भीमा कोरेगांव का विजय स्मारक आज दलित स्वाभिमान और शौर्य का प्रतीक है। प्रतिवर्ष 1 जनवरी को पूरे देश से दलित यहां पहुंचकर पेशवा के ख़िलाफ़ महारों की वीरता और शौर्य का जश्न मनाते हैं। भीमा कोरेगांव सदियों तक होने वाले दलितों के दमन के प्रतिशोध का प्रतीक बन गया है। 1 जनवरी, 1818 को अंग्रेजों की तरफ से लड़ते हुए महार रेजीमेंट के सैनिकों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की भारी-भरकम फौज को परास्त किया था।

भीमा कोरेगांव में महारों के शौर्य के 200वें जलसे के दौरान हुई हिंसा के बहाने हिंदुत्ववादी ताकतें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का दमन करने पर उतारू हैं। पूरी दुनिया के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर जेल में होने वाली क्रूरता की निंदा की है। लेकिन दमन का सिलसिला थम नहीं रहा है।
पुणे से महज 19 किलोमीटर दूर भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में होने वाले इस युद्ध में शहीद हुए महारों सहित अनेक योद्धाओं के नाम इस शिला स्तंभ पर दर्ज हैं।
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।