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अमृत महोत्सव: स्वाधीनता आंदोलन में अंग्रेजों के एजेंडे पर काम कर रहा था संघ

जिस तरह भारत-विभाजन की ऐतिहासिक विभीषिका इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हकीकत को भी कोई नहीं नकार या नजरअंदाज कर सकता है कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था। यही नहीं, धर्म पर आधारित ‘दो राष्ट्र’ - हिंदू और मुसलमान का विचार भी सबसे पहले उन्होंने ही पेश किया था, जिसे बाद मुस्लिम लीग ने भी अपनाया और उसी के आधार पर उसने पाकिस्तान हासिल किया। 

भारत के मौजूदा सत्ताधीशों और उनके राजनीतिक संगठन (भारतीय जनता पार्टी) की गर्भनाल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और हिंदू महासभा से जुड़ी हुई है। इन दोनों ही संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से न सिर्फ खुद को अलग रखा था बल्कि खुल कर उसका विरोध भी किया था।

यही नहीं, 1942 में शुरू हुए 'भारत छोड़ो आंदोलन’ के रूप में जब भारत का स्वाधीनता संग्राम अपने तीव्रतम और निर्णायक दौर में था, उस दौरान तो उस आंदोलन का विरोध करते हुए आरएसएस और हिंदू महासभा के नेता पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत की तरफदारी कर रहे थे।

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पाकिस्तान के स्वप्नदृष्टा और संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह ने तो बहुत बाद में अपने आपको स्वाधीनता आंदोलन से अलग कर पाकिस्तान का राग अलापना शुरू किया था, लेकिन आरएसएस और हिंदू महासभा का तो शुरू से ही मानना था कि हिंदू और मुसलमान दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं और दोनों कभी एक साथ रह ही नहीं सकते। जिस तरह मुस्लिम लीग देश के मुसलमानों में हिंदुओं के प्रति नफरत फैलाने के काम में सक्रिय थी, उसी तरह आरएसएस हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने में जुटा हुआ था। यानी दोनों ही किस्म की सांप्रदायिक ताकतें ब्रिटिश हुकूमत के एजेंडा पर काम कर रही थीं।
वैसे स्वाधीनता आंदोलन से अपनी दूरी और मुसलमानों के प्रति अपने नफरत भरे अभियान को आरएसएस ने कभी छुपाया भी नहीं। आरएसएस के संस्थापक और पहले सर संघचालक (1925-1940) केशव बलिराम हेडगेवार ने बेहद सावधानी से आरएसएस को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई से अलग रखा।

हेडगेवार ने इस बात को लेकर पूरी सर्तकता बरती कि उनकी किसी भी गतिविधि से उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के विरोधियों के साथ नत्थी नहीं किया जा सके। हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी में स्वीकार भी किया गया है- ''संघ की स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के बारे में ही बोला करते थे। सरकार पर टीका-टिप्पणी नहीं के बराबर रहा करती थी।’’

महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के सभी समुदायों की एकताबद्ध लड़ाई की कांग्रेस की अपील को ठुकराते हुए हेडगेवार ने कहा था- ''हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान की जिंदगी की सांस है। इसलिए स्पष्ट है कि अगर हिंदुस्थान की रक्षा करनी है तो हमें सबसे पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा।’’

हेडगेवार ने महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह की भी निंदा करते हुए कहा था- “आज जेल जाने को देशभक्ति का लक्षण माना जा रहा है।...जब तक इस तरह की क्षणभंगुर भावनाओं के बदले समर्पण के सकारात्मक और स्थायी भाव के साथ अविराम प्रयत्न नहीं होते, तब तक राष्ट्र की मुक्ति असंभव है।’’

कांग्रेस के नमक सत्याग्रह और ब्रिटिश सरकार के बढ़ते हुए दमन के संदर्भ में उन्होंने आरएसएस कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया था, ''इस वर्तमान आंदोलन के कारण किसी भी सूरत में आरएसएस को ख़तरे में नहीं डालना है।’’

1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद आरएसएस के प्रमुख भाष्यकार और दूसरे सर संघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपनी नापसंदगी को नहीं छुपाया। वे अंग्रेज शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम को कितना नापसन्द करते थे, इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है- ''नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले 1930-31 मे भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी (हेडगेवार) के पास गए थे।

इस 'शिष्टमंडल’ ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से देश को स्वतंत्रता मिल जाएगी और इसलिए संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने के लिए तैयार है, तो डॉक्टर जी ने कहा- 'ज़रूर जाओ लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा?’ उस सज्जन ने बताया, 'दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं, आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी मैंने पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है।’ इस पर डॉक्टर जी ने कहा- 'आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।’ घर जाने के बाद वे सज्जन न तो जेल गए और न ही संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।’’ (श्री गुरुजी समग्र, खंड 4 पृष्ठ 39-40)

गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से साफ जाहिर होता है कि आरएसएस का मकसद स्वाधीनता संग्राम के प्रति आम लोगों को निराश और उदासीन करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को, जो अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे। वैसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति आरएसएस का रवैया गोलवलकर के इस कथन से भी जाना जा सकता है- ''सन 1942 में भी अनेक लोगों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ के बारे में कहा गया कि यह अकर्मण्य लोगों का संगठन है, इनकी बातों का कुछ अर्थ नहीं। ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, संघ के कई स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।’’(श्री गुरुजी समग्र, खंड 4 पृष्ठ 4०)

RSS role in indian independence - Satya Hindi

इस तरह स्वयं गोलवलकर के बयान से यह तो पता चलता है कि आरएसएस ने 'भारत छोड़ो आंदोलन’ के पक्ष में प्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की थी। लेकिन आरएसएस के किसी प्रकाशन या दस्तावेज़ या स्वयं गोलवलकर के किसी वक्तव्य से आज तक यह भी पता नहीं चलता है कि आरएसएस ने अप्रत्यक्ष रूप से 'भारत छोड़ो आंदोलन’ में किस तरह की हिस्सेदारी की थी। गोलवलकर का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस का 'रोज़मर्रा का काम’ ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था? इसे समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के समानांतर हिंदू और मुसलमान के बीच की खाई को चौड़ा और गहरा करना। उनकी इस 'महान सेवा’ से खुश होकर अंग्रेज़ शासकों ने उन्हें अपनी कृपा से नवाज़ा भी। गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया। यानी दोनों संगठनों को खुल कर खेलने की छूट मिली हुई थी।

सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज़ विरोधी संगठन था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में मध्य प्रदेश के इंदौर शहर में अपने एक भाषण में कहा- ''कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजों को निकाल कर देश को स्वतंत्र कराना है। अंग्रेजों के औपचारिक रूप से चले जाने के बाद यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यकता नहीं थी। हमें स्मरण रखना होगा कि हमने अपनी प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने न जाने का कोई उल्लेख नहीं है।’’ 

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बलिदान की भी खिल्ली उड़ाई है आरएसएस ने

आरएसएस ने अपने आज़ादी की लड़ाई से सिर्फ अलग ही नहीं रखा, बल्कि आजादी के लिए बलिदान करने वाले लोगों की तिरस्कारपूर्वक खिल्ली भी उड़ाई। संघ की निगाह में ऐसे लोग बहुत ऊंचा स्थान नहीं रखते। संघ का मानना है कि जिन लोगों ने संघर्ष करते हुए अपना बलिदान कर दिया है, निश्चित रूप से उनमें कोई त्रुटि रही होगी। 

जो भी व्यक्ति स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों के प्रति अपने मन में श्रद्धा और सम्मान रखता है उसके लिए यह कितने दु:ख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी जान की बाजी लगाने वाले वाले शहीदों को उपेक्षापूर्ण निगाह से देखता था। गोलवलकर ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा, ''नि:संदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं, श्रेष्ठ हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखत: पौरुषपूर्ण है। वे उन सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते है और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे, नहीं माना है। क्योंकि, अंतत: वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।’’ (मा.स. गोलवलकर, विचार नवनीत पृष्ठ 281)

गोलवलकर के इन विचारों से स्पष्ट होता है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही, जेल भी नहीं गया।
यह बात भी ग़ौरतलब है कि 1925 से लेकर 1947 तक आरएसएस के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है, जिसमें जलियांवाला बाग़ जैसी बर्बर दमनकारी घटनाओं की भर्त्सना हो। आरएसएस के समकालीन दस्तावेज़ों में भी भगत  सिंह, राजगुरू और सुखदेव को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फाँसी दिए जाने के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड नहीं है।
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अनिल जैन
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