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गजेंद्र हाथी की रक्षा के लिये भगवान दौड़े थे, अब वो अनाथ क्यों

हिन्दू धर्म से संबंधित भागवत पुराण के 8वें स्कन्ध में ‘गजेन्द्रमोक्ष’ नाम की कथा का वर्णन है। इस कथा के अनुसार, क्षीरसागर, जहां भगवान विष्णु का निवास स्थान है, में त्रिकूट नाम का एक पर्वत था जिसके चारों ओर एक घना जंगल था उसमें गजेन्द्र नाम का एक हाथी अपने परिवार और समूह के साथ रहता था। एक दिन जब थक कर वह एक सरोवर में घुसकर नहाने और पानी पीने लगा तभी उसमें रहने वाले एक मगरमच्छ ने उसका पैर अपने नुकीले दांतों वाले मुँह से दबोच लिया। हाथी और उसके साथियों ने उसे छुड़ाने की बहुत कोशिश की लेकिन मगरमच्छ बहुत शक्तिशाली था, इसलिए गजेन्द्र छूट नहीं पा रहा था, वह लगातार मृत्यु के करीब जा रहा था तभी उसने भगवान विष्णु को याद किया। 

गजेन्द्र भगवान का अनन्य भक्त था। उसके दर्द, पीड़ा और तत्काल मदद की आवश्यकता को देखते हुए भगवान विष्णु नंगे पैर ही दौड़ पड़े ताकि गजेन्द्र का जीवन बचाया जा सके। अंततः उन्होंने गजेन्द्र को बचा लिया। 

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भागवत पुराण में वर्णित यह कहानी कई अर्थों में ली जा सकती है लेकिन मैंने जो अर्थ निकाला वह यह है कि भारतीय परंपरा में मदद की आवश्यकता के लिए स्वयं भगवान ने जीवन बचाने से अधिक महत्व किसी अन्य नीति को नहीं दिया, उन्होंने किसी उचित फॉर्मैट पर मदद मांगे जाने की भी परवाह नहीं की, उन्होंने अपने ड्रेसकोड पर भी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने जिस चीज को सबसे ऊपर रखा, वह था जीवन बचाने की आवश्यकता का, इसके साथ ही कमजोर और ताकतवर के बीच, कमजोर और मजबूर के साथ खड़े रहने के ‘अलिखित’ और ‘अवर्णित’ समझौते का।

लेकिन 14 से 25 नवंबर तक चले CITES (वन्य जीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर सम्मेलन) के पनामा कन्वेन्शन के दौरान भारत सरकार और उसके नुमाइंदे जो लगातार अपने ड्रेसकोड में थे, उन्होंने वर्षों से चली आ रही भारतीय प्रतिबद्धता को नकार दिया। 

भारतीय परंपरा में जिस हाथी को बचाने के लिए भगवान स्वयं दौड़ पड़े उसके जीवन को बचाने के लिए CITES कन्वेन्शन, पनामा सिटी में जब 184 देशों के बीच वोटिंग चल रही थी तब भारत ने अपनी परंपरा के विरुद्ध वोटिंग में शामिल नहीं होने का निर्णय लिया। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण क्या हो सकता है?

1963 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वैशन ऑफ नेचर (IUCN) की एक बैठक के दौरान CITES अर्थात कन्वेन्शन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन इंडैन्जर्ड स्पीशीज़ ऑफ वाइल्ड फॉना एण्ड फ्लोरा, के लिए एक मसौदा तैयार किया गया। जिसका उद्देश्य यह था कि चयनित पौधों और जंतुओं की प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया जाए ताकि उनके अंधाधुंध दोहन और इसलिए उनके विलुप्त होने के खतरे को कम से कम किया जा सके। कानूनी रूप से बाध्यकारी यह अंतर्राष्ट्रीय समझौता जिसे वाशिंगटन समझौते के नाम से भी जाना जाता है, 1975 से लागू हो गया। भारत 1976 में 25वें सदस्य के रूप में इसमें शामिल हो गया। CITES के अंतर्गत 3 परिशिष्ट बनाए गए हैं जिनमें विभिन्न प्रजातियों को, उनपर मंडरा रहे खतरों के अनुसार स्थान दिया गया है। 

परिशिष्ट-1 में उन प्रजातियों को स्थान दिया गया है जो सबसे अधिक संकटापन्न हैं। परिशिष्ट-2 में उन प्रजातियों को शामिल किया जाता है जो अभी तो खतरे में नहीं हैं लेकिन अगर उनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को समय रहते नियंत्रित नहीं किया जाए तो वो जरूर विलुप्त हो सकती हैं। जबकि परिशिष्ट-3 में उन प्रजातियों को शामिल किया जाता है जिन्हें किसी पक्षकार (पार्टी अर्थात देश) के अनुरोध पर शामिल किया जाता है, जिनका व्यापार पक्षकार देश द्वारा पहले से ही विनियमित किया जा रहा है लेकिन वह देश उस प्रजाति के अत्यधिक दोहन रोकने के लिये दूसरे देशों से सहयोग चाहता है। 

पनामा की राजधानी पनामा सिटी में CITES के COP-19 का आयोजन 14 से 25 नवंबर के बीच किया गया। इस दौरान हाथी दाँत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को खोलने की मांग को लेकर जिम्बाब्वे द्वारा पेश किया गया प्रस्ताव जितना चर्चा में रहा उससे अधिक चर्चा इस प्रस्ताव पर भारत के स्टैन्ड को लेकर हुई। 1989 में अफ्रीकी हाथियों की पूरी संख्या को CITES के परिशिष्ट-1 में डाल दिया गया। इसका अर्थ था कि अफ्रीकी हाथियों और उनके अंगों का अब किसी भी किस्म का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अवैध माना जाएगा। वर्ष 1997 में नामीबिया, बोत्सवाना और जिम्बाब्वे के और वर्ष 2000 में दक्षिण अफ्रीका के हाथियों की संख्या को परिशिष्ट-2 में स्थान दे दिया गया। जिसका अर्थ था कि इन देशों के हाथी दाँत व्यापार को सख्त तरीके से नियंत्रित किया जाएगा। लेकिन यह चारों देश यह चाहते थे कि हाथी दाँत के व्यापार को परिशिष्ट- 2 से भी हटा दिया जाए। उनका मानना था कि हाथी दाँत के नियंत्रित व्यापार और सतत उपयोग से जो धन प्राप्त होगा उससे हाथियों के संरक्षण को प्रोत्साहित किया जा सकेगा। लेकिन CITES के अन्य पक्षकार देश इस तर्क से सहमत नहीं थे। इसलिए पहले COP-17(2016) और फिर COP-18(2019) में इस संबंध में नामीबिया द्वारा लाए गए प्रस्ताव सफल नहीं हो सके।

वर्तमान COP-19 के दौरान ऐसा ही प्रस्ताव नामीबिया के समर्थन से जिम्बाब्वे द्वारा लाया गया लेकिन यह प्रस्ताव भी सफल नहीं हो सका। इस प्रस्ताव के समर्थन में मात्र 15 वोट पड़े जबकि इसके विरोध में 85 वोट पड़े। भारत ने अप्रत्याशित रूप से इस वोटिंग में भाग न लेने का निर्णय लिया। भारत जबसे CITES में शामिल हुआ है तबसे यह पहला मौका है जब भारत ने इस प्लेटफॉर्म पर किसी मुद्दे पर वोट न देने का फैसला लिया हो। 

हाथियों को लेकर भारत का यह स्टैन्ड भारत के ऐतिहासिक स्टैन्ड से पूर्णतया उल्टा है।


1975 में एशियाई हाथी को CITES, परिशिष्ट-1 में डाला गया। 1986 में भारत ने एक कदम और आगे बढ़ाकर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में संशोधन किया ताकि हाथी दाँत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के साथ साथ घरेलू व्यापार पर भी प्रतिबंध लगाया जा सके। यहाँ तक कि जब 1989 में हाथी दाँत के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर वैश्विक प्रतिबंध लग गया तब भारत ने फिर से अपने कानून में संशोधन करके अफ्रीकी हाथी दाँत के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 1992 राष्ट्रीय स्तर पर ‘प्रोजेक्ट-हाथी’ शुरू किया गया ताकि हाथियों के संरक्षण को गति प्रदान की जा सके। 

हाथी दाँत के व्यापार के खिलाफ भारत लगातार CITES के साथ खड़ा दिखा और लगातार वन्यजीवों के संरक्षण को लेकर चल रहे अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के साथ अपनी प्रतिबद्धता दिखाई। CITES, भारत और हाथी दाँत आपस में इतना अधिक जुड़े हुए हैं कि जब 1981 में भारत को इस कन्वेन्शन की मेजबानी का मौका मिला तो भारत द्वारा CITES के लिए एक लोगो बनाया गया। हाथी के संरक्षण को प्रदर्शित करता यह लोगो इतना शानदार और नवाचार से भरा था कि सभी पक्षकार देशों द्वारा इसे CITES के आधिकारिक लोगो के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गई जोकि आज भी लागू है। हाथियों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता इतनी ठोस थी कि हाथी दाँतों के व्यापार से संबंधी जितने भी प्रस्ताव COP-8(1992), COP-9(1994), COP-10(1997), COP-11(2000), COP-17(2016) और COP-18(2019) के दौरान लाए गए, भारत ने हमेशा खुलकर इसका विरोध किया।

भारत की मेजबानी में आयोजित 1981 की COP-3 को उस समय की “सबसे बेहतरीन मेजबानी वाली बैठक” माना गया। संरक्षण को लेकर भारत की शानदार वकालत और CITES के मौलिक विचार और दर्शन में विश्वास को लेकर 1983 और 1985 में आयोजित COP की चौथी और पांचवीं बैठक में भारत की व्यापक सराहना हुई। COP-5 के अंत में लगभग तीस अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों ने अपने हस्ताक्षर से भारतीय प्रतिनिधिमंडल की प्रशंसा कुछ इन शब्दों में की- "हम (CITES)संधि को कमजोर करने के बढ़ते प्रयासों के बावजूद, कन्वेंशन के लिए शब्द और भावना दोनो को बनाए रखने के लिए भारत के मेहनतकश प्रयासों के लिए अपनी गहरी कृतज्ञता और प्रशंसा व्यक्त करना चाहते हैं। विश्व के संकटग्रस्त जीवों और वनस्पतियों की रक्षा में भारत द्वारा की गई हिमायत और अथक परिश्रम दुनिया के लिए एक प्रेरणा है।"

1981 में ही भारत को CITES की स्टैन्डिंग कमेटी की अध्यक्षता के लिए चुना गया। यह स्टैन्डिंग कमेटी CITES की सबसे अहम व निर्णायक कमेटी है। 1981 से 1987 तक भारत इस कमेटी का अध्यक्ष बना रहा, यह अप्रत्याशित गौरव अब तक किसी अन्य देश को प्राप्त नहीं है। 

वैश्विक समुदाय और भारत के पर्यावरण प्रेमी सरकार से सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर अचानक ऐसा क्या बदला जिसने भारत की नैतिक प्रतिबद्धता और विभिन्न मंचों पर दिए गए अपने वक्तव्यों को बदलने पर मजबूर कर दिया। कुछ लोग इसे कुछ दिन पहले नामीबिया से लाए गए चीतों से जोड़कर देख रहे हैं।


नामीबिया के साथ जुलाई में 8 चीतों के भारत भेजने को लेकर समझौता हुआ था। ये चीते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्म दिवस, 17 सितंबर के मौके पर कूनो नैशनल पार्क, मध्य प्रदेश में लाए गए। स्वयं प्रधानमंत्री ने इनका स्वागत किया। यह मुद्दा पूरे देश में लोगों के बीच मीडिया के माध्यम से छाया रहा। इसके बदले भारत ने नामीबिया के साथ एक समझौता किया था जिसके तहत भारत ने “जैवविविधता के सतत उपयोग और प्रबंधन” को प्रोत्साहित करने के लिए नामीबिया को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों में सहयोग करने का वादा किया था। नामीबिया सरकार के आधिकारिक प्रवक्ता ने यह बात बताई है कि नामीबिया की ओर से इस समझौते के तहत CITES की बैठक में हाथी दाँत के व्यापार पर से प्रतिबंध हटाने को लेकर भारत से समर्थन मांगा गया था। यद्यपि भारत सरकार इस बात से इंकार कर रही है लेकिन यदि सभी तथ्यों को आपस में जोड़कर देखें तो पता चलेगा-

प्रधानमंत्री के जन्मदिन, चीते, नामीबिया, हाथी दाँत के व्यापार और CITES में भारत के पलटे हुए रुख का आपस में सीधा संबंध है। अगर यह सच है तो वाकई चिंता की बात है।


पर्यावरण और जैवविविधता को बचाने के लिए भारत की पूर्व सरकारों ने अथक प्रयास किया है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 1980 में अलग से एक पर्यावरण विभाग बनाया ताकि इससे संबंधित मुद्दों को सही समय पर सुलझाया जा सके। यही विभाग 1985 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय बना। इससे पहले इंदिरा गाँधी ने 1969 में IUCN की बैठक का सफल आयोजन दिल्ली में करवाया। 1972 में लैंडमार्क वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और 1972 के स्टॉकहोम कन्वेन्शन में भाग भी लिया। वो लगातार पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण के मुद्दों को लेकर सजग रहीं। कभी भी इस पर दबावकारी स्वार्थी राजनीति को हावी नहीं होने दिया। 

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UNEP के तत्कालीन कार्यकारी निदेशक डॉ. मुस्तफा टॉलबा को,1981 में दिए गए एक साक्षात्कार में श्रीमती गाँधी ने पर्यावरण को लेकर अपनी स्पष्ट समझ के संकेत दिए थे। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था “भारत में चिपको आंदोलन जैसे आंदोलन में अब संकेत मिल रहे हैं कि हमारे लोग इसे (पर्यावरण संरक्षण) समझने लगे हैं। पर्यावरण संरक्षण की यह अवधारणा हमारे लिए नई नहीं है। भारतीय परंपरा ने हमें सिखाया है कि जीवन के सभी रूप आपस में घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।…. भारतीय संविधान ने पारिस्थितिक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता के लिए विशिष्ट संदर्भ दिया है, और पर्यावरण को राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रीय चिंता के मुद्दे के रूप में मान्यता दी गई है।…”

भारत की वर्तमान सरकार से भी अपेक्षा है कि वो पर्यावरण को सुरक्षित और संरक्षित रखने की हमारी परंपरा और संवैधानिक दायित्वों के आगे किसी निहित व्यक्तिगत, छोटे और निम्नस्तरीय स्वार्थों को आगे आने से रोकें क्योंकि इससे भारत और इसकी विरासत को गंभीर चोट पहुँचती है, जोकि किसी भी हालत में उचित नहीं है।  

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वंदिता मिश्रा
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