नरेंद्र सिंह तोमर
बीजेपी - दिमनी
जीत
प्रेम बुनियादी तौर पर मनुष्य को स्वाधीन बनाता है। प्रेम मनुष्य को अहम् जैसे विकारों से मुक्त करता है। प्रेम जोड़ने वाला भाव है। मनुष्य होने की प्रक्रिया है, प्रेम। प्रेम किसी भेदभाव को नहीं मानता। प्रेम की बुनियाद में समानता है। फिर आख़िर प्रेम से डर क्यों है? प्रेम करने वालों से नफ़रत क्यों है? प्रेम पर पाबंदी लगाकर हम कैसा समाज बनाने जा रहे हैं?
राजसत्ता, पितृसत्ता और धर्मसत्ता हमेशा प्रेम और प्रेम करने वालों के ख़िलाफ़ रही हैं। राजसत्ता द्वारा प्रेमियों को ज़िंदा दीवार में चुनवाने की अनेक दास्तानें हैं। पितृसत्ता ने इज्जत और मर्यादा के नाम पर विशेषकर स्त्रियों को ग़ुलाम बनाया है। उनके अहसासों और जज़्बातों पर बंदिशें लगाई हैं। धर्म और संस्कृति के स्वयंभू रक्षक हमेशा प्रेम पर पाबंदी लगाने की कोशिश करते रहे हैं। लेकिन प्रेम करने वालों ने हमेशा रूढ़ियों और बेड़ियों को ध्वस्त किया है। किसी भी सत्ता से निडर होकर लोग प्रेम करते रहे हैं। प्रेम जड़ समाज में सत्ताओं को हमेशा चुनौती देता रहा है। बेखौफ होकर उन्होंने मनुष्य बनने और प्रेम करने की सज़ा भी भुगती है। वास्तव में प्रेम ने समाज को मानवीय बनाने में एक साइलेंट रिवॉल्यूशन का काम किया है।
प्रेम एक शाश्वत भाव है। प्रेम तब भी था, जब कायनात बनी। प्रेम तब भी था, जब ईश्वर और ख़ुदा बने। प्रेम तब भी था, जब मंदिर, मठ, मसजिद और गिरजाघर बने। प्रेम तब भी था, जब जाति और धर्म बने। प्रेम तब भी था, जब सामंत और मठाधीश बने। प्रेम को मिटाने की लाख कोशिशें हुईं लेकिन प्रेम आज भी ज़िंदा है। प्रेम करने वालों ने जाति, धर्म, नैतिकता, मर्यादा जैसे तमाम बंधनों को तोड़ा। तमाम सरहदों को लांघकर वे मनुष्य होने की ख्वाहिश पूरी करते रहे। प्रेम अमिट है। अनारकली की दास्तान इसकी मिसाल है।
मध्यकाल में कितने जोड़े प्रेम के बंधन में रहे होंगे इसका उदाहरण एक मुहावरा है। 'जब मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी!' इस मुहावरे का समाजशास्त्र क्या है? यह मुहावरा मध्यकालीन भारत के सच का बयान है। जब शासक मुसलमान है, फिर भी काजी यानी धर्मगुरु प्रेमियों पर पाबंदियाँ नहीं लगा सके। ज़ाहिर है कि राजसत्ता का इसमें कोई ख़ास दखल नहीं होगा।
लेकिन आज 21वीं शताब्दी में लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई सत्ता प्रेमियों पर बंदिशें लगाने जा रही है। बीजेपी शासित पाँच राज्यों ने ‘लव जिहाद’ पर क़ानून बनाने का एलान किया है। यूपी सरकार ने तो अध्यादेश की तैयारी कर ली है।
लव जिहाद बीजेपी और हिंदुत्ववादी संगठनों का नया प्रोपेगेंडा है। हिंदुत्व की बुनियाद में ही विभाजन और नफ़रत है। जनसंघ और उसके बाद बनी भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा बांटने की राजनीति की है। हिन्दूराष्ट्र उसका लक्ष्य है और हिन्दुत्व उसकी विचारधारा। लव जिहाद हिन्दुत्व एजेंडे को आगे बढ़ाने का नया पैंतरा है।
सवाल यह है कि अचानक लव जिहाद पर बीजेपी एक्शन में क्यों है? लव जिहाद बीजेपी नेताओं की ज़बान पर कई सालों से है लेकिन अचानक इसे मुद्दा बनाने के क्या कारण हैं।
दरअसल, बीजेपी शासित राज्यों में बलात्कार और दूसरे अपराध इन दिनों चरम पर हैं। बेरोज़गारों और किसानों की बदहाली दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इन समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए लव जिहाद का प्रोपेगेंडा शुरू किया गया है। यह बहुत सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इसका दूसरा कारण हाल ही में संपन्न बिहार चुनाव है। इस चुनाव में तेजस्वी यादव ने रोज़गार और विकास का मुद्दा खड़ा किया। यह हिंदुत्व का काउंटर नैरेटिव है। बिहार में तमाम कोशिशों के बावजूद हिंदुत्व का एजेंडा कामयाब नहीं हुआ। तेजस्वी ने सरकारी नौकरियों का वादा किया। इससे नौजवान बहुत आकर्षित हुए। बीजेपी इस काउंटर नैरेटिव को ध्वस्त करना चाहती है।
बीजेपी के रणनीतिकार जानते हैं कि अगर रोज़गार और विकास का नैरेटिव मज़बूत हुआ तो बंगाल, असम और उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनावों में बीजेपी के लिए मुश्किलें हो सकती हैं। जिन प्रदेशों में बीजेपी सत्ता में नहीं है वहाँ की सरकारें केंद्र की मोदी सरकार के सामने रोज़गार, विकास, अर्थव्यवस्था के डूबने और सरकारी संपत्तियों के बेचने के मुद्दों को उठा सकती हैं। इसलिए बीजेपी का थिंकटैंक विशेष रूप से हिंदू नौजवानों को लव जिहाद जैसे नफ़रती एजेंडे में फँसाकर गुमराह करना चाहती है।
दिलचस्प यह है कि लव जिहाद जैसी शब्दावली किसी इसलामिक कट्टरपंथी संगठन की ईज़ाद नहीं है। यह कट्टरपंथी हिंदुत्व की राजनीति की उपज है। दरअसल, पिछले कुछ सालों से मुसलमानों का पैशाचीकरण करने की प्रक्रिया चल रही है। यह हिंदुत्ववादी राजनीति का दीर्घकालीन एजेंडा है। इस एजेंडे को बढ़ाने में गोदी मीडिया की बड़ी भूमिका है। ग़ौरतलब है कि कोरोना संकट की शुरुआत में दिल्ली के तब्लीग़ी जमात के मरकज में शामिल हुए मुसलमानों को गोदी मीडिया द्वारा कोरोना जिहादी के रूप में प्रचारित किया गया। एक न्यूज़ चैनल के एंकर ने तो यहाँ तक एलान कर दिया कि तब्लीग़ी मुसलमान पूरे भारत में कोरोना फैला रहे हैं।
इसी तरह सुदर्शन टीवी ने आईएएस की परीक्षा में सफल होने वाले मुसलिम नौजवानों को भी जिहादी बताने की कोशिश की। चैनल यूपीएससी जिहाद नामक एक सीरीज़ प्रसारित करने वाला था, जिसपर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाई है। यह समाज को विभाजित करने और मुसलमानों का पैशाचीकरण करके उनका हाशियाकरण करने की साज़िश है। इसके मार्फत मुसलमानों को अलग-थलग करके उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाना है। यही हिंदुत्व का राजनीतिक एजेंडा है।
लव जिहाद जैसे जुमलों से बीजेपी और अन्य हिंदुत्ववादी जमातों को हिंदू धर्म की ख़ुद मुख्तारी करने का मौक़ा मिलता है। धर्म, संस्कृति, मर्यादा और नैतिकता के स्वयंभू रक्षक ऐसे कट्टरपंथी संगठन पहले भी नौजवानों को टारगेट करते रहे हैं। वेलेनटाइन डे पर बजरंग दल और श्रीराम सेना के कार्यकर्ता प्रेमी जोड़ों को सरेआम पीटते रहे हैं। लेकिन यही स्वयंभू भारतीय संस्कृति के रक्षक गौरी लंकेश, सोनिया गांधी या किसी फेमिनिस्ट, वामपंथी आंदोलनकारी और मानवाधिकार से जुड़ी हुई महिला के लिए अभद्र और अश्लील भाषा का प्रयोग करते हैं।
लव जिहाद के नाम पर स्वयंभू भारतीय संस्कृति के रक्षकों को लड़कियों को सबक़ सिखाने और उनके मां-बाप को हिदायत देने का लाइसेंस मिल जाएगा।
पिछले दिनों यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लव जिहाद का डर दिखाया है। उन्होंने हिंदू मां-बाप को आगाह करते हुए कहा है कि अपनी बेटियों पर नज़र रखिए कि वे कहाँ और किससे बात करती हैं। अपनी सांप्रदायिक भाषा में मुसलमानो़ की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने एलान किया कि जो लव जिहाद करेगा उसका राम नाम सत्य हो जाएगा। यह एक संवैधानिक पद पर बैठे हुए मुख्यमंत्री की भाषा है! दरअसल, यह हिंदुत्व की भाषा है।
हिंदुत्व बुनियादी तौर पर मुसलिम, स्त्री और दलित विरोधी विचारधारा है। लव जिहाद के मूलतः दो लक्ष्य हैं। पहला, मुसलमानों के प्रति नफ़रत पैदा करना और दूसरा, हिंदू लड़कियों की आज़ाद सोच को ख़त्म करना। स्त्री के प्रेम भाव और उसकी यौनिकता को नियंत्रित करना। मनुस्मृति से लेकर तुलसीकृत रामचरितमानस जैसे ग्रंथों में स्त्री को पराधीन बनाकर चित्रित किया गया। पितृसत्ता स्त्री को सिर्फ़ एक मादा के रूप में देखती है। धर्मसत्ता और पितृसत्ता की नज़र में स्त्री बुनियानी तौर पर कामुक होती है। इसलिए वह किसी भी पुरुष पर रीझ सकती है। स्त्री महज शरीर है, जिसमें केवल सुख का अहसास है। उसमें ज्ञान, चेतना और विवेक संभव नहीं है। इसलिए पुरुष संबंधी उसकी सुरक्षा करते हैं। स्त्री को हमेशा पुरुष की छत्रछाया में रहना चाहिए। स्त्री को पराधीन बनाने वाले पुराणों और स्मृतियों के विधानों से प्रेरित संस्कृति के स्वयंभू रक्षक स्त्री की यौन शुचिता और उसकी मर्यादा के ठेकेदार बन गए हैं। वास्तव में, यह स्त्री को ग़ुलाम बनाने का ज़रिया है।
स्त्री को अपने अधीन बनाकर पुरुष समाज सदियों से उसका शोषण करता रहा है। लेकिन आधुनिक काल में राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई से लेकर जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी और डॉ. आंबेडकर ने स्त्री की आज़ादी के लिए बहुत से प्रयत्न किए। आज़ादी के आंदोलन में स्त्रियों ने भाग लिया। इस क़दम से उन्हें पुरुषों के बराबर खड़े होने का मौक़ा मिला। देश की आज़ादी की चेतना के साथ उनके भीतर भी निजी चेतना का अहसास हुआ। आज़ादी के बाद संविधान में स्त्री को बराबरी का हक मिला। पिछले सात दशकों के सफर में स्त्रियों ने तमाम क्षेत्रों में अपनी मेहनत और लगन से बड़ी-बड़ी कामयाबी हासिल की हैं। दहलीज के बाहर निकलकर उन्होंने ख़ुद को साबित किया है। अपनी निजी पहचान कायम की है। इस प्रक्रिया में जाहिर तौर पर पुरुषों के बनाए हुए तमाम भेदभावपरक विधान ध्वस्त हुए हैं। स्त्रियों ने बंधनों को तोड़ा है। विवाह संस्कार से लेकर परिवार जैसी संस्थाओं को उन्होंने ढोने से इनकार कर दिया है। उन्होंने रोना छोड़ दिया है।
पितृसत्तात्मक सोच वाले मर्दों को स्त्री का हँसना भी बर्दाश्त नहीं है। वे उसे कठपुतली बनाकर रखना चाहते हैं। लव जिहाद का डर दिखाकर स्त्री को फिर से दहलीज के भीतर धकेलने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि यह सभी पुरुषों का नज़रिया नहीं है। लेकिन समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म, संस्कृति और मर्यादा के नाम पर संघी राजनीति का समर्थक है। यही कारण है कि इस तरह के सांप्रदायिक और स्त्री विरोधी एजेंडे का व्यापक स्तर पर विरोध नहीं हो रहा है।
पिछले दिनों भारत सरकार के गृह मंत्रालय की ओर से एक सवाल के जवाब में कहा गया कि उसके पास लव जिहाद का एक भी मामला दर्ज नहीं है। बीजेपी के समर्थकों का कहना है कि चूँकि अभी तक लव जिहाद क़ानून में परिभाषित नहीं है इसलिए कोई मामला दर्ज नहीं हुआ है। उनका कहना है कि बहुत सारे मुसलिम लड़के नाम बदलकर हिन्दू लड़कियों से प्रेम का ढोंग करते हैं। उन्हें गर्भवती करते हैं। इसके बाद दबाव डालकर उन्हें मुसलमान बनाकर निकाह करते हैं। केरल और यूपी में लड़की के धर्म परिवर्तन करके अपने प्रेमी से निकाह करने के मामले सामने आए हैं। लेकिन इन वयस्क लड़कियों ने अदालत में कहा है कि उन्होंने अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन और निकाह किया है।
अव्वल तो हमारे समाज में स्त्री का न कोई धर्म होता है और न कोई जाति। वह एक सामान है। इसीलिए माँ-बाप शादी में उसका दान संस्कार करते हैं। ख़ासकर सवर्णों में शादी होते ही लड़की का सरनेम बदल जाता है। लेकिन मसला इसका नहीं है। मसला लड़की की निजता और उसके अधिकार का है।
भारतीय संविधान की धारा 21 सभी भारतीयों को अपने अनुसार रहने, खाने-पीने, व्यवहार करने की इजाज़त देता है। प्रेम करना, शादी करना, धर्म बदलना स्त्री का निजी अधिकार है। ग़ौरतलब है कि हिंदुत्ववादी पहले लड़कियों के पहनावे और घूमने-फिरने की आज़ादी पर पाबंदी लगाने की बात करते रहे हैं। कुछ भाजपाई मानते हैं कि छेड़खानी और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों के लिए लड़कियाँ ही दोषी हैं। उनका कहना है कि लड़कियाँ अपने पहनावे और स्वतंत्रता से मर्दों को आकर्षित करती हैं। बिल्कुल इसी तरह मुसलिम कट्टरपंथी भी अपनी औरतों और बेटियों को पर्दे और सलीके में रहने की हिदायत देते हैं। दकियानूसी के मामले में दोनों धर्मों के कट्टरपंथी एक जैसे हैं।
बुनियादी सवाल यह है कि 18 साल के नौजवान को अगर मत देने और सरकार चुनने का अधिकार है तो जीवन साथी चुनने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए? भारत का क़ानून भी 18 साल की लड़की को वयस्क मानता है। उसे शादी करने का अधिकार देता है। फिर सरकार या संस्कृति के रक्षकों को क्या आपत्ति है? क्या बीजेपी सरकार और उसके आनुषंगिक संगठन संविधान और क़ानून को नहीं मानते? इसका सामाजिक पहलू यह है कि पारंपरिक सोच वाले मर्दों को लगता है कि लड़की के जीवन के किसी भी फ़ैसले पर उनका अधिकार है। उसका अपना फ़ैसला सही नहीं हो सकता। उनका मानना है कि लड़की बुनियादी स्तर पर नासमझ होती है। हिन्दुत्ववादी उनकी इसी सोच पर सांप्रदायिकता का रंग चढ़ाते हैं। उन्हें कहा जाता है कि विधर्मी हिन्दू लड़कियों को बरगलाकर उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं। बहला-फुसलाकर या धमकी देकर ऐसी लड़कियों का धर्म परिवर्तन कराया जाता है।
बीजेपी और उनके आनुषंगिक संगठनों द्वारा लव जिहाद के नाम पर मर्यादा और धर्म परिवर्तन का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। जबकि धर्म परिवर्तन की सच्चाई कुछ और है। यह सच है कि शादी या निकाह जैसे निजी कारणों से व्यक्तिगत तौर पर धर्म परिवर्तन होता है।
लेकिन हिंदुओं के सामूहिक धर्मांतरण पर हिन्दुत्ववादी क्यों खामोश रहते हैं? बाबा साहब आंबेडकर ने 1955 में तीन लाख अस्सी हज़ार दलितों के साथ सामूहिक रूप से धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म अपनाया। बाबा साहब के निर्वाण के समय क़रीब एक लाख बीस हज़ार दलितों ने बौद्ध धर्म अपनाया। उन्होंने किसी प्रलोभन या दबाव में ऐसा नहीं किया था। पिछले दिनों हाथरस में वाल्मीकि समाज के लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया। दरअसल, वाल्मीकि समाज की लड़की के साथ उच्च जाति के दबंगों ने बलात्कार करके उसकी गरदन तोड़ दी थी। कुछ दिनों बाद लड़की की मौत हो गई। उसने अपने बयान में बलात्कारियों के नाम दर्ज कराए थे। बावजूद इसके यूपी की बीजेपी सरकार और तमाम हिंदूवादी संगठन आरोपियों के पक्ष में खड़े हुए थे। इस अन्याय के विरोध में वाल्मीकि समाज के लोगों ने हिन्दू धर्म छोड़ दिया।
दरअसल, हिंदू समाज की मुख्य समस्या जाति और उसमें व्याप्त भेदभाव है। मध्यकाल से लेकर अब तक करोड़ों दलितों ने हिंदू धर्म के जातिगत उत्पीड़न और अन्याय से तंग आकर धर्म परिवर्तन किया है। हिन्दुत्ववादी जाति की समस्या पर कुछ नहीं बोलते। वे जाति-व्यवस्था के समर्थक हैं। इसलिए बीजेपी का लव जिहाद का एजेंडा और इस पर आने वाला क़ानून मुसलमानों के ख़िलाफ़ तो है ही, दलितों और स्त्रियों के ख़िलाफ़ भी है। लेकिन बुनियादी स्तर पर यह मनुष्यता विरुद्ध है।
(लेखक दलित चिंतक हैं।)
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