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वित्त मंत्री जी, किसानों को सपनों का पैकेज नहीं, बल्कि तुरंत राहत चाहिए

कोरोना संकट के कारण किसान, मजदूर सरकार से तुरंत राहत की उम्मीद लगाए बैठा है लेकिन उसे लंबे-चौड़े भाषणों के सिवा कुछ नहीं मिल रहा है। मोदी सरकार और वित्त मंत्री को ये कौन बताएगा कि खेती पर निर्भर देश की 60 फ़ीसदी आबादी एक से बढ़कर एक लोकलुभावन किस्म की योजनाओं की घोषणा के लिए नहीं बल्कि फ़ौरी मदद के लिए तरस रही है।

मुकेश कुमार सिंह

कोरोना संकट से जूझते भारत में ‘पैकेज़’ की आड़ में 4 दिनों से सिर्फ़ भाषणों की बरसात और जुगलबन्दी हो रही है। वर्ना, क्या माननीय प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ये नहीं जानते कि ‘पैकेज़’ और ‘रिफ़ॉर्म’ में फ़र्क़ होता है? या फिर मोदी सरकार ने अघोषित तौर पर ‘रिफ़ॉर्म’ शब्द को बदलकर ‘पैकेज़’ कर दिया है? 

वैसे भी मोदी राज को योजनाओं और शहरों का नाम बदलने का ज़बरदस्त शौक़ रहा है। इसी तरह, क्या वित्त मंत्री भूल गयीं कि इसी साल उन्होंने लोकसभा में सबसे लम्बा बजट भाषण देने का रिकॉर्ड बनाया है? क्या वित्त मंत्री ये भी भूल गयीं कि संसद का बजट सत्र ख़त्म हो चुका है और यहाँ तक कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय भी सत्रावसान को अधिसूचित कर चुके हैं?

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20 लाख करोड़ रुपये वाले सुनहरे पैकेज़ के तीसरे ‘ब्रेकअप’ से पर्दा उठाने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण शुक्रवार को अपने पसंदीदा वक़्त पर यानी 4 बजे सभी मीडिया माध्यमों पर प्रकट हुईं। इस राष्ट्रीय सम्बोधन में उन्होंने बीते दो दिनों की तर्ज़ पर खेती से जुड़े बुनियादी ढाँचे को ‘आत्म-निर्भर’ बनाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा दी। 

उन्होंने एक-एक करके एक लाख करोड़ रुपये खर्च करने की योजनाएँ गिना दीं, जैसे वह और मोदी सरकार अपने बजट भाषण के ज़रिये सपने बेचते रहे हैं। लेकिन उनकी सारी बातें किसी बेजान पुतले की तरह थीं। वह उस कृषि-क्षेत्र को रेवड़ियाँ बाँट रही थीं, जिससे जुड़े 15 करोड़ से ज़्यादा किसान पहले से ही अपनी दोगुनी हो चुकी आमदनी से ‘निहाल’ हैं।

मोदी सरकार और वित्त मंत्री को ये कौन बताएगा कि खेती पर निर्भर देश की 60 फ़ीसदी आबादी एक से बढ़कर एक लोकलुभावन किस्म की योजनाओं की घोषणा के लिए नहीं बल्कि फ़ौरी मदद के लिए तरस रही है।

इस आबादी को 2-4 या 10 साल बाद मिलने वाली  काल्पनिक खुशहाली के सपने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि वह ये जानना चाहती है कि लॉकडाउन से उसे जो नुक़सान हुआ है, उसकी फ़ौरी भरपाई के लिए सरकार के पिटारे में क्या है? अभी जो उसकी फ़सल तबाह हुई है, अभी तो उसे अपनी तैयार फ़सल का दाम नहीं मिल रहा है, अभी नयी बुआई के लिए उसे जो खाद, बीज, कीटनाशक, डीज़ल वग़ैरह की ज़रूरत है, उसे हासिल करने के लिए सरकार क्या रियायतें दे रही है?

अभी किसान, मज़दूर और ग़रीब तबके की जेब खाली है और ये सभी यथा सम्भव कर्ज़ ले चुके हैं। किसान के सामने चुनौती है कि वह अपने बिगड़े हाल को कैसे संवारे और कैसे कर्ज़ उतारे?

फ़िलहाल, किसानों को ई-ट्रेडिंग की सुविधा नहीं चाहिए, कोल्ड चेन और क्लस्टर बेस्ड फूड प्रोसेसिंग भी नहीं चाहिए, उसके पालतू पशुओं को अभी खुरपका-मुँहपका वाली वैक्सीन की भी ज़रूरत नहीं है, वह मछली पालन के निर्यात से जुड़े आधारभूत ढाँचे के लिए भी गुहार नहीं लगा रहा है, ना ही उसे हर्बल खेती, मधुमक्खी पालन और ऑपरेशन ग्रीन की ज़रूरत है। 

इन सभी से जुड़ी जितनी भी नयी-पुरानी घोषणाओं की वित्त मंत्री के भाषण में रस्म-अदायगी हुई है, उसका नतीज़ा सामने आने में कई वर्ष लगेंगे। ये सभी शक्ति-वर्धक ‘टॉनिक’ तभी किसी काम के होंगे, जब मरीज़ आईसीयू से बाहर आएगा।

न्यूनतम समर्थन मूल्य दिलाए सरकार

अभी ‘अन्नदाता किसानों’ को उसकी फ़सल का उचित दाम दिलवाने का इंतज़ाम होना चाहिए। अभी वह नया कर्ज़ लेने के लिए नहीं तरस रहा है। अभी तो मेहरबानी करके उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य दिला दीजिए। सस्ती खाद, बीज, कीटनाशक, डीज़ल वग़ैरह से जुड़े एलान कीजिए। इसके लिए उसे सब्सिडी दीजिए। ऐसी सब्सिडी ही उसके लिए पैकेज़ हो सकती है। 

‘राष्ट्र निर्माता मज़दूर’ अभी रोज़गार और रोटी के संकट से जूझ रहे हैं। आप जो भी सस्ता अनाज देने की पेशकश कर रहे हैं, उसे भी ये ख़रीदेंगे कैसे? कम से कम इतना तो सोचिए।

प्रवासियों को घर तक पहुंचाएं

मोदी जी, चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर लम्बी सड़क को पैदल नाप रहे परिवारों में आप किसी तरह का भरोसा नहीं जगा सके। इसका बेहद दर्दनाक सबूत सड़कों पर बिखरा पड़ा है। अब कम से कम ‘आत्म-निर्भरता’ वाली सारी ताक़त झोंककर इन्हें इनके घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कीजिए। भगवान के लिए, ख़ुदा के वास्ते अब भी अपनी करुणामय आँखें खोलिए और पहली प्राथमिकता के रूप में इन अभागों की मदद कीजिए। इसके बाद, लफ़्फ़ाजियों के लिए आपके सामने जो खुला मैदान है, उसमें आप अपने करतब दिखाते रहिएगा।

हुज़ूर माई-बाप, आप ये क्यों नहीं जानते कि लॉकडाउन की वजह से किसानों को रबी फ़सलों की कीमत नहीं मिलने से कम से कम 50,000 करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ है। लेकिन 20 लाख करोड़ रुपये के सुनहरे पैकेज़ में से अभी तक इस नुक़सान की भरपाई के लिए फूटी कौड़ी तक नहीं निकली। 

वित्त मंत्री साहिबा, मेहरबानी करके आप किसानों को बताइए कि आपकी सरकार ने 2019-20 में रबी और खरीफ़ के कुल 26.9 करोड़ टन उत्पादन में से भले ही महज 7.19 करोड़ टन अनाज यानी 26.72 प्रतिशत को ही पीडीएस के ज़रिये ख़रीदा हो लेकिन अबकी साल आप इसे दोगुना करके दिखाएँगी।

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से ख़बरें आयी हैं कि वहाँ किसानों को गेहूँ 1,400 से 1,600 रुपये प्रति कुन्तल के भाव पर बेचना पड़ा है, जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये है। इसी तरह, फल-फूल और सब्ज़ी पैदा करने वाले किसान तथा श्वेत क्रान्ति लाने वाले दुग्ध उत्पादक बिलख रहे हैं।
किसानों को फ़सल की लागत भी नहीं मिल पा रही है। जबकि मोदी जी का नारा और वादा दोगुनी आमदनी का रहा है। 

इसी तरह देश के 15 करोड़ किसानों में से अभी तक 8.22 करोड़ को ही किसान सम्मान निधि से जोड़ा जा सका है। वित्त मंत्री जी, आप बताइए कि अगले महीने-दो महीने में आप बाक़ी 6.42 करोड़ किसानों के खातों में 6,000 रुपये सालाना पहुँचाकर दिखाएँगी।

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इस संक्षिप्त विश्लेषण से साफ़ है कि 3 दिनों से वित्त मंत्री कोरोना पैकेज़ के नाम पर सिर्फ़ अनुपूरक बजट का भाषण ही पढ़ रही हैं। ये बिल्कुल ऐसा ही है मानो कोई आपके सामने भूख से बिलख रहा हो और आप उससे कहें कि ‘निश्चिन्त रहो, मैंने तुम्हारे लिए शानदार घोषणाएँ की हैं।’ इसीलिए पैकेज़ के नाम पर सरकार सरासर तमाशा दिखा रही है। ये ग़रीब और लाचार लोगों के मुँह पर करारा तमाचा है। 

इससे सिर्फ़ यही साबित हो रहा है कि प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और पूरी मोदी सरकार न तो अपने शब्दों पर निर्भर हैं और ना ही उन शब्दों के अर्थों पर। सरकारी एलान ‘आत्म-निर्भर भारत मिशन’ की कलई खोल रहे हैं। अब आप पुराने शब्दों या जुमलों को पकड़े बैठे रहिए, वो नये की तलाश में निकल चुके हैं।

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