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प्रतीकात्मक तसवीर।

एमपी: राज्यपाल से इन आदिवासियों ने इच्छा मृत्यु की इजाजत क्यों मांगी?

खुद को आदिवासियों की हितैषी कहने वाली मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह सरकार से क्या राज्य के गरीब किसान आदिवासियों का भरोसा डगमगाने लगा है? क्या अब इनकी सुनवाई करना सरकार ने बंद कर दिया है और क्या इनके सामने न्याय पाने का आखिरी रास्ता मौत को गले लगाना ही बचा रह गया है? यदि ऐसा नहीं है तो फिर सिवनी जिले के दो आदिवासियों ने राज्यपाल मंगू भाई पटेल को चिट्ठी लिखकर इच्छा मृत्यु की इजाज़त क्यों मांगी! उनकी यह बेबसी न सिर्फ राज्य सरकार की संवेदनहीनता बल्कि स्थानीय प्रशासन के अमानवीय और भ्रष्ट रवैये को भी उजागर करता है।

सिवनी जिले के घंसौर तहसील अन्तर्गत ग्राम बिनैकी कला निवासी मनोहर बैगा और लच्छी मरावी सरकारी तंत्र के रवैये से आखिर इतने हताश और निराश क्यों हैं? उत्तर में ये कुछ बोलें या नहीं, पटवारी, तहसीलदार, एसडीएम, कलेक्टर से लेकर कमिश्नर तक वर्षों की इनकी दौड़ और वहाँ से निकले दस्तावेज सारी कहानी खुद कहने लगते हैं। भू-स्वामी के तौर पर एक पावर प्लांट को दी गई जिस जमीन का खेतूलाल बैगा और लच्छी मरावी को 2 करोड़ 66 लाख 67 हजार रुपये मुआवजा मिलना था और जिस रक़म को सरकारी खजाने में जमा भी करा दिया गया, अचानक कलेक्टर ने उसकी अदायगी पर रोक लगा दी। उनके इस अप्रत्याशित आदेश के विरुद्ध किसानों ने न्यायालय कमिश्नर जबलपुर का दरवाजा खटखटाया। वहाँ से निकले आदेश से उनमें थोड़ी उम्मीद भी बंधी। लेकिन उस पर अमल करने की बात तो दूर, जिला कलेक्टर ने कमिश्नर के आदेश के विपरीत मुआवजा के हकदार इन किसानों के सरकारी पट्टे को ही फर्जी ठहराने की कोशिश शुरू कर दी। दोनों आदिवासियों को जालसाज साबित करने के लिए नीचे के राजस्व अधिकारियों ने तहसील कार्यालय से उनके रिकॉर्ड तक गायब कर दिए। 

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इस नई मुसीबत ने मनोहर बैगा के बूढ़े पिता खेतूलाल को इस कदर आहत किया कि असमय उनकी मौत हो गई। पिता को खोकर बतौर भू- स्वामी नये सिरे से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे मनोहर बैगा का कहना है- 'स्थानीय प्रशासन को हमारे साथ खड़े होना चाहिए था मगर वह झाबुआ पावर प्लांट के मैनेजरों के साथ खड़ा हो गया। क्योंकि सब की जेब भरने के लिए हमारे पास पैसा नहीं था। लालची अफसरों ने षड्यंत्र पूर्वक मुआवजा तो रोका ही मेरे पिता की जान भी ले ली। कई बार सीएम हेल्प लाइन में शिकायत भेजी, कमिश्नर जबलपुर ने प्रकरण की सुनवाई करते हुए साफ-साफ लिखा कि यह आवश्यक है कि उनके (हमारे) साथ अन्याय न हो। लेकिन हमें न्याय आज तक नहीं मिला। इसीलिए हमने इच्छा मृत्यु की इजाजत मांगी है। देखते हैं वह भी मिलती है या नहीं...!'

भू अर्जन का यह ऐसा अनूठा मामला है जिसमें एक प्राइवेट पावर प्लांट के लिए प्रशासन की निगरानी में पहले भूमि अर्जित की गई और जब मुआवजा देने की बारी आई तो प्रशासन ने ही भुगतान पर रोक लगा दी। इतना ही नहीं, अर्जित भूमि के असली स्वामी खेतूलाल बैगा और लच्छी मरावी ही हैं, इसकी भी जाँच प्रक्रिया शुरू कर दी गई। मृतक खेतूलाल के बेटे मनोहर ने बताया कि झाबुआ पावर प्लांट से सटी जिस भूमि का अधिग्रहण किया गया वह उनके पिता को अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहते पट्टे पर मिली थी। उसके मुताबिक़ जून 2016 में एक दिन झाबुआ पावर प्लांट के कुछ अधिकारी उसके पिता से मिलने आये। वे लच्छी से भी मिले क्योंकि बगल में ही उसका भी खेत है। प्लांट बनकर तैयार हो चुका था लेकिन वहाँ तक कोयला ले जाने के लिए रेल लाइन निर्माण बावत उन्हें कुछ और जमीन की आवश्यकता थी। स्थानीय प्रशासन भी चाहता था कि हम उनका सहयोग करें। लिहाजा मेरे पिता और लच्छी अपनी  सिंचित भूमि क्रमशः 0.40 हेक्टेयर व 1.35 हेक्टेयर झाबुआ पावर को देने पर राजी हो गये।

4 जनवरी 18 को एसडीएम घंसौर ने मध्य प्रदेश शासन की आपसी सहमति से भूमि क्रय नीति के आधार पर ग्राम विनैकी कला स्थित उक्त दोनों खातेदारों की भूमि क्रय किये जाने के लिए इश्तहार जारी करते हुये सर्व साधारण से आपत्ति आमंत्रित की। नियत तिथि तक कोई आपत्ति नहीं प्राप्त होने पर जिला कलेक्टर के समक्ष झाबुआ पावर प्लांट और दोनों आदिवासी किसानों खेतूलाल व लच्छी मरावी के बीच विक्रय अनुबंध पत्र तैयार किया गया। चूँकि खेतूलाल की 0.40 हेक्टेयर भूमि के एक भाग में दुग्ध डेयरी संचालित थी और सीमेंट का पक्का शेड निर्मित था इसलिए उसे 2 करोड़ 42 लाख 37 हजार व लच्छी मरावी को 24 लाख 30 हजार रुपए मुआवजा दिया जाना निर्धारित किया गया। लोक निर्माण विभाग की ओर से मुआवजा राशि तय किये जाने के साथ ही झाबुआ पावर लिमिटेड ने भूमि अधिग्रहण कर रेल लाइन का निर्माण प्रारंभ कर दिया।

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28 मार्च 2019 को कलेक्टर प्रवीण सिंह अढायच के हस्ताक्षर से एक अधिसूचना जारी की गई जिसमें आपसी सहमति से भूमि क्रय किये जाने का उल्लेख करते हुए कहा गया कि अनुसूची में दर्शित उक्त भूमियों के स्वत्व ( मालिकाना हक) के संबंध में किसी व्यक्ति या संस्था को कोई आपत्ति हो तो वह 15 दिवस के भीतर कलेक्टर कार्यालय में उपस्थित होकर अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता है। नियत अवधि के पश्चात प्राप्त आपत्ति पर विचार नहीं किया जायेगा। 5 अप्रऐल के मध्य प्रदेश राजपत्र में राज्यपाल के नाम विधिवत इसका प्रकाशन हुआ। किसी ने आपत्ति नहीं जताई। लिहाजा, कलेक्टर ने झाबुआ पावर प्लांट के प्रबंधन को किसानों को दी जाने वाली कुल मुआवजा राशि 2 करोड़ 66 लाख 67 हजार रुपये जिला भू अर्जन अधिकारी सिवनी के नाम तीन समान किश्तों में जमा करने का पत्र जारी कर दिया। प्लांट की ओर से दो किश्तें जमा करा दी गईं।

यहाँ तक सब कुछ ठीक ढर्रे पर चला। मगर जब आखिरी किश्त जमा करने का समय आया तो उससे पहले 9 अगस्त 2019 को झाबुआ पावर प्लांट के हेड अशोक सिंह यादव कलेक्टर प्रवीण सिंह से मिलने इस अनुरोध के साथ पहुंचे कि मुआवजा राशि का मूल्यांकन बढ़ा चढ़ा कर किया गया है अतः इसका फिर से मूल्यांकन कराया जाये। इस अर्जी के लगते ही दोनों आदिवासियों पर मानो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। कलेक्टर ने प्लांट की ओर से मिले आवेदन को स्वीकार करते हुए एसडीएम घंसौर को फौरन जाँच कर रिपोर्ट सौंपने के आदेश दे दिए। तीन दिन के भीतर एसडीएम ने जाँच रिपोर्ट भी सौंप दी। रिपोर्ट में  झाबुआ पावर प्लांट हेड के आरोप को एक तरह से सही ठहराते हुए यह उल्लेखित किया गया कि खेतूलाल बैगा की भूमि पर डेयरी का पक्का शेड निर्मित नहीं था और मुआवजा त्रुटि पूर्ण ढंग से तैयार किया गया। हालाँकि यह सच था तो फिर झाबुआ पावर प्लांट प्रबंधन ने अलग-अलग तिथियों में मुआवजा राशि की दो समान किश्तें क्यों जमा कराईं? 

कलेक्टर के आदेश के अनुसार 5 अप्रैल को प्रकाशित राजपत्र में खेतूलाल बैगा की आराजी में 1350 वर्गमीटर पर डेयरी फार्म का पक्का सीमेंट शेड निर्मित होने का स्पष्ट उल्लेख है, फिर भू- अधिग्रहण करने से पहले झाबुआ पावर प्लांट प्रबंधन ने उस समय आपत्ति क्यों नहीं की?

इन प्रश्नों पर संजीदगी से विचार किये बिना कलेक्टर प्रवीण सिंह ने 13 अगस्त 2019 को 28 मार्च 2019 की अपनी वह अधिसूचना रद्द कर दी जिसका प्रकाशन 5 अप्रैल के मध्य प्रदेश राजपत्र में हुआ था। इसके साथ ही उन्होंने मुआवजा निर्धारण में त्रुटि का दोषी मानते हुए पीडब्ल्यूडी के सब इंजीनियर और राजस्व निरीक्षक को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया। हालाँकि बाद में ये कमिश्नर कोर्ट जबलपुर से बहाल हो गये। लेकिन प्रशासन और प्लांट प्रबंधन के गठजोड़ ने गरीब आदिवासियों को ऐसी मुसीबत में डाल दिया जिससे वह आज की तारीख तक उबर नहीं पाये हैं। कलेक्टर के निर्णय के खिलाफ पीड़ित दोनों आदिवासियों ने कमिश्नर कोर्ट जबलपुर कि रुख किया। उनकी अपील पर 23 जून 2021 को निर्णय देते हुए कमिश्नर वी. चद्रशेखर ने कहा - "प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि आवेदनकर्ता खेतूलाल व लच्छी मरावी अधीनस्थ कार्यालयों द्वारा की गई प्रकिया से आहत हैं। इसलिए आवश्यक है कि उनके साथ अन्याय न हो।" अपने फैसले में कमिश्नर कोर्ट ने कलेक्टर सिवनी को निर्देशित किया कि 

  • मुआवजा निर्धारण में त्रुटि हुई है तो इसके संबंध में बोलता हुआ स्पष्ट आदेश पारित करें।
  • यदि वह यह पाते हैं कि मुआवजा निर्धारण में त्रुटि नहीं हुई है तो आदेश प्राप्ति के एक माह के भीतर मुआवजा प्रदान करें।
  • यदि पूर्व मुआवजा निर्धारण में त्रुटि हुई है तो आदेश प्राप्ति के तीन माह के भीतर नियमानुसार मुआवजा का निर्धारण कर मुआवजा राशि प्रदान करें।

लेकिन, हुआ क्या? कमिश्नर कोर्ट का आदेश कलेक्टर कार्यालय में दबा पड़ा रहा। इस बीच कलेक्टर का तबादला हो गया। प्रवीण सिंह अढायच की जगह राहुल हरिदास आ गये। आदिवासी किसान अपनी फरियाद लेकर उनसे भी मिले। फाइल नये सिरे से आगे बढ़ी। पर जांच मुआवजा दर निर्धारण की बजाय अधिग्रहित भूमि के स्वामित्व की होने लगी। अब वह राज्य सरकार से पट्टे पर मिली जमीन का मालिकाना साक्ष्य एकत्र करने में जुट गये। उनके मुताबिक जिस दफ्तर में वह जाते सिर्फ पैसों की मांग होती। खसरा - खतौनी में दशकों से दर्ज उनके नाम प्रमाण के लिए नाकाफी थे। नायब तहसीलदार की रिपोर्ट आ जाती कि रिकॉर्ड में दायरा पंजी (प्रकरण क्रमांक, रकबा, खसरा नम्बर, भूस्वामी के नाम का विवरण)  उपलव्ध नहीं है। राजस्व अधिकारियों के इस रवैये से बुजुर्ग खेतूलाल इस कदर आहत हुआ कि पिछले वर्ष उसका देहांत हो गया।

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मृत खेतूलाल के बेटे ने कहा, ‘स्थानीय प्रशासन से अब कोई उम्मीद नहीं रह गई है। हमारी दी जमीन से हर रोज कोयला लदी मालगाड़ी झाबुआ प्लांट परिसर तक दौड़ रही है और हमें ही जालसाज बना दिया गया। मेरे पिता ने कोई जालसाजी नहीं की। जालसाजी हमारे साथ की जा रही है। इस जुल्म को सहने से मर जाना अच्छा है। और इसीलिए महामहिम राज्यपाल से इसकी इजाजत मांगी गई है।’

चौंकाने वाली बात यह है कि राज्यपाल के नाम इसी मार्च महीने में पीड़ित आदिवासियों की ओर से लिखी चिट्ठी के हफ्ते भर बाद वह दायरा पंजी मिल गई जिसे नायब तहसीलदार घंसौर लगातार गायब होना बता रहे थे। प्रशासन में हड़कंप मचा है। 13 मार्च को नायब तहसीलदार ने मौजूदा कलेक्टर को जो जाँच प्रतिवेदन भेजा उसमें कहा गया है कि न्यायालयीन दायरा पंजी वर्ष 1989-90 का अवलोकन किया गया। पंजी के पृष्ठ क्रमांक 43 प्रकरण 23 मद अ- 19/1990 आदेश दिनांक 21.12.90 अनुसार खेतूलाल बैगा का नाम खसरा नं. 664/2 रकबा 0.40 हेक्टेयर भूमि दायरा पंजी में अंकित है।

अब देखना है कि राज्यपाल मंगू भाई पटेल अफसरों की मनमर्जी के इस गंभीर मामले में क्या कोई संज्ञान लेंगे?

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अरविंद मिश्र
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