदायों को प्रभावित करते हैं और इसमें लगभग 2.1 लाख हेक्टेयर भूमि के साथ-साथ 6.1 लाख प्रभावित हैं। 
इन 117 संघर्षों में से लगभग 44 प्रतिशत संघर्ष संरक्षण और वानिकी परियोजनाओं, जैसे कि वृक्षारोपण और इसमें शामिल वन प्रशासन के कारण उत्पन्न हुए थे। इस विश्लेषण को तैयार करने वाले लेखकों में से एक अनमोल गुप्ता कहते हैं कि आंकड़ों से पता चलता है कि ऐसे संघर्षों में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पक्ष वन विभाग है।
रिपोर्ट कहती है कि लगभग 88  विवादों में वन अधिकार अधिनियम या एफआरए के प्रमुख प्रावधानों का कार्यान्वयन नहीं हुआ या उल्लंघन होना शामिल है। 

इस तरह के भूमि संघर्ष के अन्य कारणों में भूमि अधिकारों पर कानूनी संरक्षण की कमी, जबरन बेदखली, भूमि से बेदखली हैं। इनमें से लगभग 110 संघर्ष अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में और 77 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में हैं। 

रिपोर्ट कहती है कि महाराष्ट्र, ओडिशा और मध्य प्रदेश में 20 प्रतिशत से अधिक मतदाता  वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत मिले अधिकारों का दावा करने के पात्र हैं। वहीं ओडिशा, छत्तीसगढ़ और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर ऐसे राज्य हैं जहां वन अधिकार के मुद्दों से जुड़े विवादों की संख्या काफी ज्यादा है। 

केंद्र सरकार  के नवीनतम अनुमानों में कहा गया है कि फरवरी 2024 तक, देश भर में आदिवासियों और वनवासियों को 2.45 मिलियन टाइटल दिए गए हैं। जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने बताया कि इसी अवधि तक स्वामित्व के लिए 50 लाख दावे प्राप्त हुए हैं, जिनमें से लगभग 34 प्रतिशत दावे खारिज कर दिए गए हैं।
इस महीने शुरू होने वाले चुनावों से पहले  कांग्रेस पार्टी ने एक 'आदिवासी घोषणापत्र' या 'आदिवासी संकल्प' पेश किया है जिसमें छह गारंटी शामिल हैं। इसमें कांग्रेस ने कहा है कि अगर उसकी सरकार बनी तो एक वर्ष के भीतर लंबित एफआरए दावों का त्वरित निपटान किया जायेगा। अस्वीकृत दावों की समीक्षा की जायेगी। 

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वन रिकॉर्ड को अपडेट करने के लिए लिखा 

पिछले महीने, पर्यावरण और जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों को पीएम जनमन योजना के तहत लाभ प्राप्त करने के लिए वन अधिकारों का निपटान सुनिश्चित करने के लिए राजस्व और वन रिकॉर्ड को अपडेट करने के लिए लिखा था। 
इसका उद्देश्य जनजातीय समूहों के कुछ वर्गों को घरों, स्वच्छ पेयजल, स्वच्छता और स्वास्थ्य तक पहुंच प्रदान करना है।एफआरए, जिसे आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के रूप में जाना जाता है, कानून का एक हिस्सा है जो आदिवासी समुदायों और वन में रहने वाले नागरिकों को उनके द्वारा कब्जा की गई वन भूमि पर कानूनी अधिकारों का दावा करने में सक्षम बनाता है। 

यह ग्राम सभाओं या ग्राम परिषदों को यह निर्णय लेने का अधिकार देता है कि उनकी वन भूमि का सर्वोत्तम उपयोग कैसे किया जा सकता है। गैर-वानिकी उपयोग के लिए वन भूमि के किसी भी हस्तांतरण के लिए अब उनकी सहमति की आवश्यकता होगी। 

हालाँकि एफआरए का कार्यान्वयन विवादास्पद रहा है। बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग कहते हैं कि इस कानून के बाद भी उन्हें उनका अधिकार नहीं मिला है। एफआरए वह मानदंड निर्धारित करता है जिसके तहत आदिवासी अपनी भूमि पर स्वामित्व का दावा कर सकते हैं। 

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एफआरए के कार्यान्वयन में हैं कई बाधाएं

दूसरी तरफ कई विश्लेषकों और शोधकर्ताओं का मानना है कि वन से जुड़ी  नौकरशाही द्वारा बाधाएं,  वन संरक्षण अधिनियम और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम जैसे अन्य अधिनियमों के प्रावधानों ने एफआरए के उचित कार्यान्वयन में बाधाएँ उत्पन्न की हैं। 
द हिंदू की रिपोर्ट में कहा गया है कि, वर्तमान अध्ययन जनवरी में पीपुल्स फॉरेस्ट रिपोर्ट कहे जाने वाले पूर्व के अध्ययन पर आधारित है, जिसमें पाया गया है कि भारत के 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में से 153 ऐसे हैं जहां वन अधिकारों का निपटान एक प्रमुख मुद्दा हो सकता है, जो उनके मतदान निर्णयों को प्रभावित कर सकता है। 
2019 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा ने इनमें से 103 निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की थी, जबकि कांग्रेस ने इनमें से केवल 11 सीटों पर जीत हासिल की।  एसटी के लिए आरक्षित 42 निर्वाचन क्षेत्रों में, भाजपा ने 31 (73.81 प्रतिशत) सीटें जीतीं थी और कांग्रेस ने केवल 3 (7.14 प्रतिशत) सीटें जीतीं थी। 
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