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मुंबई की झोपड़पट्टी। ऐसी जगहों पर एक-एक कमरे में 5-7 लोग रहते हैं।

कोरोना: एकाएक लॉकडाउन ग़रीबों के लिए बड़ी त्रासदी?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक दिन के ‘जनता कर्फ्यू’ को देश के लोगों ने काफ़ी सराहा और कोरोना के ख़िलाफ़ उनकी इस पहल में सहयोग किया। तालियाँ, थालियाँ और घंटियाँ भी बजायीं। ‘जनता कर्फ्यू’ से पहले ही देश के अधिकाँश राज्यों में लॉकडाउन हो चुका था और जो राज्य बचे थे उनमें भी मंगलवार तक लॉकडाउन या कर्फ्यू की घोषणा हो चुकी थी। ऐसे में मंगलवार रात 8 बजे एक बार फिर प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम संबोधन में देश में 21 दिन के कर्फ्यू की तरह लॉकडाउन की बात कही और लोगों से कहा कि आपके घर की चौखट लक्ष्मण रेखा जैसी है जिसे बहुत सोच-समझ कर पार करना है। कोरोना से लड़ने के लिए लॉकडाउन और सोशल दूरी बनाए रखना एक अहम् उपाय साबित हुआ है और उसके चलते प्रधानमंत्री की इस घोषणा का विरोध नहीं किया जाना चाहिए, लेकिन राष्ट्र के नाम अपने इस संबोधन में उन्होंने उस पहलू को नहीं बताया कि इस दौरान क्या-क्या ज़रूरत की सुविधाएँ लोगों के लिए उपलब्ध रहेंगी। देश की एक बड़ी जनसंख्या जो रोज़ कमाने -रोज़ खाने जैसे हालात में जीवन बसर करने के लिए मजबूर है, उसका क्या होगा? काम-धंधे बंद हैं, कमाई का कोई ज़रिया नहीं, ऐसे में ये लोग अपना पेट कैसे भरेंगे?

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प्रधानमंत्री की घोषणा से पूर्व तक देश के क़रीब सभी प्रदेश लॉकडाउन की स्थिति में पहुँच चुके थे, ऐसे में इस नयी घोषणा से लोगों में एक नए प्रकार का भ्रम बना और बड़ी संख्या में लोग घरों से निकले और किराणे का सामान, सब्जी, दवाएँ आदि जो भी दुकानें खुली देखी वहाँ सामान खरीदने लग गए। भ्रम का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सोशल मीडिया के माध्यम से प्रदेश की जनता से इस बात की विशेष अपील की कि वे घरों से बाहर नहीं निकलें और खाद्यान्न, दवा आदि अत्यावश्यक वस्तुओं की दुकानें पहले की भाँति ही शुरू रहेंगी। उद्धव ठाकरे ने इस बात का भी ज़िक्र किया कि प्रधानमंत्री की घोषणा से उन्हें भी कुछ भ्रम हुआ। उन्होंने कहा कि लिहाज़ा मैंने फ़ोन पर उनसे बात कर चीजों को स्पष्ट रूप से समझा और जनता से संवाद कर उसे दूर कर रहा हूँ। 

प्रधानमंत्री की इस घोषणा की राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष और प्रदेश के जल संपदा जयंत पाटिल ने निंदा की। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन क्या 'नोटबंदी' है जो उसकी घोषणा के लिए भी रात का समय चुना गया। उन्होंने कहा कि लोगों को अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान जुटाने के लिए समय की ज़रूरत होती है और वह दिया जाना भी चाहिए अन्यथा हम कोरोना से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं और नयी समस्या सामने खड़ी हो जाएगी। पाटिल ने कहा कि अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने बहुत-सी बातों का ज़िक्र नहीं किया जिससे और ज़्यादा भ्रम की स्थिति बनी है। 

करोड़ों लोगों के रहने वाले शहर मुंबई में लोगों को घरों में बिठाना एक बहुत बड़ी चुनौती है क्योंकि शहर सालों से चौबीस घंटे चलता रहा है।

मुंबई महानगर में क़रीब 60 प्रतिशत आबादी झोपड़पट्टी में रहती है और इसका एक कड़वा सच यह है कि परिवार के सारे सदस्य चाहकर भी अपने घर में बैठ नहीं सकते हैं क्योंकि 200 या 250 वर्ग फुट के घर में 5 या 7 लोग रहते हैं। ऐसे में सोने की बात छोड़िए, बैठने की भी जगह अपर्याप्त होती है।

यही नहीं, मुंबई के पुराने इलाक़ों में घर इतने छोटे हैं कि लोगों ने अपने सोने और घर में रहने का समय किसी फ़ैक्ट्री की शिफ्ट की तरह निर्धारित कर रखे हैं। किसको कब सोना है और कब घर में रहना है। जब इस बात की शिफ्ट तय है तो एक साथ ऐसे परिवार अपने घरों में कैसे रहेंगे यह अपने आप में एक सवाल है जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। 

फल-फूल, सब्जी, अनाज, कपड़ा जैसे थोक बाज़ारों में काम करने वाला मज़दूर जो सालों से फ़ुटपाथ पर सोकर अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा है वह किस घर में जाएगा यह एक बड़ा प्रश्न है। कंस्ट्रक्शन, होटल -रेस्टॉरेंट में कार्य करने वाले मज़दूर और वेटर की भी वही स्थिति है, वह जाए तो जाए कहाँ। बड़ी संख्या में निजी कंपनियों में काम करने वाले चौकीदार भी आज परेशान हैं क्योंकि इनमें से अधिकाँश दो शिफ्ट में काम करते थे और इधर-उधर कुछ घंटे सोकर अपना गुज़र बसर करते थे। इन सब पर लॉकडाउन की दोहरी मार पड़ रही है। काम-धंधा बंद होने से पैसा आना बंद हो गया। कहाँ रहें और गुजारा कैसे चलाएँ?

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सरकार की तरफ़ से सहायता की बजाय रोज़ नए निर्देश मिल रहे हैं- यह करो- यह न करो। सिर्फ़ शहर के लोगों की बात ही क्यों, मुंबई से सटे कल्याण की जेल में कैदी पिछले कुछ दिन से अनशन कर रहे हैं कि कोरोना की वजह से सोशल दूरी बनाए रखने के लिए उन्हें पर्याप्त जगह मिलनी चाहिए। इस जेल में कैदी रखने की क्षमता क़रीब 500 की है लेकिन वर्तमान में वहाँ 1900 के आस-पास कैदी रह रहे हैं। ये ऐसे कड़वे सच हैं जिन्हें हमारी सरकारों को स्वीकार कर घोषणा करते समय ध्यान में रखना चाहिए।

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संजय राय
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