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प्रिंस्टन के प्रोफेसर का दावा- 'भारत की विकास दर की कहानी सही नहीं'

पिछले कुछ सालों से मोदी सरकार द्वारा जारी आर्थिक विकास के आँकड़ों पर अक्सर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। अब प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर ने ताज़ा जीडीपी विकास दर के आँकड़ों पर तब सवाल उठाए हैं जब भारत की अध्यक्षता में हो रहे जी20 शिखर सम्मेलन के लिए दुनिया भर के बड़े-बड़े नेता दिल्ली में जुटे हैं।

एक अर्थशास्त्री के रूप में लंबे समय तक विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में काम करने वाले अशोक मोदी का दावा है कि राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसओ ने यह गलत कहा है कि पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में भारत की जीडीपी वृद्धि 7.8 प्रतिशत रही। उनका तर्क है कि यह 4.5 प्रतिशत होना चाहिए। उन्होंने यह दावा प्रोजेक्ट सिंडिकेट के लिए लिखे गए एक लेख में किया है। प्रोजेक्ट सिंडिकेट एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन है जो विभिन्न वैश्विक विषयों पर टिप्पणी और विश्लेषण प्रकाशित और सिंडिकेट करता है।

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'भारत की नकली विकास की कहानी' शीर्षक वाले लेख में अशोक मोदी सवाल उठाते हैं कि संदेह इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि एनएसओ आँकड़े तैयार करने के मामले में अंतरराष्ट्रीय मानक का पालन नहीं करता है। उन्होंने कहा है कि सकल घरेलू उत्पाद को मापने के लिए दो मानदंड काफी अलग तस्वीर पेश करते हैं। एनएसओ वास्तविक जीडीपी को दो तरीकों से मापता है- पहला उत्पादन/आय दृष्टिकोण के माध्यम से और दूसरा व्यय दृष्टिकोण के माध्यम से।

अशोक मोदी लिखते हैं, 'सिद्धांत रूप में व्यय अर्जित आय के बराबर होना चाहिए, क्योंकि उत्पादक केवल तभी आय अर्जित कर सकते हैं जब अन्य लोग उनका उत्पादन खरीदते हैं। हालाँकि, व्यवहार में आय और व्यय के अनुमान हर जगह राष्ट्रीय खातों में भिन्न होते हैं, क्योंकि वे अधूरे डेटा पर आधारित होते हैं।' उन्होंने आगे लिखा है कि इसके बावजूद 'आम तौर पर विकास दर की गणना के लिए यह विसंगति मायने नहीं रखती है, क्योंकि आय और व्यय, भले ही वे कुछ हद तक भिन्न हों, समान रुझान दिखाते हैं।'

मोदी लिखते हैं कि लेकिन समय-समय पर दोनों शृंखलाएं बहुत अलग-अलग रास्ते अपनाती हैं और इससे आँकड़े काफ़ी अलग भी आ सकते हैं। मोदी कहते हैं कि इस साल एक समस्या है क्योंकि अप्रैल-जून में उत्पादन से आय में वार्षिक 7.8 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई, जबकि व्यय में मामूली 1.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 
आय और व्यय के इन आँकड़ों में बहुत ज़्यादा अंतर है। मोदी का मानना है कि जब काफी अंतर है तो एनएसओ को दोनों आंकड़ों में सामंजस्य बिठाने की ज़रूरत है।
रिपोर्ट के अनुसार अशोक मोदी लिखते हैं कि यहीं पर अंतरराष्ट्रीय मानक का पालन नहीं किया गया है और इस वजह से विकास दर काफ़ी ज़्यादा दिखाई देती है। वह लिखते हैं कि ऐसी स्थिति आने पर ऑस्ट्रेलियाई, जर्मन और यूके की सरकारें आय और व्यय दोनों पक्षों की जानकारी का उपयोग करके अपनी रिपोर्ट की गई जीडीपी को समायोजित करती हैं। उन्होंने आगे लिखा है कि अमेरिका व्यय को अपने आर्थिक प्रदर्शन के प्राथमिक मीट्रिक के रूप में उपयोग करता है जबकि भारत आय को प्राथमिकता देता है।
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अर्थशास्त्री मोदी ने लिखा है, 'यूएस ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक एनालिसिस दोनों के औसत को अपने समग्र माप के रूप में रिपोर्ट करके आय और व्यय के बीच अक्सर बड़े अंतर का हिसाब लगाता है। जब हम भारतीय डेटा पर बीईए विधि लागू करते हैं तो सबसे हालिया विकास दर 7.8 प्रतिशत से गिरकर 4.5 प्रतिशत हो जाती है। यह अप्रैल-जून 2022 में 13.1 प्रतिशत से उल्लेखनीय गिरावट है जब कोविड-19 के बाद पहली बार आर्थिक स्थिति तेजी से ऊपर उठी थी।'

हालाँकि बहुत से अर्थशास्त्री अशोक मोदी के उग्र तर्क से सहमत नहीं हैं। टेलीग्राफ की रिपोर्ट के अनुसार बेंगलुरु में डॉ. बीआर आंबेडकर स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स यूनिवर्सिटी के कुलपति एन.आर. भानुमूर्ति कहते हैं, 'भारत संयुक्त के राष्ट्र राष्ट्रीय लेखा प्रणाली 2008 को मानता रहा है। तिमाही विकास डेटा के साथ समस्याएं कोई नई बात नहीं हैं और न ही केवल भारत के लिए विशिष्ट हैं।' उन्होंने कहा कि वास्तविक वृद्धि को वार्षिक जीडीपी के अंतिम संशोधन के बाद देखा जा सकता है। भारतीय स्टेट बैंक समूह के मुख्य अर्थशास्त्री सौम्य कांति घोष ने हालिया इकोरैप रिपोर्ट में कहा है कि विनिर्माण, निर्यात और सेवा क्षेत्र के साथ-साथ प्रमुख संकेतकों के संबंध में एनएसओ की डेटा पद्धति में संभावित गलतियां थीं।

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क़मर वहीद नक़वी
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