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राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं तुसली!

तुलसी का रामराज्य समतामूलक है। रामचरितमानस में राज्य की अनीति के प्रति क्रोध है। राजतंत्र के उत्कर्ष का अस्वीकार है। जनतंत्र की नई अवधारणाएं है। और लोकतंत्र के चरम आदर्शों की कल्पना है। वे लोकमंगल के ध्वजवाहक हैं। जन मन के कवि हैं।तुलसी ने वाल्मीकि और भवभूति के राम को पुनर्स्थापित नहीं किया। उनका राम सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के भारत की विषमताओं को तोड़ता एक लोकतांत्रिक नायक है।

तुलसी का समकालीन युग वास्तव में सामाजिक विषमता और आर्थिक रूप से सामंतशाही के विद्रूपताओं का युग था। एक दूसरे के ऊपर आक्रमण और साथ साथ जातिभेद चरम पर था। ऐसे में जब दुखियों को गले लगाने वाला कोई नहीं था तब तुलसी ने राम कथा के ज़रिए भगवान राम के लोकवादी रूप की कल्पना की। यह कवि का प्रयास था क्योंकि तुलसीदास ने पहले ही लिख दिया है कि मानस एक स्वतंत्र और स्वातं सुखाय रचना है और उनके पास कविता का कोई विवेक नहीं है।कवित्त विवेक एक नहीं मोरे। तुलसी को कविताई का जरा भी अभिमान नहीं है।

इसलिए तुलसी के भगवान की लोकवादी छवि को तत्कालीन युग की आवश्यकता के अनुसार देखना होगा। निर्बल और दीन हीन की सहायता से ही रावण को मात देने वाले राम हैं। तुलसी के राम निर्बल के राम है, दीन- हीन के राम हैं।

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तुलसी को ‘राजाराम’ प्रिय नहीं है। वे अपने काव्य में लगातार राम के ‘लोकनायकत्व’ को निखारते हैं। वह राम को राजा की जगह ‘लोकनायक’ बनाते हैं। राम का लोकतंत्रीकरण करते हैं। इसीलिए राम के राज्याभिषेक पर तुलसी जनस्वीकृति चाहते हैं। इस जनस्वीकृति के लिए राम को पूरे देश में घुमाते हैं। समाज के सभी वर्गों से संपर्क कराते हैं। चौदह साल राम सपत्नीक जनता के बीच रहते हैं। घास पर सोते हैं। पैदल चलते हैं। झोपड़ी में रहते हैं। निषाद को मित्र बनाते हैं। वनवासियों को गले लगाते हैं। कंदमूल खाते हैं। इस अभियान में जनसामान्य, ऋषि-मुनियों और बौद्धिक वर्ग से उनके नेतृत्व को स्वीकृति मिलती है।

तुलसी शासक और जनता के आपसी रिश्ते को परिभाषित करते हैं। राज्य और जनता के बीच राम सम्पर्क सेतु हैं।इसी आधार पर लोकतांत्रिक समाज बनता है। तुलसी अपने लोकतंत्र में राम को व्यक्ति नहीं, आदर्श और मूल्य के तौर पर गढ़ते हैं। वे वनवासी राम के भक्त हैं। वे करूणाद्र हैं, दयालु प्रजा के लिए सहायता मांगते, सहायता देते, सबको अपनाते हैं।राम के चरित्र वर्णन में तुलसी अपनी प्रतिभा का चरम दिखाते हैं। राज सिंहासन पर बैठे राम की तुलसी इस कदर उपेक्षा करते हैं, कि पूरे राज्याभिषेक को अपनी कथा में जल्दी से निपटा देते हैं।

रामकथा के अंत में तुलसी राम को राज्य सिंहासन पर बिठाकर महाकाव्य का सुखांत नहीं करते। वे राम को लोक के बीच ले जाते हैं। अयोध्या की अमराई में भरत अपना गमछा बिछाकर उन्हें जमीन पर बिठाते हैं। राम, राज्य (State) के आडम्बर से थक चुके हैं। राजा बनते ही राम थके थके से लगते हैं। उन्हें सिंहासन से दूर कहीं जनता के बीच जाना है। तुलसी राम को सिंहासन से उतार अयोध्या के उपवन में ले जाते हैं। राम यहीं बैठ ऋषि मुनियों के साथ साथ अयोध्या के अन्य लोगों से संवाद करते हैं। यही तुलसी का ‘लोकतान्त्रिक दर्शन’ है।

राम के सारे काम जनहित में हैं। “कृपासिंधु जनहित तनु धरहीं”। तुलसी के काव्य में किसान जीवन प्रभावी है। उसमें अन्न, जल,कांस, फसल, धान, खेत, बादल, ओले, वर्षा, द्रव आदि सब हैं।

इस लोकतंत्र में प्रजा दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से मुक्त है। “दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। रामराज काहु नहीं व्यापा।। रावण कुलीन था।परशुराम ब्राह्मण थे। बाली शक्तिशाली अत्याचारी था। राम की जनपक्षधरता इन सबसे टक्कर लेती है। राम इन सबका नाश करते हैं। जनबल से, लोकशक्ति से। सेना के जरिए नहीं। 

राम की शक्ति जनता की शक्ति है। लोकशक्ति है। इसी के साथ वे अपने वन अभियान पर निकलते हैं।

लोक स्वीकृति के लिए लोकशक्ति संगठित की

राम का वन गमन भी उनका लोकतंत्रीकरण है। राम राजा थे। चुने हुए जनप्रतिनिधि नहीं थे। तुलसी की सोच देखिए। देश की गरीबी, लाचारी और लोकमन को जानने के लिए वे उन्हें वन ले गए। जिस देश की अधिकांश जनता जंगलों, झोपड़ियों में रहती है। उनका राजा राजप्रासाद या सुसज्जित महलों में रहकर उनकी मुश्किलों को नहीं समझ सकता। गांधी ने भी ऐसे ही देश को समझा। बैरिस्टर गांधी का टोपी, हैट, टाई वाला रूप देखिए।( हालांकि कुछ जाहिल उन्हें अब बैरिस्टर भी नहीं मान रहे हैं) देश को समझने के लिए उन्हें लाठी, धोती और गमछे में घूमना पड़ा।

राम घर से निकलते ही वनवासियों का वल्कल वस्त्र पहनते हैं। उन्हें इतनी मुश्किल झेलने की जरूरत क्या थी? राजा दशरथ उनके लिए दंडकारण्य में एक फार्महाउस तो बनवा ही सकते थे। वे चाहते तो अपने ससुराल जनकपुरी, रिश्तेदारों और पड़ोसियों की सेना लेकर लंका पर आसानी से चढ़ाई कर सकते थे। पर उन्होंने ऐसा ना कर वनवासियों, आदिवासियों और गिरीजनों को संगठित किया। लोक स्वीकृति के लिए लोकशक्ति को संगठित किया।

वनवास को स्वीकारने के बाद राम, लक्ष्मण को अयोध्या में ही रोकना चाहते हैं। इसके लिए वे जो कारण बताते हैं। वही हमारे लोकतंत्र का बीजमंत्र है। राम लक्ष्मण से कहते हैं। ‘पिताश्री मोह में हैं। बूढ़े भी हो चले हैं। ऐसे में वे प्रजा को सुखी न रख पाए तो उन्हें नरक मिलेगा। इसलिए हे लक्ष्मण तुम्हें अयोध्या में रुक कर प्रजा की चिंता करनी चाहिए।’

विचार से और

“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।” यहां दुखी पिता को संबोधित करते पुत्र राम नहीं, तुलसी का नीति पक्ष बोल रहा है। जिसके राज्य में प्रजा सुखी नहीं है। वह राजा नरक में जाएगा। तुलसी पूरे होशोहवास में कर्तव्य से च्युत राजाओं के पतन की भविष्यवाणी करते हैं। देश का मुखिया, शासक कैसा हो? इस पर विचार करते हुए तुलसी अपनी समकालीन लुटेरी शासन व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करते हैं।

लोकतंत्र का मूल्य

चित्रकूट से विदा होते हुए भरत को राम का सबसे बड़ा उपदेश है। जो तुलसी के लोकतंत्र का प्राण है। राम, राजा और प्रजा के संबंधों पर कहते हैं, “मुखिया मुख सो चाहिए खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।” राजा को मुख जैसा होना चाहिए जो खाने में तो अकेला हो। पर हर अंग को उससे पोषण एक जैसा मिलता रहे। यानी शासन पक्षपाती, अन्यायी न हो। इस लिहाज से राम हमारे पहले ‘लोकतंत्रीय पुरुषोत्तम’ है।

तुलसी राम के जरिए एक ऐसा लोकतंत्र रचते हैं। जो नीति का शिलालेख है। जिसे अपना पाना आज की राजनीति के लिए भी आसान नहीं है। पूरे रामचरितमानस में जहां राजा के धर्म की बात आती है। तुलसी बेहद कठोर हो जाते हैं। राजस्व और कर का प्रबंधन कैसा हो? यह तुलसी के लोकतंत्र का वह मूल्य है, जिस पर आज की अर्थव्यवस्था चलती है। “मणि-माणिक महंगे किए, सहजे तृण, जल, नाज। तुलसी सोइ जानिए राम गरीब नवाज||” मणि, माणिक महंगा और तृण, जल, अनाज सस्ता। यही तो लोकतंत्र में कर प्रबंधन मूल है।

तुलसी ने दोहावली में राजनीति पर कोई बीस दोहे लिखे हैं। जिनमें अधिकांश कर प्रणाली पर हैं। कुराज से समाज को उबारने की कल्पना ही रामराज्य है। जिसमें साधारण प्रजा के दुख-सुख और सम्मान का पूरा ध्यान रखा गया है। जिसमें राजा को विवेकी, मंत्री को मोह रहित और ताकतवर लोगों को संयमी होने की जरूरत बताई गयी है।

तुलसी के लोकतंत्र का मूल था-

“पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥”

“नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा व भीरा॥”

लोकतंत्रात्मक शासन की गतिविधि जनसमूह की इच्छा का अनुसरण करने वाली होनी चाहिए। महाराज दशरथ को भी राम को युवराज बनाने के लिए जन स्वीकृति लेनी पड़ी थी। उस वक्त भी मंत्री वही होते थे जो जनपदों के विश्वासपात्र होते थे। राजा की राजसभा में सभी जातियों के लोग सभासद होते थे।

तुलसी ने राम के जरिए भरत को लोकतंत्र का एक अनोखा मंत्र दिया।राजधरम सरबसु एतनोई। जिमि मन माहं मनोरथ गोई॥ राजधर्म का सर्वस्व इतना ही है, जैसे मन में मनोरथ छिपा रहता है।

तुलसी का रामराज्य एक सबल और जनमत से नियंत्रित लोकतंत्र है। उसमें मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षी और वनस्पति भी अनुशासन में है। वृक्ष सदा फलते-फूलते हैं। हाथी, सिंह वैरभाव भूलकर साथ रहते हैं। तालाब कमलों से भरे रहते हैं। सूर्य उतना ही तपता है जितनी ज़रूरत है। प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे के सहयोगी है।

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन॥

खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई॥

रामराज्य का राजा भी गुणी है। वह लोक और वेद की नीति पर चलता है। धर्मशील, प्रजापालक, सज्जन और उदार है। राजा के गुणों को गिनाने में भी तुलसी हमेशा प्रजा के हित की बात करते हैं। उनकी सबसे ज्यादा चिंता प्रजा को लेकर है। राजा को प्रजा प्राणों से प्रिय है। फिर ऐसे राज्य में विषमता की कोई जगह कैसे हो सकती है। गांधी भारत में नए उदित होते जिस लोकतंत्र में रामराज्य की बात करते हैं, उसका मूलाधार भी तुलसी का रामराज्य ही है।

उनके लोकतंत्र में भाईचारा, प्रकृति, पर्यावरण की हिफाजत, दलितों, आदिवासियों, वनवासियों के साथ सद्भाव। पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता, वन्यजीवों के लिए दोस्ताना व्यवहार है। किसी को किसी से बैर नहीं है। किसी को शोक नहीं है। रोग दूर हो गए हैं। कम उम्र में मृत्यु नहीं होती। सब सुन्दर और निरोगी हैं। कोई दुखी, दरिद्र, दीन नहीं है। कोई मूर्ख या लक्षणहीन भी नहीं है।

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥

तुलसी की रामकथा के तीन वाचक और तीन श्रोता हैं। पहले शिव, फिर याज्ञलव्य और तब काकभुशुंडी। श्रोता भी तीन हैं पार्वती, भारद्वाज और गरुड़। काकभुशुंडी कौवा जाति के हैं।जो पक्षियों में निकृष्ट है, गरुड़ पक्षियों में श्रेष्ठ हैं। काकभुशुंडी के पांडित्य के कारण ही गरुड़ उनके शिष्य बनते हैं।यानी जाति के चक्र को तोड़कर कोई भी व्यक्ति पंडित हो सकता है। अगर वह ज्ञानी गुणी है। तो वह पूज्य है।

सोने की लंका तानाशाही और शोषण का प्रतीक

तुलसी का लोकतंत्र समता मूलक है। “बैर न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।” यानी अहिंसक बैर, विरोध रहित समाज। रावण का राज्य पूंजीवादी था। सोने की लंका तानाशाही और शोषण का प्रतीक थी। रामराज्य का राजा अपने को सेवक समझता था। राम सेवक, भरत सेवक, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और हनुमान सब सेवक।सबका सेवक ‘धर्म’ है।तुलसी को राजा राम का असाधारण अलौकिक रूप पसंद नहीं है।उन्हें राम का आम आदमी सरीखा व्यवहार प्रिय है।वे जन सामान्य की तरह जीते हैं।तभी तो सेविकाओं के रहते सीता घर का काम अपने हाथ से करती हैं।

जद्यपि गृहं सेवक सेवकिनी। बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी॥

निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई॥

तुलसी अपने इस लोकतांत्रिक समाज में किसी और धर्म का विरोध भी नहीं करते। उनके यहां सर्वधर्म सद्भाव है। इसलिए राम की जीत जनता की जीत होती थी। राम की मुश्किलें जनता की मुश्किलें होती थी। तुलसी ने जनता को मरते-मरते जीना सिखाया।

डॉ. लोहिया ने कहा ‘जीना है तो मरना सीखो’। नेताजी ने कहा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा”। राम ने भी साधारण जन को यही सिखाया। अन्याय के खिलाफ लड़ो। जीतो। आजादी लो। जनता अगर सक्षम नेतृत्व में लड़ेगी तो आजादी जरूर मिलेगी।

लोकतंत्र का अनोखा पर्व

तुलसी अपने समय के देश को देखते, समझते हैं। उसमें उसकी विषमताएं, अच्छाइयां, बुराइयां, सुख-दुख सब शामिल है, रामराज्य उस युग की आशा, आकांक्षा का प्रतीक स्वप्न है। चित्रकूट में पूरी अयोध्या राम की झोपड़ी के बाहर जमा है। शोक के अतिरिक्त वहां कुछ नहीं है। भांति-भांति के शोक। पिता की मृत्यु का शोक, वैधव्य का शोक, राम के निर्वासित होने का शोक, भरत के भीतर ग्लानि का शोक। इस शोक संतप्त माहौल में सब चाहते हैं राम वापस लौटे चलें। राम जनमत के इस आग्रह को भरत पर छोड़ देते हैं। पूरी कथा का सबसे रोमांचक प्रसंग यही है।

भरत का मोह यहां टूटता है।राजनीति की समझ जगती है। तुलसी लिखते हैं, “सोक कनकलोचन मति छोनी। हरी बिमल गुन गन जगजोनी॥ भरत बिबेक बराहं बिसाला। अनायास उधरी तेहि काला॥” भरत का विवेक वराहा की तरह प्रकट होता है। इसके बाद भरत अपना आग्रह छोड़ देते हैं। यह तुलसी के लोकतंत्र का अनोखा पर्व है।

रात हो गई है। पूरी अयोध्या चित्रकूट में जुटती है। सभी लोग टकटकी लगाए राम, सीता, लक्ष्मण और भरत की ओर देख रहे हैं। यहां से तुलसी के लोकतंत्र की लोकमंगल यात्रा शुरू होती है। उस रात वहां जो हुआ, वह दुनिया के किसी लोकतंत्र के पास नहीं है। राम पिता के वचन का मान रखने के लिए संकल्पबद्ध हैं। सुमंत को वापस भेजते हुए वह कहते हैं, “कहब संदेसु भरत के आएं। नीति न तजिअ राजपदु पाएं॥” पर भरत की लोकतांत्रिक अवधारणा अलग है। जो सिंहासन से हुए अन्याय को नामंजूर करती है।

भरत के इस रवैये से राजभवन के षड्यंत्रकारी भी अपनी भूल स्वीकार करते हैं। महत्वकांक्षाओं और कुटिलता का षड्यंत्र भरत के संकल्प से हारता है। जिसे राजा होना था वह राजा बनने से मना कर देता है। भरत को यह राज्य पूरी वैधता से मिला था। उनका सत्ता हस्तांतरण उसी वचन का हिस्सा था। जिसका मान रखने के लिए राम वन गए थे। ऐसा कहीं होता है? जिसे राज्य मिले वह उसे नकार दें। “आगें होइ जेहि सुरपति लेई।अरध सिंघासन आसनु देई।।”

दशरथ सत्ता के शिखर का प्रतीक है।इंद्र भी अपने सिंहासन से उतरकर दशरथ का स्वागत करते हैं। वे मनु के वंशज हैं। इक्ष्वाकु, मांधाता की परंपरा के हैं। ऐसा सर्वशक्तिमान दशरथ भी अगर अनीति का निर्णय लेता है तो भरत उस वचन को तोड़ देगा। जिसका एक सिरा पकड़कर राम वन चले गए। भरत का यह लोकतंत्र, न्यायतंत्र है। भरत इससे भी आगे जाते हैं। वे अपनी उस भूल का प्रायश्चित करते हैं।जो उन्होंने किया ही नहीं है। ’साकेत’ में मैथिलीशरण गुप्त उसे अभिव्यक्ति देते हैं-

“हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना;”

सब सजग हो गये, भंग हुआ ज्यों सपना।

“हे आर्य, रहा क्या भरत-अभीप्सित अब भी?

मिल गया अकण्टक राज्य उसे जब, तब भी?

पाया तुमने तरु-तले अरण्य-बसेरा,

रह गया अभीप्सित शेष तदपि क्या मेरा?

तनु तड़प तड़प कर तप्त तात ने त्यागा,

क्या रहा अभीप्सित और तथापि अभागा?

हा! इसी अयश के हेतु जनन था मेरा,

निज जननी ही के हाथ हनन था मेरा।”

यहां से राम का लोकतंत्र शुरू होता है। जो राजा की पूरी अवधारणा को बदल देता है। अयोध्या कैकेयी को अपराधिनी मानती है। भरत भी उन्हें अपराधी मानते हैं। यहां तक कि राम के परम मित्र निषादराज भी कहते हैं, “कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।” इसे देख लगता है कि अगर भरत का लोकतंत्र न्यायतंत्र है, तो राम का लोकतंत्र क्षमातंत्र है।

आत्मग्लानि से भरी कैकेयी भी उसी रात्रिसभा में बैठी है। सभा में उसका अपना पुत्र अपनी मां को अभागिनी, अपराधी कह रहा है। अपने लोकतंत्र में सबसे पहले तुलसी राम के जरिए कैकेयी को षड्यंत्र के अपराध से मुक्त करते हैं। राम को पता है कि अगर कैकेयी को वे भरत के सामने अपराधमुक्त नहीं करते तो कैकेयी जीते जी मृतप्राय हो जाएगी। कैकेयी को समाज कभी क्षमा नहीं करेगा।

राम के लोकतंत्र का अगला दृश्य। गुरु वशिष्ठ और राजा जनक सहित पूरी अयोध्या का बहुमत राम को वापस लाने के पक्ष में था। यही उस वक्त के जनमत का आदेश था। तो क्या इसे न मान राम ने जनमत की उपेक्षा की? तुलसी के लोकतंत्र का स्वर्णिम पक्ष यही है। इसीलिए राम राजनीति के पुरुषोत्तम है। तुलसी के राम यह सिद्ध करते हैं। मोह व्यक्ति को नहीं, पूरे समाज को भी ग्रस सकता है। समूह (भीड़) के फैसले हमेशा सही नहीं होते।

तुलसी ने इस स्थिति के लिए ‘स्नेह जड़ता’ शब्द का प्रयोग किया है। राम पूरे धैर्य से भरत और अयोध्या की भावना सुनते हैं। लेकिन विनम्रता के साथ जनमत को उसका दायित्व बताते हैं।

यह अयोध्या के लिए विकट समय था। पर इस कठिन समय में भी राम का विवेक जागृत था।वह जानते थे, लोकतंत्र में जनमत के निर्णय गलत हो सकते हैं।यदि नेतृत्व चेतन है तो समूह की भूल भी सुधार देता है।वे समाज को उचित निर्णय लेना सिखाते हैं। वे लोकमत के विरुद्ध जाकर लोकतंत्र का अनोखा आदर्श पेश करते हैं।

भरत का लोकतंत्र यदि परिवार की भूल के लिए राजा का सार्वजनिक प्रायश्चित है।तो राम का लोकतंत्र समूह को उचित, अनुचित का विवेक सिखाता है। वह यह बताता है कि भीड़ हमेशा सही निर्णय नहीं देती। राम समाज से कहते हैं ‘राजा से वही कराएं जो उचित है।’ “सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू॥ साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी॥”

राम और भरत के इस व्यवहार से अनोखा राज्य बनता है। अयोध्या को चौदह साल तक दो राजा चलाते हैं। दोनों ही सिंहासन पर नहीं बैठते। एक सम्राट वन में राक्षसों से मुक्ति का संकल्प पूरा कर रहा है। तो दूसरा सम्राट अयोध्या से बाहर नंदीग्राम की कुटिया से राजधर्म का पालन कर रहा है। नंदीग्राम में जटा-जूट धारी एक संत सम्राट बैठा है। कुटिया में वह वैसे ही रहा है, जैसे राम वन में रहते। धनुष-बाण साथ में है। सुरक्षा का दायित्व पूरा है। तो फिर चाहे हनुमान ही क्यों ना हो?

यदि वे अयोध्या के ऊपर से जाएंगे तो भरत उन्हें बाण मारकर नीचे उतार लेंगे। भरत भ्रातृप्रेम के आर्दश हैं। इस आदर्श को और मजबूत बनाने के लिए तुलसी चूकते नहीं। उनकी नजर में सुग्रीव और विभीषण खटकते रहते हैं। वे चाहते तो इस पर कोई टिप्पणी से बच भी सकते थे। पर भरत के आदर्श को बड़ा बनाने के लिए उन्होंने एक दोहा रच दिया।भरत ने भाई के लिए मिला राज्य ठुकरा दिया। और सुग्रीव व विभीषण ने राज्य के लिए भाई को मरवा दिया।

तुलसी लिखते हैं, राम जब भरत की भ्रातृ भक्ति का बखान करते हैं तो सुग्रीव और विभीषण ऐसे लगते हैं। मानो कोई चोरी किया गया सामान ले कर जाते हुए पकड़ा जाए।

सघन चोर मग मुदित मन धनी गही ज्यों फेंट।

त्यों सुग्रीव बिभीषनहिं भई भरतकी भेंट।।

राम सराहे भरत उठि मिले राम सम जानि।

तदपि बिभीषन कीसपति तुलसी गरत गलानि।।(दोहावली)

उत्तरकाण्ड में राम राज्याभिषेक के बाद जनता से संवाद करते हैं। “सुनहु सकल पुरजन मम बानी। कहउं न कछु ममता उर आनी॥ नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई। सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई॥” “सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥ जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥” इस भाषण में तीन शब्द मूल्यवान हैं। ‘ममता’, ‘अनीति’ और ‘भय’।

राम कहते हैं, ‘मैं राजा तो हूं। पर बेलाग कहता हूं। हे अयोध्याजन आप अपने विवेक से सुनने और करने के लिए स्वतंत्र हैं। अगर मैं अनीति करूं तो रोक देना मुझे।’ कौन सा शासन प्रमुख आज यह कहेगा कि अगर अनीति करूं तो हमे रोक दिया जाए। यह राईट टू रिकॉल से मिलती जुलती अवधारणा है। लोकतंत्र असंख्य स्वाधीनताएं देता है। ताकि लोग भय रहित होकर सत्ता से सवाल कर सकें। तभी राम कहते हैं, ‘डरना मत मुझसे।’ “तौं मोहि बरजहु भय बिसराई।” तभी धोबी ने भी बिना डरे अपनी बात रखी और राम ने सुनी।

लोकतंत्र में सभी संस्थाएं अनीति और नीति बताने का आयोजन हैं। तुलसी के लोकतंत्र में इनकी स्वाधीनताएं सुरक्षित हैं। उनका आदर्श नेतृत्व बहुमत को सही फैसला लेना सिखाता है। राजपथ को उनकी सीमाएं बताता है। राजा गड़बड़ करे तो तुलसी पूरे होशोहवास में उसके पतन की भविष्यवाणी करते हैं।

राज करत बिनु काजहीं करहिं कुचालि कुसाजि।

तुलसी ते दसकंध ज्यों जइहैं सहित समाज।।

राज करत बिनु काजहीं ठजहिं जे कूर कुठाट।

तुलसी ते कुरूराज ज्यों जइहैं बारह बाट।। (दोहावली)

कुचाली, दुर्नीति वाला राजा कितना भी ताकतवर क्यों न हो, पूरे समाज को लेकर डूबता है। राम के वनवास पर लोग (जनता) कैकेयी और दशरथ को अपशब्द कहते हैं। तुलसी के लोकमंगल में प्रजा निडर थी। दशरथ की खुली आलोचना हुई। कोई कह रहा है कि राजा दशरथ स्त्री से इतनी वशीभूत हैं कि उनका सारा ज्ञान, गुण और विवेक समाप्त हो गया है।

एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥

तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥

धोबी की आवाज बदल देती है समीकरण

लोकमंगल, जनमत, सुशासन, सुव्यवस्था, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व की जड़े रामराज्य से निकलती हैं। रामराज्य लोकोन्मुखी और जनवादी था। शासन में जन सामान्य की भागीदारी ही लोकतंत्र की रीढ़ होती है। राज्य सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। वहां एक सामान्य धोबी की आवाज भी सत्ता के समीकरण बदल देती है। उसे सुनना राज्य की जिम्मेदारी है।

राम राज्य के प्रतीक हैं वह दीनबंधु दीनानाथ, कृपानिधान और गरीब नवाज है राजतंत्र में प्रजातंत्र की ऐसी कल्पना तुलसी के दूरगामी चिंतन की अमूल्य निधि है। एक ऐसे लोकतंत्र की कल्पना जिसमें शासन, प्रकृति, परमात्मा और प्रजा के बीच सेतु है। “सब मम प्रिय सब मम उपजाए।” लोकतांत्रिक मूल्यों की ऐसी प्रतिष्ठा की राजपाट मिलने के बाद भी भरत राज्य से मिलने वाली सुख-सुविधाओं से अनासक्त और उदासीन हैं।

स्वस्थ लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जरूरी है कि शासक से लेकर प्रशासन तक श्रम के महत्व को समझे। राम की केवट को उतराई देने की पेशकश, इसी मूल्य की स्थापना है। इस राम राज्य में सभी जाति, वर्णों को एक साथ स्नान करते दिखाया गया है।

समतामूलक लोकतंत्र का सूत्र- “राजघाट सब बिधि सुंदर बर। मज्जहिं तहां बरन चारिउ नर॥” राज्य प्रमुख का अपनी प्रजा से सीधा सम्पर्क और देश की भौगोलिक जानकारी। तुलसी ने पूरे देश की राम से परिक्रमा कराई। विश्वामित्र के साथ वे पूर्वी भारत की यात्रा पर गए। नेपाल, बंगाल तक लोगों से जनसम्पर्क किया। दूसरी तरफ विन्ध प्रदेश के रास्ते लंका तक गए। उत्तर, दक्षिण के सम्पर्क सूत्र बने। इस दौरान वे मनुष्य, सिद्ध, संतों से ही नहीं वानर, भालू तक के सम्पर्क में आए। यह उनकी असली भारत जोड़ो यात्रा थी।

‘अयोध्या स्टेट’ ने अपने सैन्य बल का इस्तेमाल कभी राज्य विस्तार की भावना से या अपना प्रभुत्व स्थापित करने की भावना से नहीं किया। बाली वध के बाद किष्किंधा को सुग्रीव को सौंपना या लंका को विभीषण को सौंप फिर उधर की तरफ न देखना इसका उदाहरण है।

वे चाहते तो अपने किसी मैनेजर या चंपू को दोनों राज्य सौंप सकते थे। तुलसी ने अपने साहित्य में सामंती शासन का विरोध और लोकतांत्रिक मूल्यों का समर्थन हर कहीं किया है। डॉ। रामविलास शर्मा कहते हैं, ‘तुलसी बड़ी कुशलता से समाज में सामंतों के कुशासन पर सवाल उठाते हैं। जनता के कलेशों और दरिद्रता का वर्णन करते हैं।

“खेती न किसान को, भिखारी न भीख।

बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।।” (कवितावली)

खास बात देखिए गांधी सिर्फ इसी रामराज्य को आदर्श लोकतंत्र मानते थे। उनके वैचारिक विरोधी सावरकर भी रामचरित मानस को लोकतंत्र का आदर्शशास्त्र कहते हैं। एक ऐसा शास्त्र जो लोकतंत्र की कहानी ही नहीं, लोकतंत्र का प्रहरी, प्रेरक और निर्माता भी है।

वीर सावरकर यह भी कहते हैं,कि ‘जब तक हमारे यहां रामायण है कोई डिक्टेटर पनप नहीं सकता।’ लोकतंत्र में शासन, उसका धर्म, उसके कर्त्तव्य कैसे हों, उसकी शासन व्यवस्था, उसका बजट कैसा हो उस सब पर तुलसी ने विचार किया है।

राम लोक के प्रतिनिधि हैं। लोक जैसा व्यवहार करते हैं। लोक जैसा बनना चाहते हैं। चौदह बरस जनता के बीच रहकर जनता जैसा आचरण करते हैं। वह न राजा हैं, न भगवान। उनके सारे कार्य मानवीय है।

स्त्री के अपहरण का शिकार होते हैं। वियोग में रोते हैं। हे खग, हे मृग हे मधु कर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी कहते हैं। भाई के वियोग में परेशान हैं। राम कि इन स्थितियों को देखकर पार्वती को संदेह होता है। क्या राम भगवान है? सिर्फ पार्वती को नहीं बल्कि दो और श्रोता भारद्वाज और गरुण को भी संदेह होता है। यही तुलसी का लोकतंत्र।
साभार - पुस्तक - राम फिर लौटे, प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन
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हेमंत शर्मा
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