देश में पिछले कुछ सालों के दौरान तमाम संवैधानिक पदों में सबसे ज़्यादा बदनाम अगर कोई हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज़्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी भरकम ख़र्च वाले इस संवैधानिक पद को लंबे समय से सफेद हाथी माना जाता रहा है और इसकी उपयोगिता तथा प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं।

केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान।
राज्यों में राज्यपालों की भूमिका अब बेहद विवादस्पद क्यों हो गई है? महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे राज्यों में राज्यपाल के फ़ैसले पर सवाल क्यों उठते हैं?
सवाल उठाने का मौक़ा भी और कोई नहीं बल्कि कई राज्यपाल खुद ही अपनी उटपटांग हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज़्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं, जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं।
संविधान निर्माताओं ने संविधान में जब राज्यपाल पद का प्रावधान किया था तो इसके पीछे उनका मक़सद केंद्र और राज्य के बीच बेहतर तालमेल बनाना और देश के संघीय ढांचे को मज़बूत करना था। यानी राज्यपाल के पद को केंद्र और राज्य के बीच पुल की भूमिका निभाने वाला माना गया था, लेकिन धीरे-धीरे यह पद सुरंग में तब्दील होता गया। इसके लिए किसी एक दल को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। जिस भी पार्टी या गठबंधन की केंद्र में सरकार बनी उसने अपने चहेते लोगों को राज्यपाल बनाया और उन राज्यपालों ने केंद्र में सत्ताधारी दल के विरोधी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने और उनके कामकाज में अड़ंगे लगाना शुरू कर दिए।