अनुच्छेद 370 में बदलाव और जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बाँटने की पूरी बहस में एक पक्ष को पूरी तरह से भूला दिया गया है और एक ऐसी तसवीर खींची जा रही है जैसे कश्मीर की पूरी समस्या के लिए अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं। प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह ने अपने भाषणों में इस ओर इशारा किया है कि इन दोनों परिवारों ने कश्मीर की जनता को लूटने का काम किया है। यह बात भी इशारों-इशारों में कही जा रही है कि कश्मीर में आतंकवाद और अलगाववाद के लिए ये दोनों परिवार ही ज़िम्मेदार हैं। यह बात गंभीर है और इतिहास इसकी पड़ताल भी करेगा, लेकिन कश्मीर का एक दूसरा पहलू भी है जिसको पूरी तरह से भूला दिया गया है। यह पक्ष है कश्मीर के पूर्व राजा हरि सिंह का।

राजा हरि सिंह ने 15 अगस्त 1947 के समय कश्मीर का भारत में विलय नहीं किया। 1947 के अक्टूबर के महीने में जब कबायलियों के भेष में पाकिस्तान की सेना ने कश्मीर पर हमला किया और रौंदते हुए वह श्रीनगर एयरपोर्ट तक पहुँच गई तब राजा हरि सिंह मजबूरी में भारत के साथ विलय को तैयार हुए। लेकिन राजा हरि सिंह ने विलय की संधि में कश्मीर की स्वायत्तता की शर्त रख दी थी। यदि राजा हरि सिंह बिना किसी शर्त के विलय के तैयार हो जाते तो अनुच्छेद 370 का बखेड़ा ही खड़ा नहीं होता।
भारत के विभाजन के समय राजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर के राजा थे। 1846 में इनके पूर्वजों ने 75 लाख रुपये में जम्मू-कश्मीर रियासत को ख़रीदा था। हालाँकि जम्मू-कश्मीर की आबादी का दो-तिहाई हिस्सा मुसलमानों का था और बाक़ी हिंदू का। राजा हरि सिंह आरएसएस और हिंदुत्ववादियों के क़रीबी थे। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल भी उनको पसंद करते थे। राजा हरि सिंह की वजह से आरएसएस कश्मीर को हिंदू प्रदेश के तौर पर देखता था। लेकिन राजा हरि सिंह अत्यंत महात्त्वाकांक्षी व्यक्ति थे और वह भारत की बाक़ी रियासतों की तरह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में नहीं थे। वह आज़ाद कश्मीर का सपना देख रहे थे।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।