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'द केरल स्टोरी' की कामयाबी के मायने क्या हैं?

किसी भी फिल्म या अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम पर पाबंदी की मांग उचित नहीं है। इस लिहाज से 'द केरल स्टोरी' पर पाबंदी की मांग भी ग़लत है- भले ही वह कैसी भी फिल्म हो। कई फिल्मकार भी यही मानते हैं जिनमें शबाना आज़मी तक शामिल हैं।

लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि कोई फिल्म या कला या अभिव्यक्ति का कोई दूसरा माध्यम कब अपना वास्तविक रूप ग्रहण करता है और किन शर्तों पर ग्रहण करता है। हम बहुत सारी चीजें लिखते हैं- उन सबको कविता या साहित्य नहीं मानते हैं। हम अपने घर में कपड़ों की धुलाई का हिसाब बहुत कलात्मक भाषा में लिख दें तो वह साहित्य नहीं है जब तक हम उसे दूसरों के लिए सार्वजनिक न करें। लेकिन अगर हम उसे सार्वजनिक करना चाहेंगे तो उसे कुछ बदलेंगे भी, क्योंकि हमें पता है कि लेखन के कौशल मात्र से कोई रचना नहीं बनती, उसमें किसी विचार या संवेदना का होना ज़रूरी है।

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इसी तरह किसी पार्टी के प्रचार के लिए बनी फिल्म को हम फिल्म नहीं मानते। वहां यह सही समझ काम करती है कि इस निर्माण के पीछे कोई दृष्टि, कोई वैचारिक संघर्ष, कोई तरल संवेदना नहीं है- बस प्रचार है। हालांकि इस प्रचार को भी पाबंदी का शिकार नहीं होना चाहिए।

'द केरल स्टोरी' का संकट क्या है? वह कुछ धारणाओं पर बनी फिल्म है। एक धारणा यह है कि बहुत सारे मुस्लिम लड़के-लड़कियों को 'रैडिकलाइज' कर आतंकवादी बनाया जा रहा है, वे आईएस के साथ जा रहे हैं। दूसरी धारणा यह है कि मुस्लिम लड़के हिंदू लड़कियों को प्रेम के जाल में फँसा कर उनसे शादी करते हैं और फिर उन्हें धर्मांतरण के लिए मजबूर करते हैं। इसे लव जेहाद का नाम दिया जा रहा है।

मगर तथ्य क्या हैं? लव जेहाद की अवधारणा को जाँच एजेंसियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में ख़ारिज किया जा चुका है। हालाँकि सच यह है कि अंतरधार्मिक प्रेम प्रसंगों को किसी समाज में ऐसी पड़ताल से गुजरना पड़े, यह भी उसके पीछे जाने की सूचना है। इसी तरह आईएस जैसे किसी संगठन में देश के 100 लड़के भी नहीं पाए गए हैं। 

लेकिन फिर यह धारणा बन कैसे रही है? जाहिर है, ऊपर बनाई जा रही है। 

हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के जिस राजनीतिक खेल को बीजेपी पहले राम मंदिर के सहारे और फिर कश्मीर के नाम पर खेलती रही, उसे ही अब केरल के लव जेहाद के नाम पर खेला जा रहा है।

कश्मीर और अब केरल बस स्थानीय मुद्दे नहीं हैं, वे कर्नाटक से लेकर यूपी-बिहार तक में वोट जुटाने का ज़रिया हैं। इस देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक तरह के दुष्प्रचार का जो काम संघ परिवार बरसों से करता रहा है, उसके यह नए उपकरण हैं।

'द केरल स्टोरी' की समस्या यही है। उसके मूल में किसी वास्तविक समस्या की पड़ताल की जगह एक दुष्प्रचार का उपकरण होने का लक्ष्य दिखाई पड़ता है। फिल्म बनाने वाले पहले इसे 32,000 लड़कियों की कहानी कह कर बेचते हैं, बाद में सुधार कर तीन लड़कियों की दास्तान बताते हैं। यह कहानी बीजेपी को रास आती है और इसीलिए कर्नाटक की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री फिल्म की तारीफ करते हैं। फिल्म को बीजेपी शासित राज्यों में कर मुक्त किया जाता है और यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ फिल्म देखने जाते हैं। स्मृति ईरानी भी अपने क़ीमती वक़्त से कुछ समय चुराकर यह फिल्म देखने पहुंचती हैं।

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तो यह एक राजनीतिक प्रचार की फिल्म है। जो फिल्मकार अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर इसे दिखाए जाने की वकालत कर रहे हैं, वे अपनी जगह सही हैं, लेकिन उन्हें बताना चाहिए कि यह फिल्म नहीं, प्रचार-फिल्म है। दूसरी बात यह कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का एक अहम पहलू उसके सरोकार होते हैं। अगर कोई फिल्म ग़लत तथ्यों के आधार पर नफ़रत का संदेश देती है, अगर वह‌ अपने काल्पनिक होने की दुहाई देते हुए एक समुदाय के विरुद्ध संदेह का माहौल बनाती है तो भी क्या ऐसी फ़िल्मों को अभिव्यक्ति की आज़ादी का कवच मिलना चाहिए? अभिव्यक्ति की दुनिया में यह बड़ी और पुरानी बहस है। यह आम राय है कि कोई भी अभिव्यक्ति बिल्कुल स्वच्छंद नहीं हो सकती। कुत्सित तथ्यहीनता का बचाव नहीं किया जा सकता। 

यह सच है कि दुनिया भर में सांप्रदायिक वैमनस्य और सामाजिक टकरावों को लेकर फ़िल्में बनती रही हैं। लेकिन अंत में वे फिल्में ऐसे वैमनस्य या टकराव को ही बेमानी साबित करती हैं। प्रचार के लिए बनी फिल्में बेशक ऐसा नहीं करतीं।

हैरानी की बात यह है कि जो लोग 'द केरल स्टोरी' को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिखाए जाने के पक्षधर हैं, वही कल तक बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री पर पाबंदी के लिए केस करते रहे। यही नहीं, बोलने की आज़ादी के इन नए पैरोकारों को यह खयाल तक नहीं कि हाल के वर्षों में बोलना कितना मुश्किल होता गया है।

दोहराने की ज़रूरत नहीं कि फिल्म पर पाबंदी उचित नहीं होगी। लेकिन फिल्म की कामयाबी को सिर्फ राजनीतिक नज़रिए से ही नहीं, सामाजिक नज़रिए से भी देखने की ज़रूरत है। क्या वजह है कि एक तरफ़ 'पठान' जैसी मामूली फिल्म अरबों का कारोबार कर रही है तो दूसरी तरफ 'द केरल स्टोरी' भी कमाई के रिकॉर्ड बनाती नज़र आ रही है? दरअसल दोनों प्रक्रियाएं हमारे मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय समाज के खोखले होते जाने की निशानी हैं। हमें सनसनी लुभाती है, हमें अविश्वसनीय कारनामे लुभाते हैं, हमें आसान देशभक्ति लुभाती है, हमें सतही विचार लुभाते हैं, हमें नकली संवेदना लुभाती है। हमारा क्रोध और प्रतिरोध दोनों नकली होते जा रहे हैं। क्योंकि हमारे भीतर ठहर कर देखने और विचार करने की फुर्सत नहीं है। हमें एक पैक किया हुआ आकर्षक विचार चाहिए। कभी वह हमें हमारी राष्ट्रीय पहचान से जोड़ता है और कभी धार्मिक पहचान से। राष्ट्रीय पहचान के खेल में पाकिस्तान हमारा दुश्मन होता है और धार्मिक पहचान के खेल में मुसलमान। लेकिन 'पठान' की राष्ट्रवादी कल्पनिकता का मकसद अगर बस कमाई है तो 'द केरल स्टोरी' के सांप्रदायिक प्रचार का मकसद एक खास तरह के नफरती विचार को बढ़ावा देना है। 

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यह चुनाव हमारा है कि हम ऐसी फिल्मों को खारिज करें और मनोरंजन के ज़्यादा स्वस्थ और संवेदनशील विकल्प चुनें। लेकिन फिल्मों और किताबों पर पाबंदी की मांग कैसे उल्टा असर करती है, यह हाल में 'पठान' की कामयाबी ने बताया है और बरसों से किताबें बताती रही हैं। सवाल बस यही है कि क्या हम एक स्वस्थ समाज के रूप में बचे रह गए हैं कि ऐसे विकल्पों पर विचार भी करें?

आज जिस बाबा साहब आंबेडकर का नाम लेते बीजेपी अघाती नहीं है, उन्होंने अपने जाति का उन्मूलन वाले भाषण में बहुत सख्ती से कहा था- 'हिंदू भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी देश के दूसरे नागरिकों की सेहत और खुशहाली को प्रभावित कर रही है।' जाहिर है, सिर्फ हिंदू या मुसलमान रह जाने की बीमारी की जगह वे स्वस्थ भारतीय नागरिकता की परिकल्पना करते थे। दुर्भाग्य है कि हम धीरे-धीरे कम से कम नागरिक होते जा रहे हैं और ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू (या मुसलमान)। 'द केरल स्टोरी' जैसी फिल्म का निर्माण और उसको मिलने वाला व्यापक समर्थन यही बता रहा है।

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प्रियदर्शन
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