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राहुल की भारत यात्रा क्या वैकल्पिक राजनीति का आख्यान लिख पायेगी?

राहुल गाँधी अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के चलते असम राज्य से गुजर रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री हिमन्त बिस्व सरमा हैं। सरमा एक समय काँग्रेस के नेता थे और राज्य के तमाम उच्च पदों पर रहे। उच्च पद अपने साथ भ्रष्टाचार की बहार लेकर आया और 2014 में केन्द्रीय सत्ता में आई मोदी सरकार ने सरमा के भ्रष्टाचार के कच्चे-चिट्ठों को खोलना शुरू कर दिया, शायद सरमा उन्हीं को बंद करवाने के लिए 2015 में अमित शाह की उपस्थिति में भाजपा में शामिल हो गए। शामिल होते ही सारे भ्रष्टाचार मानो काल के गर्त में समा गए। 2021 में इन्हीं सरमा को भाजपा ने 2021 में असम का मुख्यमंत्री बना दिया।

सरमा अब नए ‘हिन्दुत्व बॉय’ की छवि में दिखने लगे। भाजपा में शामिल होते ही सरमा पार्टी के प्रमुख ‘विचारक’ भी हो गए। आए दिन मुस्लिमों पर आपत्तिजनक टिप्पणी करना उनका रोजमर्रा का काम हो गया। उनकी बातचीत और भाषणों में हिंसा महकने लगी, कभी एक धर्म के खिलाफ तो कभी कांग्रेस के खिलाफ। लेकिन 2023 में मध्य प्रदेश में चल रहे चुनावी प्रचार के दौरान जो उन्होंने कहा वो, उनका अबतक का सबसे निम्न स्तर था। सितंबर 2023 को इंडियन एक्सप्रेस में छपी ख़बर के मुताबिक़, सरमा ने “पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को चुनौती दी कि यदि वे वास्तव में हनुमान भक्त हैं तो जिस तरह हनुमान ने लंका को आग लगाई थी, उसी तरह ‘10-जनपथ’ को आग लगा दें”। 10-जनपथ, कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गाँधी का आवास है। सोनिया गाँधी, भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पत्नी हैं जो भारत के लिए शहीद हो गए थे। सरमा ने अब हद पार कर दी थी।

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अब जब आज ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ असम से गुजर रही है तब उसके काफिले पर हमले किए जा रहे हैं, प्रदेश अध्यक्ष के साथ मार-पीट की जा रही है और अब मौलिक अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, को भी बाधित किया गया। राहुल गाँधी श्रीमंत शंकरदेव की जन्मस्थली पर बने बटाद्रवा थान मंदिर में दर्शन करने जाना चाहते थे और उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया। लेकिन राहुल गाँधी भी कोई धर्मांध लकीर के फकीर नहीं जिन्हें दर्शन से रोका जा सके। कौन नहीं जानता कि अनंत विद्याओं के धनी शंकरदेव ने 15-16वीं सदी में जिस नव-वैष्णव पंथ, ‘एकशरण धर्म’ की स्थापना की थी वो मूर्ति और मंदिर से परे था। एकशरण धर्म का मूल ‘भजन और कीर्तन’ है। संभवतया शंकरदेव यह जानते रहे होंगे कि ऐसा भी समय इस देश में आ सकता है जब लोगों को मंदिरों में जाने से रोका जाए, मंदिर बनवाने के लिए जमीनें हड़प ली जाएँ और गरीबों और लाचारों की जमीनों पर फिल्मस्टारों और उद्योगपतियों के आवासों का निर्माण किया जाए। इसलिए उन्होंने भगवान तक पहुँचने के लिए ‘भजन और कीर्तन’ को रास्ते के रूप में बता दिया।

जब राहुल गाँधी को जाने से रोका गया तो उन्होंने शंकरदेव के इसी मंत्र का पालन करने का निर्णय कर लिया और मंदिर के बाहर ही बैठकर भजन में तल्लीन हो गए। जैसे ही राहुल ने ‘सबको सन्मति दे भगवान’ भजन गाया, वैसे ही एक झटके में 15वीं सदी के संत शंकरदेव और 20वीं सदी के संत महात्मा गाँधी का मिलन हो गया। एक साथ भक्ति, भजन, आस्था और ‘प्रतिरोध’ सड़क में दौड़ने लगे। इस दौड़ को रोकना अब मुश्किल जान पड़ता है। जब सरकार अपनी उग्रता से बाज नहीं आई तो राहुल ने श्रीमंत शंकरदेव के मंदिर के सामने खड़े होकर कहा- “मैंने मंदिर के बाहर से ही भगवान को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लिया”।

शंकरदेव का महत्व इस बात में है कि उन्होंने तीर्थ और पूजा आडंबर आदि को नकारते हुए समतावादी समाज का लक्ष्य रखा था। बाहर से प्रणाम करके एक तरह से राहुल ने इन्हीं आदर्शों का समर्थन किया। 

शंकरदेव तीर्थ, जप, ताप और आडंबरों को लेकर कहा करते थे-

तीरिथ बरत तप जप भाग योग सुगुति

मंत्र परम धरम करम करत नाहि मुकुति

यदि इतिहास में खुद को समेटने का सामर्थ्य बना रहा तो एक दिन यह बात आने वाला भारत जरूर पढ़ेगा कि जिस वक्त भारत में भुखमरी और बेरोजगारी अपने चरम पर थी उस समय संविधान की शपथ लेकर भारत के प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ‘भक्ति’ में लीन थे और मंदिर-मंदिर दर्शन और यात्राएँ कर रहे थे। 

लगभग उसी समय विपक्ष के नेता राहुल गाँधी भारत के सुदूर उत्तर-पूर्व से पश्चिम तक यात्रा करके देश को न सिर्फ जोड़ने का प्रयास कर रहे थे बल्कि उस संवैधानिक मूल्य-न्याय को अपना ध्येय बना चुके थे जिसके बिना सम्पूर्ण लोकतंत्र की अवधारणा ही एक झटके में ढह जाने वाली थी।

जब सूचना देने वाला सम्पूर्ण तंत्र-मीडिया-सत्ता की जेब में है, जब लगभग हर संवैधानिक और वैधानिक संस्थान अपनी गरिमा खो चुका है, जब देश का एक बड़ा वर्ग ‘आशा’ खो रहा है तब राहुल गाँधी सिर्फ एक विपक्ष के नेता मात्र की भूमिका में नहीं हैं बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आशा का प्रतीक बन चुके हैं। जिन मुद्दों पर बोलने से पहले तमाम राजनैतिक दल और उनके नेता ‘जमा-खर्च’ का हिसाब लगा रहे हैं उस समय राहुल गाँधी की मुखरता देखते बनती है।

यह राहुल गाँधी के लिए लिखा जाने वाला प्रशस्ति-पत्र नहीं बल्कि लोकतंत्र के एक नायक से जनमानस को रूबरू कराने का एक प्रयास है।

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नायक का संबंध आवश्यक रूप से शक्ति और सफलता से नहीं बल्कि अन्याय के खिलाफ उसके सतत संघर्ष से जुड़ता है। निक पिज़ोलैटो द्वारा निर्मित ‘ट्रू डिटेक्टिव’(s3) का नायक वेनहेज ‘विश्व गुरु’ की अकांक्षा नहीं रखता लेकिन न्याय के लिए उसकी प्रतिबद्धता देखते बनती है, तमाम कमियों के बावजूद मिस्टर वेन को देखना आशा लेकर आता है, वो अपनी समस्याओं को लेकर ‘रोता’ नहीं, उनसे लड़ता है, सीखता है और अंत में वो कर दिखाता है जिसके लिए वो बना था। मार्वल का ‘डेयरडेविल’ अंधा होने के बावजूद एक नायक है, एक वकील है, जो आहत होता है, मरते मरते बचता है लेकिन अन्याय देखते ही जिस दर्जे की फुर्ती दिखाता है वो दुर्लभ है। उसे नायक कैसे माना जा सकता है जो अन्याय को देखकर ‘चुप’ हो जाता हो?

गाँधी और नेहरू के बाद भारत में नायकों का अभाव है। ‘नोआखली’, गाँधी का वो वाकया है जिसे वो पीढ़ी समझ भी नहीं सकती जिसने मणिपुर में महीनों चले नरसंहार के बावजूद अपने नेता की वहाँ अनुपस्थिति को ‘सहज स्वीकार’ कर लिया हो।
आज तो यहाँ डरपोक मिल सकते हैं-जो दल बदल कर इतना बदल चुके हैं कि अपनी वास्तविक पहचान के लिए सैकड़ों पन्ने पलटते होंगे; यहाँ अवसरवादी मिल सकते हैं-जो कभी साहित्य ओढ़कर कवि बन जाते हैं तो कभी नेता और जब सबसे ज्यादा कमाऊ गाय धर्म के रूप में सामने आती है तो सबसे पहले ये उसको चारा खिलाने जा पहुंचते हैं। लेकिन ऐसा कोई मिलना दुर्लभ है जिसे हानि-लाभ से पहले भारत के नागरिक दिखते हैं, उनके साथ जाति, धर्म या लिंग के आधार पर होने वाला अन्याय दिखता है, जिसे कॉर्पोरेट फंडिंग से पहले कॉर्पोरेट एथिक्स की चिंता ज्यादा है, देश के संसाधनों की लूट पर जिसकी प्रतिक्रिया रुकती नहीं चाहे उसके लिए उसे कोई भी सजा दी जाए, चाहे उसके आवास से उसे निकाल दिया जाए या फिर झूठों की आर्मी के माध्यम से डिजिटल गालियों की बौछार की जाएँ। नायक कभी नहीं रुकता। मुझे तनिक भी संदेह नहीं कि राहुल गाँधी में वही नायक है, जिसके लिए संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद धार्मिक कट्टरता से लड़ने के लिए एक जरूरी चीज है, जिसके लिए संस्थाओं के पतन को रोकना किसी ढांचे को गिराने या उसकी जगह किसी अन्य को बनाने से ज्यादा जरूरी है। क्योंकि अंततः यह संवैधानिक संस्थाएं, लोकतान्त्रिक चेतना और जन जागरूकता ही होगी जिससे संभावित तानाशाही से लड़ा जा सकेगा।
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कुणाल पाठक
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