किसी भी फिल्म या अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम पर पाबंदी की मांग उचित नहीं है। इस लिहाज से 'द केरल स्टोरी' पर पाबंदी की मांग भी ग़लत है- भले ही वह कैसी भी फिल्म हो। कई फिल्मकार भी यही मानते हैं जिनमें शबाना आज़मी तक शामिल हैं।
लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि कोई फिल्म या कला या अभिव्यक्ति का कोई दूसरा माध्यम कब अपना वास्तविक रूप ग्रहण करता है और किन शर्तों पर ग्रहण करता है। हम बहुत सारी चीजें लिखते हैं- उन सबको कविता या साहित्य नहीं मानते हैं। हम अपने घर में कपड़ों की धुलाई का हिसाब बहुत कलात्मक भाषा में लिख दें तो वह साहित्य नहीं है जब तक हम उसे दूसरों के लिए सार्वजनिक न करें। लेकिन अगर हम उसे सार्वजनिक करना चाहेंगे तो उसे कुछ बदलेंगे भी, क्योंकि हमें पता है कि लेखन के कौशल मात्र से कोई रचना नहीं बनती, उसमें किसी विचार या संवेदना का होना ज़रूरी है।