ज़रा कल्पना कीजिए कि देश का एक शीर्ष नेता किसी ऐसे पत्रकार या सम्पादक से मिल रहा है जिसे उसका घोषित रूप से आलोचक माना जाता है। यह मुलाक़ात दोनों पक्षों के लिए असहज हो सकती है। ज़ाहिर है कि दोनों ही अपनी-अपनी तऱफ से शिष्टता की स्थापित आचार-संहिताओं का पालन करके उस भेंट की औपचारिकताओं को निबाहने की कोशिश करेंगे। लेकिन, हमारी यह कल्पना आज के जमाने में राजनीति और मीडिया के संबंधों पर फिट नहीं बैठती। आज के ज़माने में तो भरी प्रेस कांफ़्रेंस में अमेरिका के राष्ट्रपति सीएनएन (जो उनके आलोचक के तौर पर जाना जाता है) के नुमाइंदे के सवाल के जवाब में कहते हैं : ‘नो, यू आर फ़ेक न्यूज़।’
सभी घुटने नहीं टेकते
इसी तर्ज़ पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक टीवी चैनल के स्थापना-सम्मेलन में अपना स्वागत करने आये सम्पादक से कहते हैं कि आपने तो मुझे गाली देने वाले लोग भर रखे हैं। जवाब में अचकचाए हुए सम्पादक प्रधानमंत्री को आश्वस्त करने की कोशिश करते हैं कि वह ऐसे लोगों को राह पर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
अमेरिका और भारत के उदाहरण के बीच एक अंतर को रेखांकित करना ज़रूरी है। सीएनएन डोनल्ड ट्रम्प को वैसा कोई आश्वासन देने के लिए तैयार नहीं है जैसा भारत में नये टीवी चैनल के सम्पादक महोदय मोदी को तत्परता से देते हुए दिखते हैं।
यह अंतर बताता है कि दुनिया के पैमाने पर ऐसे राजनेताओं का बोलबाला बढ़ रहा है जो मीडिया द्वारा अपनी आलोचना बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन भारत की तरह सभी जगह मीडिया के सरबराहों ने ऐसे नेताओं के सामने घुटने नहीं टेके हैं। प्रश्न यह है कि भारत में मीडिया अपनी स्वायत्तता और गरिमा के इस क्षय को रोक पाने में असमर्थ क्यों है?
इस प्रश्न का पहला उत्तर मोटे तौर पर मीडिया और पूँजी के बीच के रिश्ते में तलाशा जा सकता है। मीडिया पहले भी पूँजी-सघन उद्यम था, लेकिन प्रिंट मीडिया के ज़माने में इस पूँजी-सघनता की सीमाएँ थीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मैदान में आने के बाद से मीडिया के आकार और विविधता में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है और साथ में पूँजी-सघनता की सीमाओं का बेतहाशा विस्तार हुआ है। अस्सी के दशक में जब भारत के टाइम्स ग्रुप का संचालन अमेरिका-पलट उत्तराधिकारियों के हाथ में पहुँचा तो उन्होंने संकल्प लिया कि वे अपने ग्रुप को दो सौ करोड़ की कम्पनी से बढ़ा कर पाँच सौ करोड़ तक ले जाएँगे। आज की तारी़ख में यह संकल्प बचकाना लगता है, क्योंकि आज तो एक रीजनल चैनल खोलने में ही पाँच सौ करोड़ से ज़्यादा की रकम लग जाती है।
नेशनल चैनल चालू करने का मतलब है कई हज़ार करोड़ का दाँव लगाना। जब इतनी बड़ी पूँजी मीडिया में दाँव पर लगी होगी तो सत्तारुढ़ ताक़तों की आलोचना लाज़िमी तौर पर लगातार घटती ही जाएगी।
पार्टियों की पूंजी
इस प्रश्न का दूसरा उत्तर इस विकराल पूँजी को गोलबंद करने वालों के किरदार पर निगाह डालने से मिल सकता है। मसलन, इस समय देश में कॉरपोरेट पूँजी के बाद मीडिया में सबसे ज़्यादा पूँजी राजनीतिक पार्टियों ने लगा रखी है। दिल्ली का कम से कम एक नेशनल चैनल लम्बे अरसे से (उस समय से जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री हुआ करते थे) गुजरात से आई पूँजी से मज़बूती पाता रहा है। एक दूसरा चैनल उत्तर प्रदेश में कमज़ोर जातियों की पार्टी समझी जाने वाली एक राजनीतिक ताक़त द्वारा लगाई गई रकम के आधार पर खड़ा हुआ है। कम से कम अन्य दो चैनल खुले तौर पर ऐसे स्रोतों से आई पूँजी से पनप रहे हैं जिनकी हमदर्दी नरेंद्र मोदी के साथ है। पंजाब में अकाली दल का अपना मीडिया साम्राज्य है जो चैनलों से लेकर केबल नेटवर्क तक फैला हुआ है। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जैसे प्रांतों में पार्टियों ने अपने चैनल खोल रखे हैं। दरअसल, क्षेत्रीय राजनीति में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर अधिकार करने की यह परम्परा दिल्ली से भी पुरानी है।राजनीतिक विमर्श का ध्रुवीकरण
दिल्ली में 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद राजनीतिक विमर्श का पूरी तरह से ध्रुवीकरण हो गया। इस प्रक्रिया में कई टीवी चैनल पूँजीगत और विचारधारात्मक कारणों से खुल कर मोदी-मोदी की रट लगाने लगे। न केवल उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी को बेहिचक समर्थन देना शुरू किया, बल्कि उनके एंकर विपक्षी दलों और उनकी राजनीति पर शत्रुतापूर्ण प्रहार करने लगे। समझा जाने लगा कि इन एंकरों को उनके मालिकों ने विपक्ष की ‘सुपारी’ दे दी है। इन्हीं कारणों से इस समय हालत यह है कि टीवी पर दिखाई जाने वाली बहसों में आम तौर पर एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ‘विचारक’ बैठाया जाता है, एक विश्व हिंदू परिषद का प्रवक्ता होता है और एक भाजपा का अधिकारिक प्रवक्ता। संतुलन का बहाना करने के लिए कांग्रेस के प्रवक्ता के साथ सरकार के एक आलोचक को भी बुला लिया जाता है।
बहस की विषयवस्तु गढ़ी ही इस तरह जाती है कि उसका विरोध करना नामुमकिन हो जाए। टीवी पर शीर्षक कुछ इस तरह के होते हैं : ‘मोदी ने कर दिखाया’, ‘अब विपक्ष को पानी कौन देगा’, ‘पाकिस्तान काँप रहा मोदी से’ आदि।
ख़बर या चुनाव प्रचार?
अभी दो दिन पहले प्रधानमंत्री दिल्ली के एक सभागार में अपना चौकीदार कार्यक्रम कर रहे थे। साफ़ तौर पर वह भाजपा का चुनाव प्रचार था। भाजपा के कई मुख्यमंत्री वहाँ मौजूद थे। सवाल पूछने वाले रटे हुए वाक्य बोल रहे थे। सवाल शुरू करने से पहले वे नरेंद्र मोदी की विरुदावलि गाते और फिर केवल उन मुद्दों पर सवाल पूछते जो भाजपा के प्रचार-मुद्दे हैं ताकि प्रधानमंत्री उन पर लम्बा-लम्बा जवाब दे सकें। अपेक्षाकृत निष्पक्ष समझे जाने वाली टीवी चैनलों पर यह कार्यक्रम लाइव दिखाया गया। क्या यह भाजपा का चुनाव-विज्ञापन था? मेरे विचार से नहीं। दरअसल, यह टीवी चैनलों की भाजपा के चुनाव-प्रचार को स्वत:प्रेरित श्रद्धांजलि थी। प्रधानमंत्री के प्रायोजित इंटरव्यू दिखाने की परम्परा तो 2014 से चालू है। पूरी-पूरी की चुनाव-रैलियों को दिखाना भी तभी शुरू हुआ था। इस खेल में पहले बाजी भाजपा ने मारी, और फिर कांग्रेस भी इसमें शामिल हो गई।
दरअसल, अपने प्रचार-कार्यक्रमों की सामग्री पार्टियाँ ही टीवी चैनलों को सप्लाई करने लगीं, और चैनलों ने उन्हें उत्साह से दिखाना शुरू कर दिया। ऐसी परिस्थिति में मीडिया की स्वायत्तता की दुर्गति तो होनी ही थी।
हालात कुछ ऐसे बन गए हैं कि अगर केंद्र में सत्ता बदलती है तो भी मीडिया को उसकी यह स्वायत्तता वापिस मिलने वाली नहीं है। वज़ह साफ़ है। मीडिया से यह स्वायत्तता छीनी नहीं गई है, बल्कि उसने इसे खुद पहलकदमी लेकर खोया है। यह मीडिया अगर किसी की नुमाइंदगी नहीं करता तो वह है इस देश की जनता। दरअसल, जनता की निगाह में यह मीडिया अपनी साख पूरी तरह से खो चुका है। इस साख को वापिस पाने के लिए एक नयी मीडिया क्रांति की आवश्यकता है जिसकी आहट फिलहाल दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रही है।
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