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अगर विदेशों में रहने वाले भारतीयों पर नस्लवाद का क़हर टूटा तो क्या होगा?

जब विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों पर नस्लवाद का हंटर चलने लगेगा तो उनकी सारी रईसी फ़ाख़्ता हो जाएगी। भागकर भारत लौटेंगे तो यहाँ भी कोई कम नहीं दुत्कारे जाएँगे। कोई उनके इस योगदान का लिहाज़ नहीं करने वाला कि उन्होंने विदेश से कितने डॉलर देश को भेजा था? नस्लवादी नफ़रत की बेल भी जंगल की आग की तरह फैलती है।
मुकेश कुमार सिंह

जिस हिन्दू-मुसलिम नस्लवाद की आग से भारत, बीते कई वर्षों से झुलस रहा है, उसकी लपटें अब खाड़ी के देशों तक पहुँच गयी हैं। इतिहास गवाह है कि नस्लवाद की प्रतिक्रियाएँ होती ही हैं। अपने ही देश में हम कश्मीरी पंडितों का हश्र देख चुके हैं। इन्हें ख़ुद को ‘शरणार्थी’ कहलवाना बहुत पसंद था। हालाँकि, अपने ही देश में कोई शरणार्थी कैसे हो सकता है? इनकी सियासत करने वाले आज तक एक भी कश्मीरी पंडित की घर-वापसी नहीं करवा सके। क्योंकि ये काम सत्ता परिवर्तन और क़ानून बनाने से हो ही नहीं सकता। क़ानून बन जाने से सामाजिक माहौल नहीं बदलता। वर्ना, निर्भया कांड के बाद महिलाएँ सुरक्षित होतीं, कन्या भ्रूण-हत्या नहीं होती, दहेज-उत्पीड़न नहीं होता, बाल-विवाह नहीं होते।

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इसी तरह से साम्प्रदायिक सौहार्द को प्रवचन देकर पैदा नहीं किया जा सकता। पुरानी साख भी बहुत समय तक साथ नहीं देती। आज भारत की वो रवायत ख़त्म होने को है, जिसमें सभी धर्मों, पन्थों, उपासना-पद्धतियों से जुड़े लोग अपने शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व पर ग़ुमान करते थे। हमारी इसी ख़ासियत की सारी दुनिया क़द्र करती थी। लेकिन बीते छह सालों में हिंदुओं के एक तबक़े को प्रगतिशील से बदलकर कट्टरवादी बना दिया गया है। इस कट्टरवाद की भट्ठी में लगातार ईंधन का डाला जाना ज़रूरी है। इसीलिए, एक के बाद एक, ऐसी घटनाएँ हमारे सामने आती रहती हैं, जो हिन्दू-मुसलिम नफ़रत की आग को लगातार भड़काती रहती हैं।

मध्यम वर्गीय हिन्दुओं के घरों में होने वाली ‘ड्रॉईंग रूम डिबेट’ के दौरान मैंने ख़ुद कई लोगों को यह कहते-सुनते देखा है कि भारत, लोकतंत्र के लायक ही नहीं है। इसे डिक्टेटर की ज़रूरत है। क्योंकि यहाँ के लोग क़ानून की इज़्ज़त नहीं करते। अपने हक़ की बातें तो करते हैं, लेकिन फ़र्ज़ की परवाह नहीं करते। यहाँ वोट-बैंक की राजनीति होती है। वग़ैरह-वग़ैरह। ऐसी दलीलों के पीछे कभी सुभाष चन्द्र बोस के कुछेक बयानों का वास्ता दिया जाता है तो कभी शरिया क़ानून की बेरहमी की तारीफ़ की जाती है। 

चट-पट इंसाफ़ का गुणगान होता है। न्याय-तंत्र को कोसा जाता है। राजनेताओं को धिक्कारा जाता है। लेकिन कभी अपने गिरेबान में नहीं झाँका जाता। नहीं देखा जाता कि अपने-अपने दायरे में हम ख़ुद कैसे राष्ट्र-निर्माण कर रहे हैं।

पिछले छह साल में भारत का चाल-चरित्र-चेहरा, काफ़ी बदला है। सारी लोकतांत्रिक संस्थाएँ ध्वस्त हो गयीं। सारे सामाजिक सरोकार बदल गये। जिस विचारधारा ने अख़लाक़, पहलू ख़ान, रोहित वेमुला की हत्या की थी, उसी ने दादरी में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार और पालघर में साधुओं की लिंचिंग की। हमने साबित करने की कोशिश की कि तब्लीग़ी जमात के कुछ लोग नहीं बल्कि देश के सारे मुसलमान, कोरोना-जिहादी हैं। अब सब्ज़ी वाले, फल वाले, दूध वाले जैसे लोगों का मज़हब सबसे ख़ास बना दिया गया है। लाश और भूख से ही उसका धर्म पूछा जाने लगा है। इंसानियत का फलसफ़ा किताबों में दफ़्न किया जा चुका है।

इसलामोफ़ोबिया का वायरस 

वैसे ‘इसलामोफ़ोबिया’ के जिस वायरस का जन्मदाता अमेरिका है, उसे उसके ही पूर्वजों ने क़रीब सौ साल पहले भारत को भी संक्रमित किया था। भारत में इस वायरस का नाम है, ‘फूट डालो और राज करो’। इस वायरस ने बीते दशकों में एक बार फिर से अपना सिर उठाकर भयावह रूप हासिल कर लिया है। अब सवाल यह है कि नस्लवादी आग में अभी भारत जैसे तिल-तिल कर पीड़ाग्रस्त है, जैसा हिन्दू-मुसलिम नैरेटिव हमें अभी देश में दिखता है, वैसे ही यदि भारतीयों और ख़ासकर हिन्दुओं के ख़िलाफ़ दुनिया के अन्य देशों में चलने लगा तो क्या होगा? जैसा रवैया भारत में एक तबक़ा मुसलमानों को लेकर दिखा रहा है, यदि वैसा ही खेल विदेश में रहने वाले हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी छिड़ गया तो फिर क्या होगा?

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रातों-रात विदेश से उजड़ भारत आने वालों को क्या कश्मीरी पंडितों की तरह ‘शरणार्थी’ कहेंगे? विदेश मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक़, क़रीब तीन करोड़ भारतीय मूल के लोग विदेश में रहते हैं। इसका सम्पन्न तबक़ा तो बाक़ायदा उन देशों में नागरिकता भी ले चुका है, लेकिन इतिहास गवाह है कि भीड़ वैसे ही सिर्फ़ हमारी खाल का रंग देखती है, जैसे लोगों को उनके कपड़ों से ही पहचान लिया जाता है। 

खाल के अलावा भीड़ को नागरिकता और पेशा कभी नज़र नहीं आता। भीड़ की आँख और इसके कान कब हुए हैं, जो आगे होंगे। उसकी धमनियों में सिर्फ़ अफ़वाह बहती है, उसका ज़िस्म कट्टरता की कोशिकाओं से बना होता है।

इसीलिए जब विदेश में बसे प्रवासी भारतीयों पर नस्लवाद का हंटर चलने लगेगा तो उनकी सारी रईसी फ़ाख़्ता हो जाएगी। भागकर भारत लौटेंगे तो यहाँ भी कोई कम नहीं दुत्कारे जाएँगे। कोई उनके इस योगदान का लिहाज़ नहीं करने वाला कि उन्होंने विदेश से कितने डॉलर देश को भेजा था? नस्लवादी नफ़रत की बेल भी जंगल की आग की तरह फैलती है। बचाव के लिए ज़्यादा वक़्त नहीं देती। मत भूलिए कि विकसित देशों को सिर्फ़ भारतीय डॉक्टरों और इंज़ीनियरों की ज़रूरत है। बाक़ी तबक़ों को तो वे कहीं और से भी जुटा लेंगे।

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