वह एक बाग़ी शहजादा था जिसने अपनी मोहब्बत के लिए मुल्क की सल्तनत छोड़ दी थी और हिंदुस्तान के सबसे ताक़तवर बादशाह से टकराने की हिम्मत दिखाई थी। अगर 'मुग़ल-ए-आज़म' में अकबर की भूमिका अदा कर रहे पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आँखों के मुक़ाबले सलीम बने दिलीप कुमार की कौंधती हुई निगाहें नहीं होतीं तो शायद फ़िल्म का जादू कुछ बुझ जाता- इन्हीं निगाहों ने अनारकली यानी मधुबाला की सहमी हुई आँखों को वह राहत, तसल्ली और ताक़त दी जिसके बूते उसने कहा था- ‘यह कनीज हिंदुस्तान के बादशाह को अपने क़त्ल का जुर्म माफ़ करती है।’
दिलीप कुमार: वे कौंधती हुई आँखें, वह लरजती हुई आवाज़
- श्रद्धांजलि
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- 7 Jul, 2021


अगर 'मुग़ल-ए-आज़म' में अकबर की भूमिका अदा कर रहे पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आँखों के मुक़ाबले सलीम बने दिलीप कुमार की कौंधती हुई निगाहें नहीं होतीं तो शायद फ़िल्म का जादू कुछ बुझ जाता।
अगर जीवन का मर्म समझें तो 100 साल को छूती उम्र में दिलीप कुमार का जाना शोक का विषय नहीं है। उन्होंने एक भरा-पूरा जीवन जिया। उनका जिस्म लगभग एक सदी का बोझ उठाते काफ़ी थक चुका था और उनकी रूह ने भी कटता-छंटता बदलता हिंदुस्तान देखा था। वे यूसुफ़ ख़ान से दिलीप कुमार बने और नए-नए आज़ाद हुए हिंदुस्तान की कल्पना पर छा गए। बँटवारे के बाद निर्देशक के. आसिफ़ जिस फ़िल्म को अगले बारह-तेरह बरस तक बहुत जतन से, तराश-तराश कर- बनाते रहे, वह दरअसल एक तरह से उस मध्यकालीन हिंदुस्तान की मिली-जुली संस्कृति का तहज़ीबी स्मारक भी थी जिसे बँटवारे ने सबसे ज़्यादा तोड़ा था।



























