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ये आज़ादी किस चिड़िया का नाम है जी?

जिन देशों में आर्थिक विषमता कम है, ग़रीबी, भुखमरी, अशिक्षा कम है, लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिल रही हैं, वहाँ आज़ादी भी ज़्यादा है। कुछेक अपवाद हो सकते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि आज़ादी चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, उसका सीधा संबंध आर्थिक मामलों से है।
मुकेश कुमार

मुल्क की फ़िज़ा कुछ इस तरह से बदल दी गई है कि आज़ादी की बात करना बग़ावत है और आज़ादी की माँग करना देशद्रोह। ये आज़ादी भले ही भूख और भ्रष्टाचार से माँगी जा रही हो, अशिक्षा और शोषण से माँगी जा रही हो, हिंदुत्व और संप्रदायवाद से माँगी जा रही हो, मगर शासक वर्ग और उसके साथ खड़ा मीडिया उसका एक ही अर्थ निकालता है और वह है देशद्रोह। वह उन्हें देशद्रोहियों के रूप में प्रचारित करता है, उन्हें अपमानित, लाँछित करता है। सरकार द्वारा ऐसे लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं, उन्हें जेल में ठूँस दिया जाता है।

सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक तबका ही नहीं, अचानक देश में एक ऐसा समूह खड़ा कर दिया गया है जो आज़ादी के नाम से त्यौरियाँ चढ़ा लेता है और आज़ादी का ज़िक्र करने वाले को संदेह की नज़र से देखने लगता है। तथाकथित देशभक्ति और राष्ट्रवाद की पिनक में इसे कुछ और सूझता नहीं। 

विडंबना देखिए कि पिछले सात सालों में हम जहाँ पहुँचे हैं वहाँ वही चीज़ देश विरोधी हो गई है जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लंबी लड़ाई लड़ी, लाठियाँ-गोलियाँ खाईं और जेल गए। जैसे बहुत सारे दूसरे शब्दों के अर्थ को तोड़-मरोड़कर उन्हें ग़लत अर्थ दे दिया गया है, वैसा ही सलूक आज़ादी नामक लफ्ज़ के साथ भी किया जा रहा है। 

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आज़ादी की बात करना ग़ुनाह!

आज़ादी एक खुशनुमा एहसास, जीवन की चरम उपलब्धि की जगह गालियों में तब्दील कर दी गई है। लगता है कि आज़ादी को देशभक्ति के बरक्स रखकर दहशत का ऐसा माहौल बनाने का एजेंडा सुनियोजित ढंग से चलाया जा रहा है कि कोई आज़ादी की बात करने की हिम्मत ही न करे और कोई करे भी तो जनता की निगाहों में वह नायक नहीं खलनायक बन जाए।

इसके लिए किसी गवाही या सबूत की ज़रूरत नहीं है कि एक राजनीतिक दल और एक राजनीतिक विचारधारा चाहती है कि आज़ादी का मुद्दा इस देश के राजनीतिक एजेंडे से ही बाहर कर दिया जाए, ताकि वह जो भी करे उस पर सवाल न खड़े हों। 

खामोश करने की कोशिश

वह छद्म राष्ट्रवाद के साये में अपना कार्यक्रम लागू करना चाहती है, जो कि ज़ाहिर है सबसे बड़ी चोट आज़ादी पर करके ही किया जा सकता है। हिंदुत्व की विचाराधारा को पूरी तरह से तभी प्रतिष्ठित किया जा सकता है जब दलितों के लिए उठने वाली आवाज़ों को खामोश किया जा सके। अल्पसंख्यकों को दबाने का अभियान इसके बिना नहीं हो सकता। 

यही वजह है कि हमें आज़ादी के एहसास में कमी होती दिख रही है। और ये अनुभव उन तबकों में ज़्यादा है जो इस आज़ादी विरोधी अभियान के निशाने पर हैं। वे महसूस कर रहे हैं कि आज़ादी बहुत तरह की शर्तों में बाँधी जा रही है, उसे सीमित किया जा रहा है।

ये प्रक्रिया आगे चलकर आज़ादी को ख़त्म करने की दिशा में ले जाएगी।

आज़ादी के मायने

मुश्किल ये है कि इस देश की जनता को ये बात समझ में नहीं आ रही और ये कोई हैरतनाक़ बात नहीं है, क्योंकि अधिकांश आबादी को यही नहीं मालूम कि आज़ादी किस चिड़िया का नाम है? वह तो बस इतना जानती है कि अँग्रेज़ों के जाने के बाद देश आज़ाद हो गया था और उसी के साथ हमें भी आज़ादी मिल गई थी। उसे किसी ने आज़ादी के मायने बताए भी नहीं। उसे पता नहीं कि आज़ादी कम और ज़्यादा भी होती है, उसका भी कोई गुणात्मक आकलन हो सकता है। विदेशी शासन से आज़ाद हुए सभी मुल्कों में आज़ादी की गुणवत्ता एक सी नहीं है।

देश को जब आज़ादी मिली थी तभी उस पर सवाल उठाए गए थे। कुछ लोगों ने इसे गोरे अंग्रेज़ों से काले अँग्रेज़ों के बीच सत्ता का हस्तांतरण करार देते हुए कहा था कि ये आज़ादी अधूरी है।

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आज़ादी का भ्रम

कई ने इसे पूँजीपति वर्ग के शोषण-तंत्र के कायम रहने के रूप में देखा था। यहाँ तक कि संविधान को देश को समर्पित करते हुए बाबा साहेब अंबेडकर ने भी कहा था कि हमने केवल राजनीतिक आज़ादी सुनिश्चित की है, जो कि सामाजिक तथा आर्थिक आज़ादी के बिना बेमानी है। लेकिन इस सबके बावज़ूद ये भ्रम बना रहा, बल्कि पुष्ट हुआ कि हम पूरी तरह आज़ाद हैं। इसका नतीजा ये निकला कि आज़ादी की परियोजना ठहर गई, उसका विकास रुक गया।

ये समझना बहुत ज़रूरी है कि आज़ादी एक गतिमान चीज़ है, डायनेमिक गतिविधि है। ये एक बार में पूरी नहीं मिलती, इसके लिए सतत प्रयास करने पड़ते हैं और अगर थोड़ी चूक हुई तो जितनी आज़ादी हासिल की गई थी, वह भी छिन सकती है, जैसा कि इमरजेंसी के दौरान हुआ था और जो इस समय भी हो रहा है। 

attack on freedom of speech in india - Satya Hindi

हमने बहुत तरीक़ों से अपनी आज़ादी खोई है। हमारे बहुत सारे लोकतांत्रिक संस्थानों की आज़ादी में तीव्र क्षरण हुआ है। चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका तक और शिक्षा से लेकर नौकरशाही तक, हर जगह आज़ादी का गला घोंटा जा रहा है। लोकतंत्र के तीनों खंभों पर ग़ुलामी का काला साया मँडराते हुए साफ़ देखा जा सकता है। चौथा खंभा यानी मीडिया की हालत भी कमोबेश वैसी है या उनसे भी बदतर हो चली है।

अव्वल तो विचारों की अभिव्यक्ति के स्तर पर हमारी आज़ादी संकुचित कर दी गई है। धमकियों और हिंसा के ज़रिए आतंक का ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया गया है जिसमें हम स्वतंत्रतापूर्वक अपने विचारों को व्यक्त करने से घबराने-कतराने लगे हैं। 

मीडिया पर सवाल

मीडिया ने भी खुद को सत्ता के एजेंडे के साथ ढाल लिया है। वह उसके लिए किसी को देशद्रोही करार दे सकता है। इसके लिए अगर उसे फ़र्ज़ी वीडियो बनाने पड़ें उल्टे-सीधे तर्क गढ़ने पड़ें या टीवी-बहसों में शोर मचाकर अपमानित करना पड़े तो वह करता है। यहां तक कि विपक्षी दलों और उनके नेताओं को बदनाम करने का निरंतर अभियान चलाने में भी उसे शर्म नहीं आती। और आएगी भी क्यों, जब मीडिया पर पूँजी की पकड़ इतनी ज़बर्दस्त हो गई हो कि पत्रकार साँस भी न ले सके और लेने की हिम्मत करे तो उसका गला घोंट दिया जाए। 

विचारों की विविधता मीडिया में एक तरह से प्रतिबंधित की जा रही है। लेखन, पत्रकारिता, किताबों, फ़िल्मों और कलाओं के क्षेत्र में इस आतंक का असर साफ़ देखा जा सकता है। अगर आम जन-जीवन की बात करें तो रहन-सहन, खान-पान यहाँ तक कि प्यार-मोहब्बत पर भी रोक-टोक का सिलसिला बढ़ गया है जो कि आज़ादी पर अंकुश लगाने की कोशिशें ही हैं।

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लब्बोलुआब ये है कि आज की तारीख़ में लोगों को ये बताने की बहुत बड़ी चुनौती है कि वे आज़ादी के मायने समझें और समझकर प्रश्न करें कि कैसी आज़ादी, किसकी आज़ादी।

अभी तक हमने आज़ादी को एक अमूर्त किस्म की वस्तु बनाकर रखा हुआ है। वह एक वायवीय, हवा-हवाई शै है जो कि देखी या नापी नहीं जा सकती इसलिए उसे हर कोई अपने हिसाब से परिभाषित कर सकता है, उसमें काट-छाँट कर सकता है। इसकी खुली छूट उन लोगों के लिए हथियार बन जाती है जो कुछ लोगों और कुछ तबकों की आजादी को नियंत्रित करना चाहते हैं। उन्हें संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार खलते हैं। वे मानवाधिकारों के ज़िक्र भर से आपा खो देते हैं। 

मीडिया की आज़ादी पर अंकुश

आज़ादी की गुणवत्ता मापने के बहुत सारे पैमाने हैं, जो बताते हैं कि आज़ादी के मामले में भारत की स्थिति बहुत दयनीय है। मसलन, सबसे पहले मीडिया को ही ले लें। रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर के अनुसार, दुनिया में भारतीय मीडिया की आज़ादी की रैंकिंग 142 है। दुनिया के 180 देशों के बीच।

इस संगठन ने साफ़ कहा है कि हिंदुस्तान में मीडिया की मुश्कें कसी जा रही हैं, पत्रकारों को डराया-धमकाया, मारा जा रहा है। इसके अलावा मीडिया संस्थानों ने सरकारपरस्त रुख़ अपनाकर स्वतंत्रता की गुंज़ाइश को बहुत कम कर दिया है। 

स्वतंत्रता का एक महत्वपूर्ण पैमाना आर्थिक होता है। इस मामले में भारत दुनिया में 121 वें स्थान पर है। जिस पाकिस्तान को हम फिसड्डी बताते हैं वह हमसे एक स्थान ही नीचे है जबकि श्रीलंका और बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में हैं।

तीसरा पैमाना मानवीय स्वतंत्रता का लिया जा सकता है और इसमें भी भारत पहले सौ देशों में शामिल नहीं है। उसका स्थान 111 वाँ है और नेपाल तथा भूटान उससे कम से कम पचीस पायदान ऊपर हैं। जहाँ तक मानव विकास सूचकांक का सवाल है तो बांग्लादेश भी उससे आगे है। 

एक और मानक भुखमरी सूचकांक का है। कुल 107 देशों में भारत सन् 2020 में 94वें स्थान पर था। बांग्लादेश, इराक और उत्तर कोरिया जैसे देश भी उससे आगे निकल चुके हैं। बहुत सारे अफ्रीकी देशों की भी स्थिति भारत से बेहतर है। 

अब ज़रा बच्चों के कुपोषण के आँकड़ों को भी देख लीजिए। दुनिया के एक तिहाई से भी ज़्यादा कुपोषित बच्चे भारत में हैं। 

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इस आर्थिक पराधीनता की सबसे बड़ी वज़ह ये है कि सारी दौलत चंद लोगों के हाथों में सिमटती जा रही है। केवल एक फ़ीसदी लोग 58 फ़ीसदी दौलत पर कब्ज़ा जमाए बैठे हैं और जल्द ही उनकी मुट्ठी में 73 फ़ीसदी दौलत होगी। 

नब्बे फ़ीसदी के हाथों में केवल दस फ़ीसदी धन-संपत्ति बची है। दुनिया भर में आर्थिक विषमता का अध्ययन करने वाले थॉमस पिकोटी बताते हैं कि भारत में ये आर्थिक विषमता पिछले सौ साल में सबसे ज़्यादा है। 

अब ज़रा इसे उलटकर देखिए। जिन देशों में आर्थिक विषमता कम है, ग़रीबी, भुखमरी, अशिक्षा कम है, लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिल रही हैं, वहाँ आज़ादी भी ज़्यादा है। कुछेक अपवाद हो सकते हैं मगर हक़ीक़त ये है कि आज़ादी चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, उसका सीधा संबंध आर्थिक मामलों से है।

जाति व्यवस्था का कोढ़

हाँ, भारत में स्थिति थोड़ी भिन्न इस लिहाज़ से ज़रूर हो जाती है कि यहाँ जाति व्यवस्था की असाध्य बीमारी भी है। जातिवाद दलितों की आज़ादी को कम करने का एक बड़ा हथियार है और इसे ध्वस्त करने का कोई ब्रम्हास्त्र अभी तक खोजा नहीं जा सका है। संवैधानिक उपायों ने कुछ मदद ज़रूर की है, मगर सामाजिक ग़ैर बराबरी को कम करने के लिए जाति व्यवस्था को आपराधिक घोषित करना ज़रूरी होगा। 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि आज़ादी को बचाने के लिए ये जागरूकता पैदा करना बहुत ज़रूरी है कि लोग ये जानें कि आज़ादी किस चिड़िया का नाम है, वह बीमार क्यों होती जा रही है और अगर सबने मिलकर जल्द ही कुछ न किया तो वह विलुप्त हो जाएगी।

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