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प्रतीकात्मक तसवीर।

लॉकडाउन: 'माँ बापू का काम छूटा है, आज पहली बार भीख माँगने निकली तो माँ ख़ूब रोई'

लॉकडाउन काल अब बहुत निष्ठुर और निर्मम दौर में आ पहुँचा है। ज़रा भी अपने घेरे से निकलिए। बाहर झाँकिए। और ग़रीब बस्तियों की आहट भर लीजिए। बिना ध्वनि की चीत्कारें आपका दिल चीरकर रख देती हैं। अजीब मुर्दनी सी छा गयी है, इन बस्तियों में। भूख और रोटी न मिलने की आशंका इन्हें बेचैन किये है। वे यही सवाल करते हैं, बाबू जी ये किरौना कब बिदाई लेगा? रामनायक का सवाल था।

रामनायक नोएडा के गेझा गाँव में रहता है। वैसे ओडिशा का रहने वाला है। साल में एक या दो बार अपने देस जाता है। परिवार वहीं रहता है। यहाँ किराए के कमरे में तीन अन्य साथियों के साथ रहता है। पेशे से प्लंबर है। लेकिन एक साल पहले एक अपार्टमेंट से नौकरी छूट गयी थी। सो ख़ुदरा काम करता आया है। अब सब ठप है। गाँव हर महीने ख़र्च भेजता था। वहाँ पत्नी और माँ बीमार है। वहाँ से रोज़ फ़ोन आता है। उधार लेकर कुछ भेजा था। अब किससे माँगे? सारे साथियों का हाल तो ऐसा ही है।

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...गेझा गाँव सेक्टर 93 में आता है। इसके पास ही यहाँ आठ-दस बड़े अपार्टमेंट हैं। जिनमें उच्च मध्यवर्गीय परिवार रहते हैं। इनके फ्लैटों में काम करने वाली बाई यानी मेड यहीं रहती हैं। सुरक्षा गार्ड, माली व साफ़-सफ़ाई करने वाले रहते हैं।

अपार्टमेंट में गार्ड और चतुर्थ श्रेणी के कर्मियों पर आमतौर पर संकट नहीं आया है। लेकिन क़रीब तीन हज़ार मेड संकट में हैं। क्योंकि ये घरेलू काम पार्ट टाइम ही करती हैं। आमतौर पर एक एक मेड चार-छह जगह काम कर लेती है। ऐसे वे अपने मर्दों से ज़्यादा कमाती रही हैं। इनके मर्द रिक्शा चलाने जैसे काम करते हैं। ज़्यादातर दारू पीने जैसे ऐब भी पाल लेते हैं। घर आने वाली बाइयों का यह रोज़ का रोना-झींकना होता है। वे काम करते करते मेम साहिबान को अपना दुखड़ा सुनाती रहती हैं।

ख़ैर, ग़रीब बस्ती का यह अपना समाज शास्त्रीय पहलू है। लेकिन जब संकट रोटी पर आता है तो इनकी ज़िंदगी का नरक ज़्यादा ही रौरव होने लगता है। आज शाम लंबे अर्से के बाद गेझा बाज़ार गया। ग्रॉसरी सहित तमाम दुकानें खुली थीं। अपार्टमेंट के पास ही है, यह बाज़ार। एक अजब नज़ारा देखकर हैरान रह गया। 

कुछ दुकानों के पास चार से लेकर सात आठ साल के बच्चों के झुंड थे। कम से कम पचास बच्चे ज़रूर रहे होंगे। ये सब रोटी के लिए पैसे माँग रहे थे। बारह सालों से यहाँ रह रहा हूँ। यह दृश्य एक सदमे जैसा लगा।

थोड़ी पड़ताल कर डाली। यही बताया गया कि आठ दस दिनों से ही ये बच्चे भीख माँग रहे हैं। ज़्यादातर प्राइमरी स्कूल में पढ़ते हैं। कुछ बच्चियाँ भी थीं। कुछ माँगते वक़्त शरमा रही थीं। 

एक से कुछ पूछ लिया तो रो पड़ी। उसकी आँखें डबडबाई थीं। माँ बापू का काम छूटा है। वो बोली, आज पहली बार भीख माँगने निकली तो माँ ख़ूब रोई थी। वो कह रही थी कि भगवान इतने बुरे दिन हम ग़रीबों को क्यों दिखा रहा है?

कोरोना से बचाव के साथ जहान की चिंता शुरू हुई है। प्रशासन के साथ अपार्टमेंट के आरडब्लूए के अपने क़ानून हैं। बहसें हैं। विवाद हैं। मेड के बगैर दिक्कतें हैं। जेर ए बहस है कि एक मेड एक ही  फ्लैट में काम करे। सवाल है कि उसकी पूरी पगार का क्या होगा?

बहस है कि मेड एक फ्लैट में काम करेगी तो क्या गारंटी है कि वो दूसरे अपार्टमेंट में चुपके से नहीं करेगी? सवाल दर सवाल हैं। यही कि वो दढ़बों रहती हैं, सो संक्रमित होने के ज़्यादा चांस हैं। जनाब! हमारे ही अपार्टमेंट में ही मेल पर ज्ञानियों ने क़रीब पचास सुझाव एक घंटे में दे डाले। तीन दिन से बहस जारी है। फ़ैसला रुका हुआ है। खाते-पीते नव अमीरों को सेवाएँ तो सब चाहिए। लेकिन धारणा यही रहती है कि ग़रीब ही संक्रमण के वाहक हैं। रिटायर प्रशासनिक अधिकारी गण काफ़ी हैं। सो उनके कुछ सुझाव भी हवा हवाई क़िस्म के होते हैं। भारत सरकार में बड़े ओहदे से रिटायर हुए साहब का सुझाव रहा कि मेड से शपथपत्र ले लिया जाए? इसमें ज़्यादा आगे नहीं जाते। 

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बाई को भी शपथपत्र देंगे?

जब सवाल किया गया कि क्या बाई को भी शपथपत्र दिया जाएगा कि उसे फ्लैट मालिक के यहाँ से संक्रमण लगे तो पूरा हर्जाना वो भरेगा? ज़ाहिर है कि यह सवाल किसी साहब को रास नहीं आया। मुख्य गेट के बाहर रोज़ सुबह कुछ बाइयाँ रुका हुआ फ़ैसला जानने आती हैं। और मायूस होकर लौट रही हैं। आज गेझा में एक बाई मिल गई, जो कभी हमारे यहाँ भी सेवा दे चुकी थी। वह दुखी भी थी और ग़ुस्से में भी थी। 

बाबूजी बताओ? आपके यहाँ गारड और सफ़ाई वाले हमारी तरह ही रहें। वे सब काम पर जाएँ। जू कि उनके बगैर आपका काम न चलै। उनसे तो किरौना न फैलो। ग़रीब बाइयाँ से इतना डर काहे को?
बाई के तर्क का सही जवाब मेरे पास नहीं था। यही कहा, अभी फ़ैसला हो नहीं पाया है। उसकी आँखें भर आयी थीं। बोली, सर! ग़रीब से सबै छल कर लें। चाहे सरकार हो यह आप लोग। आँसू पोछते-पोछते शायद उसे लगा कि वो ज़्यादा कड़क बोल गयी है। सो बात सभांली। कहा, दुख में कुछ ग़लत बोल गयी तो माफ़ी चाहूँ! मैं कुछ क्षणों के लिए अवाक रह गया। उसके दर्द भरे शब्द बेचैन कर रहे थे। जाते जाते वो बोल गयी। जिन अपने बच्चों को पेट काटकर पढ़ाते हैं, उन्हें सिपाही जी और टीचर जी बनाने का सपना रहा। अब मजबूरी में पैसा टके माँगने के लिए कलेजे में पत्थर बांधकर भेजते हैं। लगता है कि भगवान किरौना क्यों भेजा? सीधे हमको मौत काहे नहीं भेज दिया। हम सबै पर भार हैं। सरकार पर भगवान पर। वो आगे बढ़ते हुए बड़बड़ाए जा रही थी। मैं तो कब का निशब्द हो चुका था!
(वीरेंद्र सेंगर के फ़ेसबुक वाल से)
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वीरेंद्र सेंगर
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