यूपी के विकास दुबे एनकाउंटर और उससे पहले तमिलनाडु में पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत में मौत के मामले ने पुलिस को एक बार फिर सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। पुलिस के कामकाज और उसके चरित्र को लेकर बहस छिड़ गई है।
फ़र्ज़ी एनकाउंटर करने वाले जब नायक बनेंगे तो पुलिस कैसे ठीक होगी!
- विचार
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- 11 Jul, 2020

प्रतीकात्मक तसवीर।
पुलिस सुधार के पैरोकार मानकर चलते हैं कि पुलिस बल अपने आप में भ्रष्ट, क्रूर या अमानवीय नहीं है, उसे राजनेता ऐसा बनाते हैं। अगर पुलिस दबाव मुक्त होकर, स्वतंत्र होकर फ़ैसले करने लगे तो वह वैसी नहीं रहेगी, जैसी आज है। यह बात एक हद तक ही सही है। यह एक आदर्श स्थिति की कल्पना है कि सारे पुलिस अधिकारी सदाशयी, ईमानदार, निष्पक्ष और नियम-कानून के प्रति प्रतिबद्ध होंगे और वे सब कुछ सुधार देंगे।
तमिलनाडु में जहां पुलिस का वहशीपन सामने आया, वहीं विकास दुबे प्रकरण में वह बेहद लिजलिजी दिखी। वह इसमें जिस तरह चकरघिन्नी खाती रही उससे पुलिस-अपराधी और राजनेताओं का एक घिनौना गठजोड़ बुरी तरीके से उजागर हुआ। देश की पुलिस का चरित्र कुल मिलाकर यही है- कमजोर को कुचलना और ताकतवर के आगे दुम हिलाना। ब्रिटिश काल से लेकर आज तक उसकी यही फितरत रही।
पुलिस रिफ़ॉर्म की अवधारणा
इन दोनों घटनाओं ने पुलिस सुधार की तरफ नए सिरे से ध्यान खींचा है। कहा जा रहा है कि मूल समस्या पुलिस का राजनीतिकरण है। अगर पुलिस के कामकाज में सियासी दखल बंद हो जाए, उसे स्वायत्तता दे दी जाए, उसकी नियुक्तियों, ट्रांसफर आदि में सत्तारूढ़ दल का एकाधिकार खत्म कर दिया जाए, उसके संसाधन बढ़ाए जाएं, उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए तो पुलिस के चरित्र में सुधार हो जाएगा। पुलिस रिफ़ॉर्म की अवधारणा इसी सोच से प्रेरित है।