सरकार के बदलते ही ‘आपातकाल’ की पीठ को नंगा करके जिस बहादुरी के साथ उसपर हर साल कोड़े बरसाए जाते हैं, मुमकिन है आगे चलकर 25 जून को ‘मातम दिवस’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने और उस दिन सार्वजनिक अवकाश रखे जाने की माँग भी उठने लगे। ऐसा करके किसी सम्भावित, अघोषित या छद्म आपातकाल को भी चतुराई के साथ छुपाया जा सकेगा। नागरिकों का ध्यान बीते हुए इतिहास की कुछ और निर्मम तारीख़ों जैसे कि 13 अप्रैल 1919 के जलियाँवाला हत्याकांड या फिर छह दिसम्बर 1992 की ओर आकर्षित नहीं होने दिया जाता है जब बाबरी मसजिद के ढाँचे को ढहा दिया गया था और उसके बाद से देश में प्रारम्भ हुए साम्प्रदायिक विभाजन का अंतिम बड़ा अध्याय गोधरा कांड के बाद लिखा गया था। आश्चर्य नहीं होगा अगर सत्ता में सरकारों की उपस्थिति के हिसाब से ही सभी तरह के पर्वों और शोक दिवसों का भी विभाजन होने लगे। चारण तो ज़रूरत के मुताबिक़ अपनी धुनें तैयार रखते ही हैं।